Tuesday, June 2, 2015

आपसे ज्यादा महत्व है आपके डेटा का

आप किसी स्टोर में खरीददारी करने जाते हैं और जब बिलिंग की बारी आती है तो आपसे नाम पूछने के बाद प्राय: आपका मोबाइल नम्बर भी पूछा जाता है. आप सहज रूप से बता देते हैं. आप इण्टरनेट पर किसी सेवा, चाहे वो ई मेल खाता हो, कोई सोशल नेटवर्किंग साइट हो या कुछ और, के लिए साइन इन करते हैं तब आपके सामने एक बॉक्स आता है, जिसके आगे छपा होता है – आई एक्सेप्ट यानि मैं स्वीकार करता हूं. आप उस पर टिक कर देते हैं. हममें से शायद ही कोई इतना जागरूक या धैर्यवान हो कि वह उस पूरी इबारत को पढ़े जिसे उसने स्वीकार किया है.

ये और इस तरह की बहुत सारी निरापद लगने वाली हरकतें करते समय हम शायद ही इस बात से वाक़िफ हों कि ऐसा करते हुए हम न केवल दूसरों को अपनी निजता में ताका झांकी करने का अधिकार सौंप रहे हैं, अनजाने में ही उस परिघटना का शिकार भी हो रहे हैं जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के ज्ञान और प्रबंधन के निदेशक नजीब अल शोराबजी ने अपने एक भाषण में ‘डेटा कोलोनियलिज़्म’ का नाम दिया था. कोलोनियलिज़्म यानि उपनिवेशवाद का नाम आते ही हमारे कान खड़े हो जाते हैं. क्या है यह डेटा कोलोनियलिज़्म? इन नजीब अल शोराबजी ने तो डेटा कोलोनियलिज़्म संज्ञा का प्रयोग उस स्थिति के लिए किया था जिसमें पश्चिमी  देश अफ्रीकी राष्ट्रों के स्वास्थ्य विषयक डेटा का दोहन कर रहे हैं, बिना अफ्रीकी देशों को इसका तनिक भी लाभ दिये. लेकिन यह तस्वीर का बहुत छोटा हिस्सा  है. इस डेटा कोलोनियलिज़्म का आकार कितना बड़ा हो चुका है इसका अन्दाज़ आप सिर्फ इस जानकारी से लगा लीजिए कि इस बरस यानि 2015 में अकेले भारत में इसका मूल्य एक बिलियन डॉलर यानि करीब सात हज़ार करोड़ रुपये  आंका गया है.

असल में आज की दुनिया में डेटा एक कमोडिटी बन गया है, एक ऐसी वस्तु  जिसका मोल सोने से भी ज़्यादा है. यह जो उन तमाम वेबसाइट्स का मायाजाल है जो आपके सामने आकर गिड़गिड़ाती हैं कि आप अपने स्मार्ट फोन पर उनकी एप डाउनलोड कर लें – क्या यह बेवजह है? मुझे बहुत खुशी होती है जब किसी एप की वजह से तुरंत मेरी गैस बुक हो जाती है या बिना यह बताए कि मैं कहां खड़ा हूं, मेरी बुलाई हुई कैब आकर मेरे सामने खड़ी हो जाती है. लेकिन यह सब तस्वीर का एक पहलू ही है. दूसरा पहलू जो ज्यादा चौंकाने और विचलित करने वाला है वह यह है कि इस तरह मेरे पूरे बर्ताव पर नजर रखी जा रही है. क्या आपने कभी नोट किया है कि जब आप अपने किसी ई मेल में किसी हिल स्टेशन पर जाने की बात लिखते हैं, तो उसी समय उस पेज के दाहिनी तरफ  उसी हिल स्टेशन के होटलों के विज्ञापन क्यों दिखाई देने  लगते हैं? जब आप किसी पुस्तक विक्रेता की साइट पर किसी किताब को तलाश करते हैं तो उससे मिलती जुलती किताबों के सुझाव कैसे आने लगते हैं? जब आप कोई पोर्न साइट विज़िट करते हैं तो क्यों और कैसे उसी समय आपके शहर का नाम लेते हुए आपको यह सूचनाएं मिलने लगती हैं कि वहां  रास रचाने की सुविधाएं आपके इंतज़ार में हैं. ये चन्द उदाहरण हैं जिनसे  आप अनुमान लगा सकते हैं कि आपके अनजाने में आपके क्रिया कलाप पर नज़र रखी जा रही है.

और इसी ताका-झांकी के खेल, बल्कि बड़े कारोबार की तरफ मैं आपका ध्यान खींचना चाह रहा हूं.  दरअसल इस तरह डेटा संग्रहण करते हुए भविष्य की एक ऐसी संरचना की कल्पना की जा रही है जिसमें मानवीय विवेक को इन सूचनाओं के संसाधन द्वारा प्राप्त निष्कर्षों पर कुर्बान कर दिया जाएगा. जन्म से मृत्यु तक आपकी हर गतिविधि को लगातार रिकॉर्ड और संसाधित किया जाएगा और उसी के अनुसार तमाम गतिविधियों जिनमें व्यावसायिक और प्रशासनिक सभी तरह की गतिविधियां शामिल हैं, संचालित किया जाएगा. ऊपर से यह बात भले ही आकर्षक लगे, इसमें जो ख़तरे निहित हैं उनकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती. मसलन यह कि सोच और अनुभव को डेटा विस्थापित कर डाले और यह भी कि अगर इन डेटा को तोड़ मरोड़ कर मनचाहे निष्कर्ष निकाल लिये जाएं तो? वायर्ड  पत्रिका के पूर्व मुख्य सम्पादक क्रिस एण्डरसन ने जब अपने एक चर्चित लेख में यह कहा था कि इस तरह आंकड़ों   पर अत्यधिक निर्भरता कार्य कारण पद्धति को अप्रासंगिक कर देगी, तो  को दुनिया का चौंक जाना स्वाभाविक ही था. चिंता की बात यह है कि हम अपने अनजाने में आहिस्ता-आहिस्ता उसी व्यवस्था की तरफ बढ़ते जा रहे हैं जिसमें डेटा निर्माण के कच्चे माल यानि ‘लोगों’ की आवाज़ को न सुनकर सिर्फ डेटा की आवाज़ को ही सुना जाएगा. हताशा की बात यह है कि इस चिंताजनक स्थिति में हम अपने आपको बेबस पा रहे हैं.  

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 जून, 2015 को डेटा कोलोनियलिज़्म: आज़ादी का दुश्मन शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.