कमलेश्वर के उपन्यास ‘काली आंधी’ पर आधारित ‘आंधी’ फिल्म में गुलज़ार साहब का लिखा हुआ एक गीत था: 'सलाम
कीजिए..आली जनाब आए हैं. ये पाँच सालों का देने हिसाब आए हैं..' . इन दिनों चारों
तरफ़ इन्हीं आली जनाबों की धूम है. लेकिन
एक फर्क़ है. फर्क़ यह है कि आजकल आली जनाब अपने पांच सालों का हिसाब देने की बजाय
दूसरों के पांच सालों का हिसाब मांगने में ज़्यादा रुचि लेते हैं. वैसे इससे कोई
ज़्यादा फर्क़ नहीं पड़ता. ये लोग आपस में ही एक दूसरे को इतना बेपर्दा किए दे रहे
हैं कि हिसाब देने न देने की कोई अहमियत नहीं रह गई है. इन सबके बारे में जान कर
बेचारा मतदाता शायर खलिश बडौदरा की तरह सोच रहा है: ऐसे-वैसे कैसे-कैसे हो गए/
कैसे-कैसे ऐसे-वैसे हो गए!
चुनाव के दिनों में जो कुछ
भी होता है वो सब हो रहा है. जनता या देश की सेवा के लिए अपनी भूली-बिसरी ललक का
यकायक याद आ जाना,
टिकिटों के लिए मारा-मारी,
रूठना-मनाना, एक से दूसरे दल में आना-जाना,
एक चुनाव क्षेत्र की भरपूर सेवा कर लेने के बाद दूसरे चुनाव क्षेत्र
का रुख करना, कहीं टिकिट लेने के लिए तो कहीं टिकिट न लेने
के लिए अजीबो-गरीब तर्क देना, अपनी कमीज़ को दूसरों की कमीज़ से उजला बताना, अपने
दागों को अच्छा साबित करना – सब कुछ हो रहा है.
इनमें से हरेक अपनी जीत के
प्रति पूरी तरह आश्वस्त है,
या कम से कम आश्वस्त होने का दिखावा कर रहा है, ताकि
माहौल बना रहे. टिकिट मिल जाने के बाद
अपने समर्थकों के साथ जुलूस में जाकर नामांकन पत्र दाखिल किए जाएंगे और उसके बाद पूरी विनम्रता से
मतदाता को एहसास कराया जाएगा कि ‘पितु मातु सहायक स्वामी सखा’
जो भी हो तुम्हीं हो. तुम्हीं
मेरे मंदिर, तुम्हीं
देवता हो. कम से कम वोटिंग मशीन पर बटन दबाने तक तो हो ही. बाद की बाद में
देखी जाएगी. फिर तुम कहां, हम कहां! ढूंढते रह जाओगे!
यह सब पिछले चुनावों में
भी हुआ था, उससे पिछले में भी, उससे भी पिछले में भी, और इंशाअल्लाह आगे भी होता रहेगा. और इस सबके बीच हमारा जनतंत्र परिपक्व
होता रहेगा, आगे बढ़ता रहेगा, मज़बूत
होता रहेगा. हम सब भी इन सबका भरपूर आनंद
लेते हैं. जब हम लोग छोटे थे तब राजनीतिक दलों वाले बिल्ले वगैरह बांटा करते थे और
हम बच्चे बड़ी हसरत भरी निगाहों से दाताओं को ताका करते थे. अब जीवन स्तर ऊंचा उठ
गया है, उनका भी और हमारा भी. आज बच्चे, कम आय वालों की बस्तियों के बच्चे तक, बिल्लों जैसी तुच्छ चीज़ों के लिए नहीं भागते हैं. निर्वाचन विभाग
ने उम्मीदवारों द्वारा किए जाने वाले खर्च की सीमा यों ही तो नहीं बढ़ाई है. चुनाव
बहुत तेज़ी से हाई टेक हुए हैं. हाई टेक भी और हाई प्रोफाइल भी. अब उम्मीदवार
मतदाता के दर पर आने की जहमत भी कम ही उठाते हैं. इसकी जगह बड़ी सभाओं, उनके लाइव टेलीकास्टों और सोशल मीडिया के भरपूर प्रयोग ने ले ली है.
प्रचार के तरीके अधिक परिष्कृत और अधिक अप्रत्यक्ष होते जा रहे हैं. इन तमाम बातों
का असर यह ज़रूर हो रहा है कि अब कम साधन सम्पन्न उम्मीदवार या दल के लिए
चुनाव जीतना तो दूर, लड़ना भी दुश्वार होता जा रहा है. बात सब ‘आम’
की करते हैं, लेकिन होते ख़ास हैं. वो दिन हवा हुए जब लोग साइकिल पर घूम कर या ज़्यादा से
ज़्यादा किसी जर्जर जीप पर सवार होकर चुनाव
जीत लिया करते थे. अब नेता तो दूर रहा,
कार्यकर्ता भी इन विनम्र साधनों से काफी ऊपर उठ चुका है.
बदलाव पर आप चाहे जितना
रोना-धोना कर लें,
या शालीन भाषा में कहें तो विमर्श कर लें, वो
होकर रहता है. उसे रोक पाना नामुमकिन होता है. लेकिन इन तमाम बदलावों के बीच एक बात अभी भी जस की तस है,
और वो है नेता और जनता का रिश्ता. आपने मरहूम अहमद फ़राज़ साहब की ये
ग़ज़ल ज़रूर सुनी होगी. तमाम नामचीन गायकों ने इसे गाया है. एक दफ़ा फिर इस ग़ज़ल के चंद
अशआरों को सुनिये और सुनते हुए महबूब की बजाय अपने लीडर का तसव्वुर कीजिए. शायद कुछ
मज़ा आए:
रंजिश ही सही, दिल
ही दुखाने के लिए आ
आ, फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम[1] न सही, फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ
अब तक दिले-ख़ुशफ़हम[2] को हैं तुझसे उमीदें
ये आख़िरी शम्ऐं भी बुझाने के लिए आ
जैसे तुम्हें आते हैं न आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ
आ, फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम[1] न सही, फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ
अब तक दिले-ख़ुशफ़हम[2] को हैं तुझसे उमीदें
ये आख़िरी शम्ऐं भी बुझाने के लिए आ
जैसे तुम्हें आते हैं न आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ