Tuesday, November 7, 2023

अब बुज़ुर्ग लोग ज़्यादा खुश नज़र आने लगे हैं!

 क्या आपका भी ध्यान इस बात की तरफ गया है कि आज़ादी के बाद हमारे यहां जो बहुत सारे बदलाव देखने में आए हैं उनमें से एक बदलाव यह भी है कि अब लोग ज़्यादा समय जवान रहने लगे हैं, या कहें कि अब बुढ़ापा देर से आने लगा है! अपनी बात को और स्पष्ट करूं. अगर आपके पास हो तो अपने पिता या दादा की, दादी या नानी की कोई पुरानी तस्वीर निकाल कर देखें. ऐसी तस्वीर जो उनकी साठ बरस के आस पास की उम्र में ली गई हो.  आप पाएंगे कि वे उस तस्वीर में बहुत अस्त  व्यस्त, थके-मांदे, जर्जर और टूटे बिखरे नज़र आ रहे हैं. अब ज़रा उस तस्वीर की तुलना आज के साठ बरस के किसी स्त्री या पुरुष से कीजिए. क्या कल के साठ वर्षीय और आज के साठ वर्षीय आपको एक जैसे लगते हैं? अगर हां, तो फिर इन बरसों में कोई बदलाव नहीं हुआ है, और अगर इस सवाल का जवाब 'नामें है तो सोचने की बात है कि जो बदलाव हुआ है वह कैसे और क्यों  हुआ है! 

मेरा स्पष्ट विचार है आज़ादी के बाद के इन बरसों में हम बुढ़ापे को आगे धकेलने और उसके स्वरूप को बदलने में काफी हद तक कामयाब हुए हैं. आज़ादी के शुरुआती बरसों में लोग साठ की उम्र के आस पास जैसे नज़र आते थे वैसे तो अब अस्सी की उम्र के आस-पास भी नज़र नहीं आते हैं. इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि लोगों की औसत उम्र में वृद्धि हुई है और स्वास्थ्य की स्थितियां पहले से बेहतर हुई हैं. ऐसा बदलाव केवल भारत में ही नहीं, दुनिया के बहुत सारे देशों में हुआ है. वे बहुत सारी बीमारियां जो हमारे बचपन में जानलेवा मानी जाती थींअब उनका नामो निशां ही नहीं बचा है.  इस बात को भी याद कीजिए कि आज से चालीस-पचास बरस पहले कितने लोगों के चेहरों पर  चेचक के दागों के निशान हुआ करते थे, और आज की पीढ़ी इस रोग का नाम तक नहीं जानती है. यह तो मात्र एक उदाहरण है. ऐसे अनेक उदाहरण आप खुद याद कर सकते हैं. 

एक और बड़ी बात यह हुई है कि  लोगों में अपनी सेहत के प्रति जागरूकता बहुत तेज़ी से बढ़ी है. लोग अपने खान-पान के मामले में बहुत सजग हुए हैं और भले ही फास्ट फूड और जंक फूड का चलन बढ़ा है, लोगों में उनके दुष्प्रभावों के बारे में सजगता भी खूब बढ़ी है. फास्ट फूड वगैरह का अधिक चलन उस युवा पीढ़ी में है जो इनके दुष्प्रभावों का सहजता से मुकाबला कर लेती है. बाद वाली पीढ़ी यथासम्भव इनसे दूरी बरत कर अपनी सेहत की परवाह का परिचय देती है. जिनके लिए तनिक भी सम्भव है वे समय-समय पर अपने स्वास्थ्य की जांच करवाते हैं और जैसे ही किसी रोग के प्रारम्भिक लक्षण नज़र आते हैं वे समय रहते उस रोग के उपचार की दिशा में प्रवृत्त होते हैं. मधुमेह, उक्त रक्तचाप आदि के बारे में लोग बहुत ज़्यादा सावधान रहने लगे हैं, जबकि मुझे अच्छी तरह स्मरण है, मेरे बचपन में इन रोगों की शायद ही कभी चर्चा होती हो. रोग तो तब भी रहे होंगे, लेकिन लोग ही उनसे अनजान थे.  फिटनेस के प्रति जागरूकता बढ़ने का आलम यह है कि घोर पारम्परिक नज़र आने वाले स्त्री-पुरुष भी सुबह शाम पार्कों में घूमते नज़र आते हैं और हर शहर कस्बे में नित नए जिम खुलते जा रहे हैं. जीवन शैली में आए बदलावों का सामना लोग अधिक शारीरिक सक्रियता के साथ कर रहे हैं. 

फ़िल्मों, मीडिया और अब सोशल मीडिया ने भी हमें अपने व्यक्तित्व, अपने रख-रखाव और रहन-सहन के प्रति अधिक सजग बनाया है. मुझे तो यह भी लगता है कि जब से विश्व सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारत की सहभागिता बढ़ी है, उसका एक असर हम सब पर यह भी हुआ है कि हम अपने रहन-सहन में और विशेष रूप से अपने पहनावे वगैरह के मामले में अधिक सजग हो गए हैं. बाद के समय में जब अभिनेत्रियों में ज़ीरो फ़िगर का क्रेज़ प्रचारित हुआ, उसका अप्रत्यक्ष असर हम सब पर यह हुआ कि हम भी अपने शरीर की अतिरिक्त  चर्बी को लेकर लज्जा का अनुभव करने लगे. इन सारी बातों का मिला-जुला असर यह हुआ है कि आज का एक आम भारतीय पहले के भारतीय की तुलना में अधिक सेहतमंद और अधिक चुस्त-दुरुस्त नज़र आने लगा  है. 

इसे बाज़ार का असर कहें, प्रचार का असर कहें, भौतिकवाद का बढ़ता असर कहें, पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव कहें,  - जो चाहे कहें, इतना बहुत स्पष्ट है कि  अब बढ़ी उम्र के भारतीय अपने लिए भी जीने लगे हैं. भरत व्यास का लिखा और आशा भोसले का गाया एक पुराना गाना अनायास याद आ रहा है: "गीत कितने गा चुकी हूं इस सुखी जग के लिए/ आज रोने दो मुझे पल एक अपने भी लिए मुझे." आज की उम्रदराज़ पीढ़ी, अपने सारे दायित्व पूरे कर लेने के बाद जीवन का उत्तर काल अपनी अधूरी रह गई आकांक्षाओं को पूरा करते हुए भी बिता रही है. यह आकस्मिक नहीं है कि हमारे पर्यटन स्थलों पर, रेल स्टेशनों और हवाई अड्डों पर पहले से ज़्यादा बुज़ुर्ग नज़र आते हैं. अब न तो वे इस तरह सोचते हैं और न कोई समझदार उन्हें देखकर ऐसी टिप्पणी करता है कि 'भला इस उम्र में यह सब शोभा देता है?'  पश्चिम में तो यह आम बात है कि लोग ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा अपनी ज़िमेदारियां पूरी करने में बिताते हैं और बुढ़ापा अपनी बाकी रह गई हसरतों को पूरा करते हुए मस्ती के साथ गुज़ारते हैं. अब हमारे यहां भी ऐसा ही होने लगा है. और यह बदलाव सुखद है. 

इतना सब कह देने के बाद कुछ बातें और कह देना ज़रूरी लग रहा है. अब तक मैंने जो लिखा है वह पूरे भारत के वृद्धजन का यथार्थ नहीं है. असल में भारतीय समाज बेपनाह विविधता भरा समाज है. यहां अगर ऐसे लोग हैं जो सुबह आधा पेट भर पाते हैं और शाम को कुछ मिलेगा या नहीं, इसकी अनिश्चितता में जीते हैं तो ऐसे भी हैं जिनके पास अकूत सम्पदा है. ऐसे में कोई भी सच पूरे भारतीय समाज का सच तो हो ही नहीं सकता. मैंने जो लिखा है वह ठीक-ठाक स्थितियों वाले मध्यमवर्गीय भारतीय समाज को ध्यान में रखकर लिखा है. इस समाज में भी सबकी स्थितियां तो एक जैसी नहीं हैं. अनेक ऐसे हैं जो अलग-अलग कारणों से सुखी-संतुष्ट जीवन नहीं जी पा रहे हैं. किसी को शारीरिक कष्ट है तो किसी को पारिवारिक-मानसिक संताप. किसी को आर्थिक असुविधाएं हैं तो किसी को मानसिक बनावट जन्य व्यथाएं. कुछ जैसे इसी ज़िद पर अडे रहते हैं कि उन्हें बाबा तुलसीदास के इस कथन को ग़लत साबित नहीं होने देना है -  'सकल पदारथ एहि जग माहीं कर्महीन नर पावत नाही' तो कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए वह लतीफा ही मूल मंत्र है जिसमें एक अधनंगा-सा बंदा किसी सूखे पेड़ पर टिक कर मूंगफली चबा रहा था और जब किसी ने उससे पूछा कि तुम क्या कर रहे हो, तो उसका जवाब था, ज़िंदगी में अपने तो दो ही शौक हैं -अच्छा खाना और अच्छा पहनना! 

इतना सब कुछ कह चुकने के बाद अब बस, यह कहना शेष रह गया है कि बाह्य स्थितियों के साथ-साथ हमारी आंतरिक मनोदशा भी यह तै करती है कि हम खुश हैं या नहीं! खुशी बाहर से ही नहीं आती है, उसे अपने भीतर से भी बाहर आने देना होता है.  

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अविस्मरणीय श्रीमती विनोद गर्ग

 हमारा जीवन भी कितना विचित्रता भरा और विलक्षण है. आए दिन हम अनेक लोगों से मिलते-जुलते हैं और उनमें से अधिकांश को तुरंत ही बिसरा भी देते हैं. यह स्वाभाविक भी है. आखिर हमरी स्मृति की भी तो कोई सीमा होगी होगी. कितनों को हम याद रखेंगे? जिनसे हमारा अधिक मिलना-जुलना होता है वे, बल्कि कहें उनमें से अधिकांश हमारी स्मृति में अटके रह जाते हैं. आप कहेंगे, यह तो स्वाभाविक बात है. इसमें विलक्षणता क्या है? मैंभी इसे स्वाभाविक ही मान रहा हूं. लेकिन मेरी बात इससे आगे से शुरू होती है. विलक्षणता यह है कि जीवन में कुछ लोग ऐसे भी आते हैं जिनसे हमारी मुलाकातें तो बहुत कम होती हैं लेकिन वे हमारी स्मृति का अटूट हिस्सा बन जाते हैं!  भले ही उनसे मिलने-जुलने, बोलने-बतियाने के ज़्यादा अवसर हमारे जीवन में न आए हों, जब हम अपनी यादों की किताब के पन्ने पलटते हैं तो वे वहां मौज़ूद मिलते हैं. 


ऐसे ही एक विलक्षण व्यक्तित्व को आज मैं याद कर रहा हूं. और याद बहुत दुख के साथ कर रहा हूं. दुख इस बत का कि अब वे सदेह इस धरा पर मौज़ूद नहीं हैं. क्रूर काल ने उन्हें हमसे छीन लिया. लेकिन उनकी स्मृति अभी हमारे साथ है, और सदा हमारे साथ रहेगी. मैं बात कर रहा हूं जानी-मानी शिक्षाविद और शैक्षिक प्रशासक स्वर्गीया श्रीमती विनोद गर्ग की. क्योंकि वे और मैं - हम दोनों ही राजस्थान के कॉलेज शिक्षा विभाग में रहे, और लगभग समकालीन रहे, यह स्वाभाविक ही था कि हम एक दूसरे के नाम से परिचित थे. प्रत्यक्ष उनके सम्पर्क में आने का अवसर मुझे उदयपुर में एक प्रशासनिक प्रशिक्षण के दौरान मिला. वहां ओटीएस में राजकीय सेवा नियमों आदि के बारे में कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम था, जिसमें भाग लेने के लिए मैं और श्रीमती विनोद गर्ग उदयपुर में थे. तब हालांकि हमारा परिचय औपचारिकताओं से आगे नहीं बढ़ा लेकिन उनके सौम्य व्यक्तित्व और सकारात्मक सोच ने मुझे बहुत प्रभावित किया. इसके बाद बरसों हम लोग नहीं मिले. कभी कोई ऐसा अवसर आया ही नहीं. लेकिन इसे मैं उनके व्यक्तित्व का जादू ही कहूंगा कि वे मेरी स्मृति से ओझल नहीं हुईं. 

इसके बाद एक संयोग यह बना कि मुझे जयपुर में कॉलेज शिक्षा निदेशालय (अब आयुक्तालय) में संयुक्त निदेशक के पद पर कार्य करने का अवसर  मिला. तब मेरे एक साथी संयुक्त निदेशक डॉ जेके गर्ग भी थे. अपने उसी कार्यकाल में मुझे पता चला कि श्रीमती विनोद गर्ग डॉ जेके गर्ग की सहधर्मिणी हैं. अपने उस कार्यकाल के दौरान  एकाधिक बार मुझे श्रीमती गर्ग से मिलने के अवसर मिले और हर मुलाकात के बाद  उनके प्रति मेरा आदर भाव और अधिक सघन हुआ. 


जेके गर्ग साहब और मेरे सेवा निवृत्त हो जाने के बाद एक और अवसर आया श्रीमती गर्ग से मुलाकात का. गर्ग परिवार ने  ने अजमेर में गर्ग दम्पती के विवाह की स्वर्ण जयंती पर एक शानदार आयोजन किया. मेरे पूर्व सहकर्मी जेके गर्ग साहब का पुरज़ोर आग्रह था कि कि मैं इस आयोजन में उपस्थित रहूं. उस समय एक बार फिर श्रीमती गर्ग के स्नेहिल व्यक्तित्व से अभिभूत होने का सौभाग्य मुझे मिला. बाद में गर्ग दम्पती अजमेर से जयपुर ही आकर बस गए और इस बात की बहुत सम्भावनाएं थीं कि हमारा अधिक मिलना-जुलना होता. लेकिन कोविड ने इन सम्भावनाओं को यथार्थ में परिणत नहीं होने दिया. 

 

आज जब श्रीमती गर्ग अनंत की यात्रा पर प्रस्थान कर चुकी हैं, मुझे इस बात का अफ़सोस हो रहा है कि मैं उनके वात्सल्यपूर्ण और स्नेह भरे सान्निध्य का अधिक लाभ नहीं ले सका. लेकिन वे अपनी प्रखर बौद्धिकता, अपने सौम्य शालीन व्यक्तित्व, अपने प्रशासनिक कौशल और ऐसे ही अन्य अनेक गुणों के कारण सदैव मेरी स्मृति में रहेंगी. 


उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि! 


यहां से पीछे की तरफ देखना.....

 जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं तो एक भारतीय औसतन जितनी ज़िंदगी जीता है उससे काफी ज़्यादा जी चुका  हूं. कितना रोचक और रोमांचक है 75 वीं सीढ़ी के पार पहुंचकर इस यात्रा के प्रारम्भ की कल्पना करना, उसके बारे में सोचना और अपनी स्मृति को खींच-खांचकर जहां तक वह पहुंच सकती  हो वहां तक ले जाना!  मुझे हरिवंश राय बच्चन का एक गीत बहुत पसंद है – “जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं....” गीत पसंद क्यों है, नहीं बता सकता. मेरा अपना जीवन तो कोई ख़ास आपाधापी वाला नहीं रहा कि यह सोचने का वक़्त ही नहीं मिला हो कि “जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला! जब मेरे जैसी ज़िंदगी जीने वाले लोग अपने संघर्षों की बात करके सहानुभूति बटोरने का उपक्रम करते हैं  तो मुझे आश्चर्य भी होता है, हंसी भी आती है. सच तो यह है कि हम लोगों ने, मुझ जैसे लोगों ने कोई संघर्ष किया ही नहीं. जो कुछ हमारी ज़िंदगी में रहा, उसे संघर्ष कहना संघर्षका अपमान करना होगा. बेशक हम लोग मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुए, बेशक हमारी ज़िंदगी में इफ़रात नहीं थी लेकिन ऐसा भी नहीं था कि हमें पत्थर तोड़ने पड़े हों या दो-चार दिन भूखे रहना पड़ा हो. 

वैसे मुझे अपनी ही बात करनी चाहिए, अपने जैसों की नहीं. किन्हीं दो लोगों की ज़िंदगी यकसां नहीं होती है. इसलिए मुझे कोई हक़ नहीं कि मैं औरों की ज़िंदगी के बारे में यह कहूं कि उसमें संघर्ष था या नहीं था. मैं केवल और केवल अपनी बात कर रहा हूं. आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि ज़्यादा से ज़्यादा कितना पीछे देख सकता हूं तो ख़ुद मुझे बहुत आश्चर्य होता है. इसलिए आश्चर्य होता है कि मेरे पास अपने बचपन की कोई स्मृति है ही नहीं. पीछे मुड़ कर देखने की कोशिश करता हूं तो कुछ भी नज़र नहीं आता है. क्या सभी के साथ ऐसा होता है? आप भी सोच कर देखें कि उम्र के छह सात दशक जी लेने के बाद आप कितना पीछे तक देख सकते हैं! जब मैं अपने अतीत को विश्लेषित करके इस बात के लिए कोई तर्क जुटाने का प्रयास करता हूं तो मुझे एक ही बात समझ में आती  है और वह यह कि मेरे बचपन की कोई स्मृति ऐसी नहीं है जो बहुत सुखद हो, या जो बहुत कड़वी और त्रासद हो. इसलिए मुझे कुछ भी याद नहीं है. 

मेरे पिता उस पीढ़ी और सोच के इंसान थे जिनका अपने बच्चों से कोई संवाद नहीं होता था. वे मात्र पिता होते थे, जिनसे डरा जा सकता है. मैं भी डरता था. पिता से ही नहीं, मां से भी. घर में और तो कोई था ही नहीं. माता और पिता की उम्र में बहुत अंतर, और मैं उनकी आखिरी संतान. वैसे भी वो ज़माना बच्चों और मां-बाप के बीच दोस्ती और संवाद  का नहीं था. पिता बीमार रहने लगे थे. शायद  दमा था उन्हें. घर की अर्थ व्यवस्था डगमगाने लगी थी. तब तक विशेषज्ञ डॉक्टरों की सेवा लेने का चलन शुरु नहीं हुआ था, या शायद हम उस वर्ग के नहीं थे जो ये सेवाएं लिया करते हैं. मुझे इतना ही याद है कि मेरे पिताजी का इलाज़ या तो हमारे उसी मोहल्ले के माजी की बावड़ी के सामने स्थित  गणपत लाल जी कम्पाउण्डर के दवाखाने से होता था या फिर थोड़ा आगे घण्टाघर के पास स्थित डॉ करतार सिंह के शफाखाने से. करतार सिंह सम्भवत: आरएमपी (RMP) थे. मुझे प्राय: इनके यहां दवा लेने भेजा जाता था. कभी कभार ज़रूरत पड़ने पर इनमें से किसी को घर भी बुलाया जाता था और तब मेरी ड्यूटी होती थी डॉक्टर साहबके बैग को उठाकर लाने की. डॉक्टर साहब का बैग करीब-करीब वैसा होता था जैसा बाद में वैनिटी बॉक्स होने लगा. अब तो वह भी फैशन से बाहर हो चुका है. 

पिता जी के  मन में मुझे लेकर खूब सारे सपने थे. यह कि जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तब हमारी दुकान का भी खूब विस्तार हो जाएगा और मैं उसे सम्हालूंगा. मज़े की बात यह कि उन सपनों में, जो मेरे आठ-दस बरस का होने तक देखे जाते थे, मेरी पत्नी भी होती थी, जो उस दुकान की व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहती थी. इसके बाद तो पिताजी की बीमारी बढ़ती गई और सपने देखने की स्थितियां नहीं रहीं.  मुझे यह बात याद है कि हमारी दुकान पर ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड्स भी बेची जाती थी. वह 78 आरपीएम रिकॉर्ड्स का ज़माना था. ईपी, एलपी वगैरह तब तक चलन में नहीं आई थी. कैसेट्स का ज़माना तो तब सोच से भी बाहर था.  और मेरे माता-पिता बड़े गर्व से इस बात का ज़िक्र आने जाने वालों के सामने किया करते थे कि उनका बेटा, अर्थात मैं इतना प्रबुद्ध है कि  वह बिना पढ़ना आए भी महज़ लेबल देखकर मनचाही रिकॉर्ड खोज कर ला सकता है. पिताजी मुझे कभी-कभार रेल्वे स्टेशन पार्सल लेने भी भेजा करते थे. रेल्वे स्टेशन हमारे घर से कोई चारेक किलोमीटर दूर था और मैं किराये की साइकिल लेकर वहां जाता था. तब तक उदयपुर सिटी  रेल्वे स्टेशन नहीं बना था और उदयपुर में केवल एक रेल्वे स्टेशन था जिसे अब राणा प्रताप नगर नाम से जाना जाता है. 

बचपन में खेलने की,  कोई शरारत करने की, माता या पिता का लाड़ पाने की कोई स्मृति मेरे पास नहीं है. जहां तक मां-बाप द्वारा लाड़ किये जाने का सवाल है, लाड़ तो वे करते ही होंगे. कोई कारण नहीं है कि उन्हें मुझ पर ममत्व न हो, लेकिन जैसा मैंने कहा, वो ज़माना स्नेह के प्रदर्शन करने का नहीं था, और वे दोनों ही कठोर किस्म के व्यक्तित्व थे. इसलिए मुझे उन दोनों की कोमलता की कोई स्मृति नहीं है. पिता की जो अल्प स्मृतियां अब भी मुझे हैं उनमें एक तो यह है कि वे मुझे अपने साथ फोटो खिंचवाने ले गए हैं. पहले जहां पंचायती नोहरा था और बाद में जहां ओसवाल मार्केट बन गया उस जगह एक फोटोग्राफ़र उनका परिचित था, उसके पास वे मुझे ले गए थे.  उस ज़माने में बड़े कैमरे हुआ करते थे, जिसके पीछे एक बुरकानुमा लबादे में घुस कर फोटोग्राफ़र फोटो खींचता था. जिसका फोटो खींचा जा रहा है उसे और विशेष रूप से बच्चों को स्थिर रखने के लिए वो कहता था कि "देखो, अभी इस कैमरे में से चिड़िया निकलेगी".  तब का खिंचवाया हुआ फोटो अब भी मेरे  संग्रह में है. एक और स्मृति यह है कि वे मुझे बहुत महंगा कमीज़ का कपड़ा दिला कर लाये हैं. कपड़ा आज के क्रेप से मिलता-जुलता था. यह बात तो मुझे बहुत बार याद आती है कि जब भी मैं बीमार पड़ता मेरे पिता मुझसे पूछते कि मुझे क्या चाहिए, और मैं हर बार बिस्किट की  मांग करता. तब वे जेबी मंघाराम का असोर्टेड बिस्किट का डिब्बा मेरे लिए मंगवाते. 

यह याद नहीं पड़ता कि कभी भी पिता ने मुझे अपने पास बैठकर खाना खिलाया हो. एक थाली में खाना खिलाना तो बहुत दूर की बात है. तब हमारी रसोई तीसरी मंज़िल पर छत के एक सिरे पर थी. वहां मां लकड़ी वाले चूल्हे पर खाना बनाती थी और पिताजी वहीं रसोई में ज़मीन पर बैठकर खाना खाते थे. साथ खिलाने की बात मैंने इसलिए की कि बाद में जब मैं अपने अमरनाथ जी (बुआ के बेटे) भाई साहब के घर जाने लगा तो वे अनिवार्यत: मुझे अपने साथ बिठाकर एक ही थाली में खाना खिलाते. यह बात अलग है कि तब तक मैं अलग थाली लेकर खाना खाने का इतना अभ्यस्त हो चुका था कि उनका यह लाड़ मुझे अखरता था. लेकिन मैंने इस बात को कभी जताया नहीं. आज पहली बार यह बात अभिव्यक्त हो रही है. पिताजी के मन में शालीन वेशभूषा की अलग परिकल्पना थी जो उनके समय के अनुरूप थी, लेकिन मैं उससे भिन्न अपने समय वाले कपड़े पहनना चाहता था. ऐसा करने में मेरी मां मेरा सहारा बनतीं. वैसे तब तक हालत यह हो गई थी कि कपड़े ख़रीदने के अवसर कम ही आते थे. 

पिताजी की जो स्मृति मेरे जेह्न में अमिट है वह उनके आखिरी दिन की है. 15 दिसम्बर 1959 का दिन था वह. मेरी उम्र 14 बरस. लेकिन या तो उस ज़माने के बच्चे आज की तुलना में कम समझदार होते थे या औरों की तुलना में मैं कम समझदार था. इसलिए बहुत ज़्यादा जानकारियां मुझे नहीं है. सुबह से पिताजी की तबीयत कुछ ज़्यादा खराब थी. खराब तो लम्बे समय से थी ही. शायद मां को यह एहसास हो गया था कि अब दिया बुझने को है. पिताजी कमरे में लेटे हुए हैं, मां उनके पास है. वे एक सिगरेट मांगते हैं और मां मुझे नीचे हमारे घर के सामने गणेश लाल जिसे मुहल्ले की नाम बिगाड़ने की परम्परा के तहत गुण्या कहा जाता था,  की दुकान से सिगरेट लेने भेजती हैं. अपने पिता की सिगरेट पीते हुए कोई छवि मेरे मन पर अंकित नहीं है. सम्भव है कि वे नियमित स्मोकर न हो कर कभी कभार स्मोक कर लेते हों. लेकिन मेरे सामने उन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया. यह पहला और अंतिम मौका था. और रोचक बात यह कि उनके लिए सिगरेट  लेने जाने की बात तो मुझे याद है लेकिन यह बात स्मृति में नहीं है कि मैंने सिगरेट लाकर किसको दी? मां को या पिताजी को? फिर उन्होंने पी या नहीं. 

इसके बाद स्मृति एक छोटी-सी छलांग लगाती है. पिता आखिरी सांस ले चुके हैं. सुबह दस बजे के आस-पास का समय है. मां गज़ब का धैर्य दिखाती हैं. मुझे वे कहती हैं कि अभी रोना मत, वरना मोहल्ले वालों को पता लग जाएगा. और इसके बाद वे जिस धैर्य और हिम्मत से सब कुछ व्यवस्थित करने में जुटती है उसे याद कर आश्चर्य होता है. अनुमान  लगाता हूं कि तब मेरे पिता की उम्र 75 के आस पास और मां की उम्र चालीस के आस-पास रही होगी. सब कुछ ठीक कर वे मेरे भाई साहब अमरनाथ जी को ख़बर भिजवाती हैं, और वे तुरंत आकर सारी व्यवस्थाएं करने में जुट जाते हैं. अमरनाथ जी से मेरे माता-पिता के रिश्ते बहुत अजीब रहे. मेरे पिता ही उन्हें हिसार से उदयपुर लाए, उन्हें अपने पास रखा, घड़ीसाज़ी का काम सिखाया, उनकी शादी की. और उसके बाद जाने क्या हुआ कि बोलचाल का रिश्ता भी नहीं रहा. न कभी मेरे पिता ने और न ही कभी मां ने खुलकर इस पर प्रकाश डाला. मैंने पिता के निधन तक उनके और हमारे परिवार में कोई सम्वाद नहीं देखा. पिता के जाने के बाद भी मां के रिश्ते उनके साथ ऊबड़- खाबड़ ही रहे. और यह तब जबकि मेरी मां के मन में भाई साहब के प्रति और भाई साहब के मन में अपनी मामीजी अर्थात  मेरी मां के प्रति अगाध प्रेम था. इसे रिश्तों की द्वंद्वात्मकता कहा जा सकता है. यह बात बहुत मार्मिक है कि रिश्तों में पड़ी दरार के बावज़ूद भाई साहब ने मेरे पिता और बाद में मां के अंतिम संस्कार व सम्बद्ध  रस्मों के निर्वहन में सर्वाधिक सक्रिय भूमिका अदा की.  पिता और मां के न रहने के बाद मेरे तो उनसे और भाभी से रिश्ते बहुत ही जीवंत और सघन रहे. आज जब वे और भाभी दोनों इस दुनिया में नहीं हैं तब भी उनकी अगली पीढ़ी से हमारे रिश्ते बहुत ही मज़बूत हैं. 

भाई साहब के निर्देशानुसार मैंने पिताजी के अंतिम  संस्कार की सारी रस्में पूरी कीं. बाद में उनकी अस्थियां लेकर हरिद्वार भी गया. ठीक से याद नहीं लेकिन शायद मेरी मां भी साथ गईं. यह पिताजी के निधन के कुछ समय बाद की बात है. मेरे पिता के निधन पर शोक व्यक्त करने ग़ाज़ियाबाद से मेरी मौसी और उनके साथ नानी भी आईं. इन दोनों को भी मैंने पहली दफा देखा. मेरे पिता और माता के स्वभाव में जो उग्रता, आक्रामकता और अक्खड़पन था उसी का यह परिणाम था कि ज़िंदगी के शुरुआती चौदह बरसों में मैंने अपनी मौसी और नानी को देखा ही नहीं.  मेरे नानाजी काफी पहले दिवंगत हो चुके थे. मां के परिवार में बस ये ही दो सदस्य थे. लेकिन इसके बावज़ूद इनमें कोई रिश्ता इतने बरस तक नहीं था. मौसी जी का वैवाहिक जीवन उतार-चढ़ावों भरा रहा. जब पिता का निधन हुआ तब वे ग़ाज़ियाबाद में अपने रुग्ण पति और उनकी तीन संतानों के साथ रहती थीं. ‘उनकी संतानें’ इसलिए कि मौसी जी इनकी दूसरी पत्नी थीं. कुछ समय बाद इन मौसाजी का भी निधन हो गया और संक्षेप में मात्र इतना कि जो सम्पत्ति मौसा जी मौसी जी के नाम कर गए थे उसे हथियाने के बाद उनके तीनों बच्चों ने मौसीजी को घर से निकाल दिया. तब उन्हें शरण मिली मेरी मां के पास. फिर मौसी जी मेरी मां की मृत्यु के बाद भी, अपने अंतिम समय तक हमारे साथ रहीं.  

जिस ज़माने में मेरे पिता का निधन हुआ उस ज़माने में उदयपुर में और विशेष रूप से हमारे समाज और मोहल्ले में यह प्रथा थी कि जिस स्त्री के पति का निधन हो जाए उसे पूरे एक साल तक एक ही कमरे में कोने में बैठे रहना होता था. स्थानीय बोली में इसे खूणे बैठना  कहा जाता था.  स्वाभाविक है कि मेरी मां को भी इस  रीत का पालन करना पड़ा. लेकिन आज उनके साहस को याद कर नतशिर होता हूं कि उस पारंपरिक, बल्कि कहें कि घोर रूढ़िवादी परिवेश में भी उन्होंने इस रीत को बहुत जल्दी अंगूठा दिखा दिया. यह उनका साहस तो था ही, मज़बूरी भी थी. अगर वे बारह महीने इस तरह कोने में बैठी रहतीं तो ज़िंदगी की गाड़ी कैसे चलती? कोई भी तो सम्बल नहीं था हमारे पास. मात्र दो-तीन माह खूणे बैठने के बाद मेरी मां दुकान सम्हालने लगीं. हम लोग तब जिस किराये के घर में रहते थे उसमें नीचे हमारी दुकान थी और ऊपर आवास. दुकान की बगल में  सीढ़ियां थीं. उन्हीं सीढ़ियों से बिना धरातल पर गए भी दुकान में जाया जा सकता था. मेरी मां वहीं सीढ़ियों पर बैठकर मुझे निर्देशित करतीं और मेरा ध्यान भी रखतीं. वैसे उस दुकान में ज़्यादा कोई व्यावसायिक सम्भावनाएं नहीं थीं. माल हो तो ग्राहक आएं. माल मंगवाने के पैसे नहीं. फिर भी मां उस दुकान को चलाती रहीं. एक तो इस आस में कि जो थोड़ा बहुत माल बिकेगा उससे कुछ पैसे आएंगे,  और दूसरे,  इससे बड़ी बात यह कि दुकान रहेगी तो उनके पति का नाम भी रहेगा. 

अपने पति के नाम वाली दुकान को लेकर उनका मोह और अभिमान बहुत गहरा था. और इसे एक विडम्बना ही कहूंगा कि मैं उनके इस भाव की रक्षा नहीं कर सका. कोई योजना नहीं थी, लेकिन नियति मुझे व्यापार की दुनिया से निकाल कर नौकरी की दुनिया में ले गई और इसकी परिणति अंतत: उस दुकान के बंद होने में हुई. शायद इस बात ने मेरी मां को बहुत आहत किया होगा.  उन्होंने कभी खुलकर कहा नहीं लेकिन अब मैं उनकी मन:स्थिति का अनुमान लगा  सकता हूं. उनके आहत मन की ही शायद यह परिणति भी हुई कि बावज़ूद इसके कि मैं उनकी इकलौती संतान था, वे मेरे प्रति कभी भी बहुत ममतालु नहीं रहीं. लड़ना झगड़ना मेरे स्वभाव में नहीं है, लेकिन उन्होंने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी. रूठतीं, गुस्सा करतीं, भला-बुरा कहतीं, ज़माने भर से बुराई करतीं. लेकिन थी तो मां ही. उन्होंने और फिर उनके साथ और बाद में हमारी मौसी ने हमारी ज़िंदगी को जितना कष्टप्रद बनाया, उसे याद कर मन आज भी बहुत दुखी होता है. मेरी मां बहुत ज़िद्दी, निर्मम और जटिल व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं. वे स्वयं भी खुद को कट्टर कहती थीं और अपनी मां, अपनी बहन के साथ रिश्तों में उन्होंने इस बात को साबित भी किया था. लेकिन बाद में यही कट्टरता उन्होंने मेरे और पत्नी के साथ भी बरती. मुझे एक भी याद ऐसी नहीं है जिसमें हमारे प्रति उनका उन्मुक्त प्रेम प्रकट होता हो. अलबत्ता हमारे दोनों बच्चों के साथ उनका बहुत गहरा लगाव रहा. 

अब बहुत आगे जाकर जब पीछे मुड़कर देखता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि मेरे से उनके प्रति व्यवहार में कहां कोई चूक हुई, तो मुझे कुछ भी नहीं मिलता है. अपनी तरफ से मैंने उन्हें सम्मान देने और उनके प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करने में कोई कृपणता नहीं की. लेकिन वे असंतुष्ट ही रहीं. बाद के वर्षों में उनकी चिंता का केंद्र अपनी बहन अर्थात मेरी मौसी हो गईं और हालांकि मैं उन्हें बहुत बार यह विश्वास दिलाता रहा कि उनके जाने के बाद भी मौसी हमारे साथ हमारे परिवार के सदस्य की हैसियत से ही रहेगी, वे कभी आश्वस्त नहीं हुईं. मौसी के भविष्य को लेकर मेरे, बल्कि हमारे प्रति जाने क्यों एक गहरा अविश्वास का भाव उनके मन में रहा, और उन्होंने इसे खुलकर अभिव्यक्त भी  किया.  मां, जितनी जटिल और निर्मम थीं, मौसी उनकी तुलना में बहुत सौम्य, स्नेहिल और सीधी थीं. लेकिन उनका भोलापन उनकी सबसे बड़ी सीमा था. किसी ने कुछ कह दिया, बल्कि नहीं भी कहा लेकिन उन्होंने जैसा समझ लिया वही उनके लिए अंतिम होता था. हमारी भरपूर सेवा के बावज़ूद वे भी कभी हमसे प्रसन्न नहीं रही. इन दोनों के व्यवहार को जितना मैंने सहा, उससे बहुत ज़्यादा मेरी पत्नी ने सहा. लेकिन अब यह सब अतीत है. भुला  देने काबिल अतीत. जो बीत गई सो बात गई!  

फिर थोड़ा पीछे लौटता हूं. मैं दुकान पर बैठने लगा, और साथ-साथ पढ़ाई भी ज़ारी रही. उस साल दसवीं की परीक्षा दी, पास हुआ. और ज़िंदगी की गाड़ी हिचकोले खाती चलती रही. इसी बीच भाई साहब की सलाह पर मेरी मां ने अपनी तमाम जमा पूंजी और गहने वगैरह बेचकर तथा  कुछ कर्ज़ा लेकर उस किराये के मकान को खरीद लिया. तब वो मकान ग्यारह हज़ार रुपये में खरीदा गया. असल में उसे खरीदने की बात तो मेरे पिताजी ने पक्की कर ली थी लेकिन  किस्मत को शायद यह मंज़ूर नहीं था कि अपने जीते जी वे अपना मकान देख सकते. भाई साहब का सोच यह था कि सर पर अपनी छत हो तो जीवन सुरक्षित रहता है. इन मामलों में वे बहुत व्यावहारिक थे, मेरे पिता बिल्कुल भी नहीं थे. बाद में भाई साहब ने तो कम और भाभी ने कई बार यह ताने भी दिये कि मेरे पिता ने खूब कमाया और खूब उड़ाया. यह बात वे एक स्थानीय अभद्र  कहावत के माध्यम से कहतीं.  वैसे अपनी प्रारम्भिक ज़िंदगी में मैंने ताने बहुत सुने हैं. जब आपके पास कुछ नहीं हो तो लोग और कुछ दें न दें, ताने देने में कोई कंजूसी नहीं करते हैं - यह बात  मुझे उस छोटी उम्र में ही पता चल गई थी. 

उस ज़माने में हमारा घर कैसे चलता होगा, हम क्या खाते-पीते होंगे, इन सब बातों की सहज ही कल्पना की जा सकती है. जब आपके पास न तो जमा पूंजी हो और न आय का कोई साधन तो ज़िंदगी कैसी हो सकती है? वैसी ही थी हमारी ज़िंदगी. बेरंग, बेनूर, बेस्वाद. कोई राह नहीं. कोई रोशनी की किरण नहीं और फिर भी चले जा रहे थे. जाने कहां? शायद  मां सोचती होंगी कि बेटा थोड़ा बड़ा हो जाएगा, घड़ीसाज़ी सीख जाएगा तो दुकान फिर से चलने लगेगी. उसी क्रम में मैंने भाई साहब की दुकान पर जाकर घड़ीसाज़ी सीखना शुरु भी कर दिया था. जो काम भाई साहब ने मेरे पिताजी से सीखा था वही काम वे मुझे सिखा रहे थे. मैं कॉलेज भी जाता और वहां से जो समय बचता उसमें घड़ीसाज़ी सीखता. मां खुलकर दुकान पर बैठने लगीं. उस ज़माने के उदयपुर में यह कितने बड़े साहस और क्रांतिकारिता की बात थी, कल्पना की जा सकती है. मां में बात करने का और सुनने वाले पर अपना रौब ग़ालिब करने का कौशल था. भले ही पढ़ी-लिखी नहीं थीं, जीवन के अनुभव और सुन सुनकर अर्जित ज्ञान की उनके पास कोई कमी नहीं थी. 

मैं भी थोड़ी बहुत घड़ीसाज़ी करने लगा था, जिससे हमारा जीवन थोड़ा-सा, बहुत थोड़ा-सा सहज हो रहा था. लेकिन इसी घड़ीसाज़ी ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी. कैसे, यह जानने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा.  इस बात को आगे विस्तार से लिखूंगा. अभी केवल यह विडम्बना व्यक्त कर दूं कि मां ने मुझे घड़ीसाज़ी सीखने की दिशा में इसलिए अग्रसर किया था कि मैं उनके पति के नाम वाली दुकान को ज़िंदा रखूंगा, और कम्बख़्त इसी घड़ीसाज़ी ने मुझे जिस राह पर ले जाकर खड़ा कर दिया उस राह पर चलने की परिणति इस दुकान के बंद होने में हुई. क्या इसी को दवा का ज़हर हो जाना कहेंगे? 

मैंने अपनी बात की शुरुआत स्मृतियों के अभाव से की थी. बचपन की और किशोरावस्था की कोई स्मृति मेरे पास नहीं है. क्यों नहीं है, यह बात कुछ हद तक शायद स्पष्ट हुई हो. न हुई हो तो उसे स्पष्ट करने का कोई तरीका मुझे सूझ भी नहीं रहा. जैसे तैसे गर्दिश के ये दिन बीते, मेरे जीवन की गाड़ी ऊबड़ खाबड़ पथरीली सड़क से हटकर एक समतल सड़क पर आ गई. यह हुआ 1967 में मेरे नौकरी लगने से. घर में लिखने-पढ़ने की कोई परम्परा नहीं और मैं बन गया कॉलेज लेक्चरर. ज़िंदगी में अजूबे भी तो घटते हैं. यह भी एक अजूबा  था. इसलिए भी था कि मेरी मां की योजना में मेरा नौकरी करना तो कहीं था ही नहीं. और मेरी अपनी योजना? वह कहावत तो सुनी है न - बेगर्स काण्ट बी चूजर्स! फिर बच्चन जी के उसी गीत को याद करूं. वे लिखते हैं, "फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा/ मैंने भी बहना शुरु किया उस रेले में." अब लगता है कि हिंदी में एमए करना, लेक्चरर  के पद के लिए आवेदन करना, नौकरी मिलने पर नौकरी जॉइन कर लेना - ये सब धक्के में ही तो हुआ. सोचा-समझा तो कुछ भी नहीं. 

जब नौकरी लगी तो दो वक़्त की रोटी की फिक्र मिटी. उस समय मेरी तनख़्वाह थी कुल तीन सौ पिच्चानवे रुपये. दो सौ पिच्चासी रुपये मूल वेतन और उस पर एक सौ दस रुपये महंगाई भत्ता. जैसे ही हर माह इतने रुपये मिलने की आश्वस्ति हुई, लगा कि आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं  पे हम. उस वक़्त इतनी बड़ी धन राशि हर माह मिलने का जो सुख था आज उसे बयान नहीं कर सकता. हालांकि यह तनख़्वाह भी निर्बाध रूप से कहां मिलती थी. उस ज़माने में महालेखाकार कार्यालय से पे स्लिप आती थी, फिर हम बिल बनाते थे जिसे कोष कार्यालय पास करता था. इस तरह तीन-चार महीने में एक बार तनख़्वाह मिल पाती थी. लेकिन आश्वस्ति तो थी. मेरी पहली नौकरी भीनमाल नामक एक छोटे-से कस्बे में लगी, मैं पहली बार घर से बाहर निकला. तब सब कुछ कैसे किया होगा, यह सोचकर आश्चर्य होता है. जब तनख़्वाह  मिली तो अपने खर्च भर का पैसा रखकर शेष सब मां को दे दिया. आखिर हमें इस बीच समय-समय पर लिया गया कर्ज़ भी तो चुकाना था. 

यह एक यथार्थ है कि नौकरी लग जाने के बाद, बहुत लम्बे समय तक मैं आर्थिक रूप से ऐसी स्थिति में नहीं आ सका जिसे सुखद कहा जा सकता हो. बीस तारीख  के बाद पहली तारीख का इंतज़ार शुरु हो जाता. करीब-करीब पूरे नौकरी काल में यही हाल रहा. नौकरी के शुरुआती बरसों में हर माह मां-मौसी के लिए एक निर्धारित राशि भेजता. पहले मनीऑर्डर से और बाद में बीमाकृत लिफाफे में करेंसी नोट रखकर. यह करना वैध नहीं था इसलिए डाक खाने का बाबू हर बार उस बीमाकृत लिफाफे पर एक इबारत लिखवाता - "इस लिफाफे में मूल्यवान दस्तावेज़ हैं."  इस सबके बीच मेरा विवाह हुआ. उसका खर्चा भी इसी छोटी-सी तनख़्वाह से समायोजित हुआ. मेरी ज़िद थी कि मेरे ससुराल से कोई दहेज़ नहीं मांगा जाएगा,  जबकि मेरी मां और मौसी के सपने भिन्न थे. उन्होंने अपने छल छद्म का कौशल भी दिखाया, जिसे लेकर जब मुझे इसकी जानकारी मिली तो उनके और मेरे बीच बदमज़गी भी हुई. वैसे भी मेरे ससुर जी के आर्थिक स्रोत्र बहुत सीमित थे और परिवार बड़ा.  लेकिन आज मैं इस बात पर अपनी पीठ थपथपा सकता हूं कि अपनी विपन्नता के बावज़ूद मैंने खुद को उन पर बोझ नहीं बनने दिया. विवाह के अलावा, मां की मांग पर उदयपुर के घर में यथावश्यकता छोटी-मोटी रिपेयरिंग भी करवाता रहा. एक बार इस काम के  लिए सरकार से कर्ज़ा भी लिया. 

यह तो ठीक है कि मेरे दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में और बाद में सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़े इसलिए उनकी पढ़ाई का कोई बड़ा  बोझ मुझे नहीं उठाना पड़ा, लेकिन खर्चे तो होते ही थे. जब आजकल के बच्चों के पढ़ाई वगैरह के खर्चे देखता हूं तो बार-बार यह विचार आता है कि अगर ऐसा ही मेरे ज़माने में होता तो मैं अपने बच्चों को पढ़ा ही नहीं सकता था. और बच्चे तो बाद की बात हैं, मैं ख़ुद भी नहीं पढ़ सकता था. आज जब एक ख़ास राजनीतिक विचारधारा वाले लोग सरकार द्वारा दी जाने वाली तथाकथित मुफ्त सुविधाओं की आलोचना करते हैं तो यह बात मुझे और भी ज़्यादा याद आती है. लेकिन वे इस बात  को नहीं समझ सकते. उन्हें तो अपने दल के हित में सरकार का विरोध करना है. जब बच्चे, एक के बाद दूसरा इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिल हुए तो उनके रहने खाने का खर्च भी मेरी तनख़्वाह के अनुपात में ठीक-ठाक ही होता था. मेरे पास कभी इतने पैसे नहीं हुए कि बच्चों के पास एकाध महीने की अतिरिक्त राशि जमा रहे. हर माह मैं उन्हें पैसे भेजता और वे मेरे पैसों का इंतज़ार करते. इसके बावज़ूद  हमारे दोनों बच्चों ने कभी भी हमें अपनी आवश्यकताओं के लिए दबाव में नहीं आने दिया. कभी कोई मांग उन्होंने नहीं की और मेरी आर्थिक हैसियत के अनुरूप बहुत सादगी से अपनी पढ़ाई पूरी कर ली. सच तो यह है कि आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो इस बात का अफसोस ही होता है मैं अपने बच्चों को बहुत खुशनुमा ज़िंदगी नहीं दे सका. लेकिन इसके बावज़ूद आज दोनों ही बच्चे जहां हैं और जिस हैसियत में है उससे किसी को भी, ज़ोर देकर कह रहा हूं, किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है. इतना ज़रूर कहूंगा कि आज जहां वे हैं वह सब उनकी अपनी मेहनत का फल है. उसका श्रेय मुझे नहीं मिलना चाहिए.  और इतना ही नहीं उनके मन में कहीं दूर-दूर तक यह मलाल भी नहीं है कि हमने बचपन में उनकी इच्छाओं को बड़ा आकाश नहीं दिया. उलटे वे इस बात के लिए लालायित रहते हैं कि कैसे जीवन का सर्वश्रेष्ठ हमें उपलब्ध करा दें! 

जब अपने जीवन की इस स्मृति विहीनता की बात कर रहा हूं और उन स्थितियों का विश्लेषण कर रहा हूं जिनमें मेरे जीवन ने आकार लिया तो अनायास ही इस बात पर आश्चर्य भी हो रहा है कि कैसे बिना किसी योजना के मेरे जीवन की राह बदल गई, और कैसे मुझे जीवन में वह सब मिलता गया जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. भले ही मेरी मां ने मुझे इस बात के लिए माफ़ नहीं किया कि मैंने उनके पति का नाम विलुप्त कर दिया, आज मैं गर्व कर सकता हूं कि मैंने जीवन में जो कुछ हासिल किया वह भी मेरे पिता के  नाम से अधिक न भी हो तो उससे कम भी नहीं है. जब बहुत सारे लोगों के जीवन संघर्ष के बारे में पढ़ता हूं तो इस बात पर ध्यान जाए बग़ैर नहीं रहता है कि मेरे जैसी पृष्ठभूमि   वाले किसी युवा का कॉलेज शिक्षक बन जाना भी मामूली बात नहीं है. हिंदी के बहुत सारे बड़े लेखकों को तो आज तक यह अफसोस है कि वे कॉलेज प्राध्यापक नहीं बन सके. मैं न केवल प्राध्यापक बना, साढ़े तीन दशक पढ़ाता रहा. अध्यापक भी मैं ठीक ही रहा. अगर संकोच छोड़ कर कहूं तो बहुत अच्छा रहा. समय-समय पर, बल्कि समय से पहले,  योग्यता की वजह से आउट ऑफ टर्न,  मेरी पदोन्नति भी हुई और अपनी नौकरी में वहां तक पहुंचा जहां पहुंचने का बहुत लोग सपना भी नहीं देखते हैं. नौकरी के साथ-साथ साहित्य की दुनिया में भी अपने लिए थोड़ी-सी जगह बनाई, यह अतिरिक्त उपलब्धि है. 

पारिवारिक रूप से भी मेरी यात्रा बहुत अच्छी रही. कहां तो मेरे मां-बाप जो रिश्ते थे उनका भी निर्वाह नहीं कर सके, और कहां उन्हीं की वंश बेल को आगे बढ़ाता मैं दोनों तरफ के भरे-पूरे परिवारों से बहुत अच्छी तरह जुड़ा हुआ हूं. गर्व से कह सकता हूं कि मेरे और पत्नी के परिवारों में बिना किसी अपवाद के सभी से हमारे रिश्ते बहुत आत्मीयता और सद्भाव के हैं. निश्चय ही इसमें मुझसे अधिक योगदान मेरी पत्नी का है. अगर अवसर आया तो इस बात की चर्चा मैं आगे करने का प्रयास करूंगा कि किस तरह हम दोनों अपने पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता और ऊष्मा बनाए रख सके हैं. 

एक सामान्य मध्यमवर्गीय भारतीय के लिए बहुत बड़ा सपना होता है कि वह जीवन में एक बार हवाई जहाज में बैठे और विदेश यात्रा कर आए. मेरा भी सपना था. अपने वैवाहिक जीवन के शुरुआती बरसों में एक बार कोटा से जोधपुर की किफायती हवाई यात्रा करके मैं अपने भाग्य पर बरसों इतराता रहा था. कितना टिकिट था इस यात्रा का? पूरे पैंतीस रुपये! लेकिन जीवन के उत्तरार्द्ध में  बच्चों के कारण हमारी ज़िंदगी ने ऐसा मोड़ लिया  अब हमने गिनना बंद कर दिया है कि कितनी बार विदेश गये हैं और किन-किन देशों की यात्राएं की हैं. पहले बेटी दामाद ने अमरीका में अपना घर बनवाया, और फिर बेटा बहू ने ऑस्ट्रेलिया में खूब बड़ा घर खरीदा. बेटा-बहू ने अपने नए खरीदे घर का औपचारिक गृह प्रवेश हमारे वहां जाने तक स्थगित रखा और फिर जब हम वहां जा सके तब हमसे ही अपने नए खरीदे बहुत विशाल घर के गृह प्रवेश की सारी रस्में सम्पन्न करवाईं. यह हमारे लिए बहुत बड़े गर्व की बात थी. 

ज़िंदगी में और क्या चाहिए? हमने अपनी ज़िंदगी करीब-करीब पूरी जी ली है. आज हर तरह का सुख और संतोष हमें है. दोनों बच्चे, और उनके जीवन साथी हमारा खूब ध्यान रखते हैं. उनके बच्चे अपने दादा-दादी और नाना-नानी से खूब घुले मिले हैं. बस, एक ही फर्क़ आया है बीते कल और आज में. हमने भी अपनी क्षमता भर अपनी मां-मौसी की सेवा की. इस बात को हमारे बच्चों ने भी देखा है. लेकिन सब कुछ करके भी हम उन्हें संतुष्ट नहीं रख पाये. फर्क़ यह है कि आज हमारे बच्चे हमारे लिए जितना और जो करते हैं उससे हम अत्यधिक संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं.  और जब जीवन में इतना सब कुछ हासिल है तो फिर इस बात को भूल क्यों नहीं जाना चाहिए कि हमारी ज़िंदगी के शुरुआती बरस किस तरह बीते हैं! जैसे और बहुत सारी बातों की स्मृति हमें नहीं है, इन कष्टों की स्मृति भी क्यों हो

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'बनास जन' के अगस्त, 2023 अंक में प्रकाशित.


Wednesday, March 30, 2022

 

नए माध्यमों पर हमारी उपस्थिति 

सन 2005 में आई और बाद में बहुत चर्चा में रही अपनी किताब द वर्ल्ड इज़ फ्लैट: अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ द ट्वंटी फर्स्ट  सेंचुरी में थॉमस एल. फ्रीडमैन ने दुनिया की शक्ल बदलने वाले तीन नवाचारों की चर्चा की है: 1.पर्सनल कंप्यूटर , जिसने हमें डिजिटल कण्टेण्ट का सर्जक बनाया, 2. इण्टरनेट और वर्ल्ड वाइड वेब (www) जिसने हमें यह सुविधा दी कि हम अपनी विषय वस्तु को पूरी दुनिया में निशुल्क कहीं भी ले जा सकते हैंऔर 3. नब्बे के दशक में हुई सॉफ्टवेयर क्रांति जिसने सारे कम्प्यूटरों को एक-रूप किया. फ्रीडमैन की इस किताब के आने के बाद दुनिया में बदलाव की गति बहुत ज़्यादा तेज़ रही है, और इसी तेज़ गति के कारण अब कंप्यूटर  और इण्टरनेट हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुके हैं.  लम्बे समय तक यह माना जाता रहा कि कंप्यूटर  का  प्रयोग करने और उस पर काम करने के लिए अंग्रेज़ी आना ज़रूरी है, और एक हद तक यह बात सही भी थी. लेकिन अहिस्ता-आहिस्ता यह बाधा भी दूर हो गई और आज स्थिति यह है कि कंप्यूटर पर हिंदी में भी सब कुछ किया जा सकता है. इस स्थिति को लाने में विभिन्न कंप्यूटर  सॉफ्ट्वेयर कम्पनियों की बहुत बड़ी भूमिका तो है ही, यूनीकोड को भी कम श्रेय नहीं दिया जाना चाहिए. इनके कारण काम करना बहुत सुगम हो गया है.  यूनीकोड ने भाषा की दीवारें जैसे पूरी तरह ध्वस्त कर दी हैं.  बिना सम्बद्ध भाषा का फॉण्ट इन्स्टाल किये किसी भी कंप्यूटर पर (बशर्ते वह बहुत पुराना और धीमा न हो) किसी भी भाषा की सामग्री देखी-पढ़ी या लिखी-भेजी जा सकती है. निश्चय ही यह बात हिन्दी के लिए एक वरदान है. और हिन्दी जगत ने इसका लाभ भी भरपूर उठाया है.

 

हिंदी की दुनिया में बहुत लम्बे समय तक नई तकनीक को लेकर दुविधा का भाव रहा है. दुविधा पूरी तरह तो अब भी दूर नहीं हुई है, लेकिन निश्चय ही इसमें बहुत कमी आई है और नई तकनीक की स्वीकार्यता खूब बढ़ी है. न केवल युवा और युवतर लोग इस तकनीक को अपना चुके हैं वयोवृद्ध लोग भी अब इससे अपनी दूरी कम करने में जुटे हैं. बेशक नई तकनीक को लेकर अब अन्य अनेक प्रकार की शंकाएं-आशंकाएं सामने आ रही हैं और उन पर गम्भीर विमर्श भी ज़ारी है, लेकिन वह अलग मुद्दा है. मूल बात तो यहां यह है कि हमारे हिंदी समाज ने इस तकनीक को अब बहुत अच्छी तरह अपना बना लिया है. यह कहते हुए मुझे अनायास ही इस शताब्दी के पहले दशक  के वे दिन याद आते हैं जब मैंने जयपुर से अपनी एक मित्र अंजली सहाय के साथ मिलकर एक बेब पत्रिका - इंद्रधनुष इण्डिया शुरू की थी. मैं इस पत्रिका के लिए जब अपने लेखक मित्रों से रचनात्मक सहयोग मांगता  था तो उनमें से बहुत  ही कम मित्र उत्साहित होते थे. उस समय जिन लोगों ने मुझे सहयोग दिया वह सहयोग उनसे मेरे आत्मीय रिश्तों के कारण ही मिल सका था. अधिकांश साथी हस्तलिखित या टंकित रचनाएं देते और हम उन्हें फिर से टाइप करवा के अपनी पत्रिका में प्रकाशित करते. यह काम ख़ासा असुविधाजनक और श्रमसाध्य था, लेकिन हमने किया. जब मैं अपने किसी मित्र को यह सूचना देता कि इंद्रधनुष इण्डिया में उनकी रचना प्रकाशित हो गई है तो उनमें से करीब-करीब सभी का आग्रह यह होता कि मैं उनकी प्रकाशित रचना का प्रिण्ट आउट उन्हें भेजूं, और मैंने ऐसा किया भी. बहुत कम रचनाकार साथी थे जो खुद कंप्यूटर  खोलकर पत्रिका में अपनी रचना देखने के लिए प्रेरित या उत्साहित होते. हमने  कोई छह सात बरस इस पत्रिका को चलाया, और आज इस बात पर गर्व भी होता है कि हमारी यह पत्रिका राजस्थान से निकलने वाली पहली ई पत्रिका थी. बाद में कुछ व्यावहारिक दिक्कतों के कारण इसका प्रकाशन अवरुद्ध हुआ. जब वे दिक्कतें दूर हुईं तब तक हिंदी में इतनी ज़्यादा वेब पत्रिकाएं आ चुकी थीं कि एक और पत्रिका निकालना हमें ग़ैर ज़रूरी लगा. 

 

आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि राजस्थान में भी हिंदी साहित्य के संदर्भ में ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स का चलन खूब बढ़ा है और इस क्षेत्र में काफी काम हुआ है.  वृहत्तर हिंदी क्षेत्र में तो बहुत ज़्यादा काम हुआ ही है और हर रोज़ उसमें नई चीज़ें जुड़ रही हैं. मेरी इंद्रधनुष  इण्डिया के अलावा मुझे सबसे पहले नाम याद आता है हिंदी नेस्ट का. इसका संचालन मनीषा कुलश्रेष्ठ करती हैं. यह हिंदी के  शुरुआती ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स में से है, हालांकि तब मनीषा जी राजस्थान से बाहर रहती थीं. हिंदी नेस्ट ने इण्टरनेट पर हिंदी को विस्तार देने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की है. खुशी की बात यह है कि अब राजस्थान लौट आने के बाद मनीषा जी ने इस प्लेटफॉर्म को एक नया आकार और नई पहचान दी है. हिंदी नेस्ट के अलावा, आश्चर्य की बात है कि चित्तौड़गढ़ जैसी बहुत छोटी जगह से एक उत्साही युवा माणक सोनी ने बहुत लम्बे समय तक अपनी माटी नाम से एक  वेब पत्रिका निकाली और इसमें विविध प्रकार की सामग्री प्रकाशित की. बाद के दिनों में  जयपुर से कथाकार रमेश खत्री ने साहित्य दर्शन नाम से काफी समय तक वेब पत्रिका निकाली. इधर  हमारी बहुत सारी पत्रिकाएं विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रही हैं. इनमें से अग्रणी है राजस्थान मूल के युवा आलोचक पल्लव संपादित बनास जन, जिसके करीब-करीब सारे अंक नॉट नल  पर  उपलब्ध हैं. मुझे आश्चर्य और क्षोभ इस बात का है कि हमारे यहां की पत्रिकाओं के अधिकांश संपादक अपनी पत्रिकाओं को ऑनलाइन सुलभ कराने के मामले में उदासीन, बल्कि इसके लिए अनिच्छुक हैं.  मेरा तो मानना है कि अगर कोई पत्रिका आपने भौतिक रूप के साथ-साथ ऑनलाइन भी उपलब्ध होती है तो उसका प्रसार बढ़ता ही है. इस मामले में मैं मधुमती  की विशेष रूप से सराहना करना चाहता हूं जिसका हर अंक राजस्थान  साहित्य अकादमी की वेबसाइट पर उपलब्ध रहता है और दुनिया भर में कहीं से कोई भी उसे पढ़ सकता है. मैं यह सपना देखता हूं कि हमारे प्रांत से जितनी भी सहित्यिक पत्रिकाएं निकल रही हैं वे ऑनलाइन भी उपलब्ध  हों. 

 

यह लेख तैयार करने के सिलसिले में, बिना इस बात का विस्तृत उल्लेख किए जब फ़ेसबुक पर एक पोस्ट लगा कर यह जानने का प्रयास किया कि साहित्यिक दुनिया के हमारे कौन कौन साथी इण्टरनेट के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर सक्रिय हैं, तो मुझे इतने ज़्यादा उत्तर मिले कि मैं स्वयं चकित रह गया. मैं यह भी जानता हूं कि जितने साथियों के बारे में मुझे सूचना मिली उनसे बहुत अधिक इस आभासी दुनिया में सक्रिय हैं. लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि अधिकांश साथियों की सक्रियता फ़ेसबुक पर अपनी रचनाएं पोस्ट करने या बहुत हुआ तो औरों की रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रियाएं देने तक सीमित है. जब हम इससे आगे की स्थिति की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि इण्टरनेट के अन्य प्लेटफॉर्म्स पर हमारी सक्रियता बहुत ज़्यादा नहीं है. इनमें से बहुत थोड़े ही हैं जो अन्यत्र भी खूब सक्रिय हैं. और यह बात तब है जब हिंदी में इण्टरनेट के तीन बड़े पुरोधा राजस्थान से ही हैं. यशवंत व्यास और पवन झा उस समय से इण्टरनेट पर सक्रिय  हैं जब हममें से अधिकांश के लिए यह दुनिया अनजानी थी. इन्हीं के साथ एक और नाम लेना ज़रूरी है. वे हैं बालेंदु शर्मा दाधीच. इन्होंने हालांकि साहित्यिक काम बहुत कम किया है, कंप्यूटर  और इंटरनेट पर हिंदी को सक्षम करने में इनकी भूमिका बहुत बड़ी है और अब भी ये इसी काम में जी-जान से जुटे हैं. हाल के वर्षों में गिरिराज किराड़ू ने भी हिंदी साहित्य को विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर, विशेष रूप से स्टोरी टेल के माध्यम सेलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. इनके साथ-साथ पीयूष दइया के अवदान को भी स्मरण किया जाना ज़रूरी है जो समग्र हिंदी साहित्य  को  अपने प्लेटफॉर्म हिंदवी  पर लाने के काम में लगे हुए हैं. इधर राजस्थान मूल के प्रवासी साहित्य सेवी अनूप भार्गव एक बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना का संचालन कर रहे हैं. इस योजना का नाम है हिंदी से प्यार है’. अभी इस योजना के तहत साहित्यकार तिथिवारनाम  से एक परियोजना चल रही है जिसमें हर रोज़ उस दिन जिस साहित्यकार का जन्म दिन होता है उस पर एक सुविचारित आलेख पोस्ट किया जाता है. मेरे यह लेख लिखने तक इस योजना में लगभग एक सौ लेख पोस्ट किए  जा चुके हैं. अनूप भार्गव जी अब इसी योजना के तहत  दूसरा उपक्रम शुरू करने की तैयारी में हैं  जिसका शीर्षक है सौ कालजयी पुस्तकें. इस उपक्रम में हिंदी की सार्वकालिक एक सौ कालजयी कृतियों का चयन कर उनमें से हरेक  पर लगभग पंद्रह मिनिट की अवधि के वीडियो तैयार करके साझा किए जाएंगे. ख़ास बात यह है कि हिंदी से प्यार है की यह सारी योजना पूर्णत: अव्यावसायिक आधार पर संचालित की जा रही है और दुनिया भर  में फैले हिंदी साहित्य प्रेमी इसमें सहयोग कर रहे हैं.

 

राजस्थान के हमारे बहुत सारे मित्रों ने अपने यू ट्यूब चैनल चला रखे हैं जिन पर वे लगातार नई सामग्री अपलोड करके हम तक पहुंचाते रहते हैं. व्यंग्यकार संपत सरल, व्यंग्यकार अनुराग वाजपेयी, गीतकार बनज कुमार बनज, कहानीकार योगेश कानवा के यू ट्यूब चैनल खूब देखे जाते हैं. हिमांशु पण्ड्या के विद्यार्थियों के लिए दिए हुए लेक्चर्स ग़ैर विद्यार्थियों में भी बहुत लोकप्रिय हैं. राजस्थान के कॉलेज शिक्षा विभाग ने एक अलग मंच बनाकर अपने प्राध्यापकों के जो लेक्चर्स अपलोड किये हैं उनमें साहित्य विषयक लेक्चर खूब हैं. मेरा भी एक यू ट्यूब चैनल है. हाल में बोधि स्टूडियो के बैनर तले 'कुछ क़िस्से कुछ कहानियां' नाम  से एक आकर्षक कार्यक्रम शुरू किया गया है. व्यंग्यकार संपत सरल ने अपने व्यंग्य  और गीतकार दिनेश सिंदल ने अपनी कविताओं के पाठ की सीडी भी निकाल रखी है. कभी लोक कला मर्मज्ञ विजय वर्मा जी ने भी अपने  लिखे गीतों की एक सीडी  निकाली थी. निश्चय ही इसी तरह के काम अन्य कई मित्रों ने भी किए होंगे. इधर नई तकनीक के रूप में ऑडियो बुक्स का चलन बढ़ रहा है और हमारे कई युवा रचनाकार इस क्षेत्र में भी सक्रिय हैं. इरा टाक की ऑडियो बुक्स बहुत लोकप्रिय हुई हैं. इरा टाक एक साथ बहुत सारे प्लेट्फॉर्म्स पर सक्रिय हैं. उनकी रचनाओं की ई बुक्स भी खूब पढ़ी गई हैं. मातृ भारती डॉट कॉम और प्रतिलिपि डॉट कॉम पर हमारे प्रांत के बहुत सारे कथाकारों की रचनाएं नियमित रूप से अपलोड होती हैं और खूब पढ़ी जाती हैं. इस संदर्भ में बहुत रोचक और सराहनीय बात यह है कि युवा कथाकारों के साथ-साथ यशवंत कोठारी और एस भाग्यम  शर्मा जैसे बड़ी उम्र वाले  कथाकार भी इन  माध्यमों का जमकर उपयोग कर रहे हैं. नॉट नल, स्टोरी टेल, बिंज हिंदी, रेख़्ता और हिंदवी पर हमारे प्रांत के अनेक रचनाकारों का सृजन अपनी उपस्थिति अंकित करवा चुका है और ऐसे रचनाकारों की संख्या निरंतर बढ़ती  जा रही है. हमारी नई पीढ़ी के अनेक रचनाकार इन विभिन्न प्लेटफॉर्म्स का सूझबूझ पूर्ण प्रयोग कर अपने लेखन को बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचाने की दिशा में भी सक्रिय हैं. इनमें कथाकार नवीन चौधरी का नाम मैं ख़ास तौर पर लेना चाहता हूं. वे इन माध्यमों का बहुत  सर्जनात्मक उपयोग अपनी पुस्तकों के प्रचार-प्रसार के लिए भी करते हैं. 

 

अशोक आत्रेय और हेमंत शेष जैसे रचनाकार शब्दों के अलावा रंगों और रेखाओं के साथ इन माध्यमों को उत्साहपूर्वक बरत और समृद्ध कर रहे हैं. प्रांत के कई रचनाकारों ने अपनी वेबसाइट्स भी बनवा रखी है जहां वे नियमित रूप से अपने बारे में जानकारियां और अपने सृजन की बानगियां साझा करते हैं. जयपुर की एक कम्पनी मार्क माय बुक इस दिशा में बहुत बढ़िया काम कर रही है. राजस्थान साहित्य अकादमी की अपनी वेबसाइट है और इसी तरह प्रभा खेतान फाउण्डेशन की विभिन्न  परियोजनाओं की न केवल वेबसाइट्स हैं, वे इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक, ट्विटर, वॉट्सएप आदि पर भी अपनी गतिविधियों की सूचनाएं नियमित रूप से देते हैं. राजस्थान मूल की किंतु अब केरल में रह रहीं रति सक्सेना कविता केंद्रित  अपनी संस्था कृत्या के कारण पूरी दुनिया में जानी जाती हैं और उनकी ऑनलाइन उपस्थिति प्रशंसनीय है. 

 

प्रांत की कई संस्थाओं ने कोरोना महामारी के समय में, जब हमारा घरों से बाहर निकलना बहुत सीमित हो गया था, वेबिनार्स के माध्यम  से साहित्यिक सक्रियता  बनाए रखी. राजस्थान साहित्य अकादमी, राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ, जवाहर कला केंद्र जैसी सार्वजनिक संस्थाओं के साथ-साथ अनेक सीमित साधनों वाली संस्थाओं ने भी इस विकट समय में साहित्यिक आयोजनों के क्रम को बनाए रखा. राजस्थान के ही एक निजी यू ट्यूब चैनल क्रेडेण्ट टीवी ने डियर साहित्यकार नाम से एक साप्ताहिक शृंखला चला रखी है जिसमें हर सप्ताह किसी साहित्यकार से संवाद किया जाता है. इसी चैनल ने हाल में डियर साहित्यकार सम्मेलन का आयोजन कर एक नई पहल की है. यहां यह उल्लेखनीय है कि राजस्थान की राजधानी में होने वाला दुनिया का सबसे बड़ा निशुल्क साहित्य  उत्सव जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी कोरोना के कारण आभासी अवतार में आने को विवश हुआ है. इस बार यह आयोजन वास्तविक और आभासी दोनों रूपों में होगा. 

 

ग़ौर तलब बात यह है कि आरम्भिक हिचकिचाहट के बाद अब हिंदी समुदाय ने कंप्यूटर  और इण्टरनेट को अपना लिया है और इसका बहुत अच्छी  तरह से उपयोग किया जा रहा है. कंप्यूटर  पर हिंदी में काम करना आसान हो जाने से और तकनीक के विकास से यह काम और ज़्यादा तेज़ हो गया  है. इधर आने वाले नए कंप्यूटर्स में बोलकर लिखने की सुविधा मिल जाने से ऐसे लोग भी इनका इस्तेमाल करने लगे हैं जिन्हें टाइप करने में असुविधा होती थी. यह सुविधा न केवल लैप टॉप वगैरह में सुलभ हो गई है, मोबाइल फोन तक में आ गई है. मोबाइल फोन और उसके बड़े भाई टैबलेट ने कहीं से भी अपना काम करना सम्भव बना दिया है और इस सुविधा का लाभ उठाते हुए हमारे कई लेखक मित्रों ने अपनी पूरी की पूरी किताब ही इन उपकरणों पर लिख डाली है. तकनीक और विशेष रूप से सोशल मीडिया पर उसके उपयोग ने साहित्यिक वातावरण बनाने में भी बहुत बड़ी भूमिका निबाही है. यह आकस्मिक नहीं है कि कुछ बरस पहले राजस्थान निवासी  सुपरिचित कथाकार लक्ष्मी शर्मा ने सोशल मीडिया पर आई कविताओं का एक संकलन 'स्त्री होकर सवाल करती है' तैयार किया था. इस संकलन में अधिकांश रचनाकार ऐसी थीं जिन्होंने सोशल मीडिया पर ही लिखना शुरु किया था. उनमें से कई अब साहित्य की दुनिया में अपनी जगह बना चुकी हैं.  सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स ने एक पूरी पीढ़ी को लेखन की तरफ उन्मुख किया है, यह बात विशेष रूप से रेखांकनीय है. इनमें से ज़्यादातर प्लेटफॉर्म्स पर कोई संपादन-चयन व्यवस्था नहीं है, इसलिए अभिव्यक्ति में प्रयोग भी खूब होते हैं और बहुत बार अपरिपक्व रचनाएं भी सामने आ जाती हैं. लेकिन यह सब विकास की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा है. इस बात से दुखी नहीं होना चाहिए. 

 

मुझे यह देखकर  बहुत खुशी होती है कि अब पुरानी और नई पीढ़ी एक साथ विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर एक साथ सक्रिय है. उनमें परस्पर  संवाद भी होता है, और स्वाभाविक है कि विवाद भी होता है. इन प्लेटफॉर्म्स पर जो प्रकाशित हो रहा है उसकी एक सीमा यह है कि रचनाकारों का बहुलांश लाइक्स को ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत देने लग जाता है और बहुत बार लाइक्स की बड़ी संख्या को देखकर आत्म मुग्धता का शिकार भी हो जाता है. लाइक्स का मिलना रचना की गुणवत्ता से अधिक रचनाकार की सामाजिकता का परिणाम होता  है, लेकिन रचनाकारों का एक वर्ग  इस बात को समझने को तैयार नहीं है. यह ग़लत फहमी खुद उनके विकास के लिए हानिकारक है. एक और प्रवृत्ति इन प्लेटफॉर्म्स पर देखने को मिलती है, हालांकि सौभाग्य से यह बहुत अधिक व्यापक  नहीं है. प्रवृत्ति यह कि कुछ अत्यधिक उत्साही लोग दूसरों की रचना को कॉपी पेस्ट कर यह भ्रम पैदा करने लग गए हैं कि यह उन्हीं की रचना है. सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म की एक बहुत बड़ी सीमा यह है कि यह त्वरित माध्यम है, और यहां ठहरकर, सोच समझकर प्रतिक्रिया देने की प्रवृत्ति बहुत सीमित है. यहां तो आपकी रचना सामने आते ही तुरंत उस पर सराहना भरी प्रतिक्रियाएं आने लगती हैं. बहुत सारी प्रतिक्रियाएं तो शायद पढ़े बिना ही दे दी जाती हैं. रचना को पढ़कर उस पर सुविचारित प्रतिक्रिया देने का चलन इन माध्यमों पर बहुत कम है, और यह बात रचनाकार के हित में नहीं जाती है. 

 

कुल मिलाकर सूचना प्रौद्योगिकी के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर राजस्थान के साहित्यकार पहले से काफी अधिक सक्रिय हैं और इनकी सक्रियता निरंतर बढ़ती जा रही है. यह शुभ है. जैसे-जैसे तकनीक विकास के नए क्षितिजों की तरफ बढ़ रही है वैसे वैसे इस बढ़ी हुई सक्रियता का लाभ सर्जनात्मकता को मिल रहा है. ने केवल रचनाकारों की सर्जनात्मकता इससे लाभान्वित हो रही है, उनकी सर्जनात्मकता के गुण ग्राहक भी बढ़ रहे हैं और इस तरह एक ऐसा माहौल  तैयार होता जा रहा है जो साहित्यिक गतिविधियों के पल्लवन के लिए बहुत अनुकूल और उत्प्रेरक साबित होने वाला है. 

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राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका 'मधुमती' के मार्च, 2022 अंक में प्रकाशित.