Tuesday, November 7, 2023

अब बुज़ुर्ग लोग ज़्यादा खुश नज़र आने लगे हैं!

 क्या आपका भी ध्यान इस बात की तरफ गया है कि आज़ादी के बाद हमारे यहां जो बहुत सारे बदलाव देखने में आए हैं उनमें से एक बदलाव यह भी है कि अब लोग ज़्यादा समय जवान रहने लगे हैं, या कहें कि अब बुढ़ापा देर से आने लगा है! अपनी बात को और स्पष्ट करूं. अगर आपके पास हो तो अपने पिता या दादा की, दादी या नानी की कोई पुरानी तस्वीर निकाल कर देखें. ऐसी तस्वीर जो उनकी साठ बरस के आस पास की उम्र में ली गई हो.  आप पाएंगे कि वे उस तस्वीर में बहुत अस्त  व्यस्त, थके-मांदे, जर्जर और टूटे बिखरे नज़र आ रहे हैं. अब ज़रा उस तस्वीर की तुलना आज के साठ बरस के किसी स्त्री या पुरुष से कीजिए. क्या कल के साठ वर्षीय और आज के साठ वर्षीय आपको एक जैसे लगते हैं? अगर हां, तो फिर इन बरसों में कोई बदलाव नहीं हुआ है, और अगर इस सवाल का जवाब 'नामें है तो सोचने की बात है कि जो बदलाव हुआ है वह कैसे और क्यों  हुआ है! 

मेरा स्पष्ट विचार है आज़ादी के बाद के इन बरसों में हम बुढ़ापे को आगे धकेलने और उसके स्वरूप को बदलने में काफी हद तक कामयाब हुए हैं. आज़ादी के शुरुआती बरसों में लोग साठ की उम्र के आस पास जैसे नज़र आते थे वैसे तो अब अस्सी की उम्र के आस-पास भी नज़र नहीं आते हैं. इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि लोगों की औसत उम्र में वृद्धि हुई है और स्वास्थ्य की स्थितियां पहले से बेहतर हुई हैं. ऐसा बदलाव केवल भारत में ही नहीं, दुनिया के बहुत सारे देशों में हुआ है. वे बहुत सारी बीमारियां जो हमारे बचपन में जानलेवा मानी जाती थींअब उनका नामो निशां ही नहीं बचा है.  इस बात को भी याद कीजिए कि आज से चालीस-पचास बरस पहले कितने लोगों के चेहरों पर  चेचक के दागों के निशान हुआ करते थे, और आज की पीढ़ी इस रोग का नाम तक नहीं जानती है. यह तो मात्र एक उदाहरण है. ऐसे अनेक उदाहरण आप खुद याद कर सकते हैं. 

एक और बड़ी बात यह हुई है कि  लोगों में अपनी सेहत के प्रति जागरूकता बहुत तेज़ी से बढ़ी है. लोग अपने खान-पान के मामले में बहुत सजग हुए हैं और भले ही फास्ट फूड और जंक फूड का चलन बढ़ा है, लोगों में उनके दुष्प्रभावों के बारे में सजगता भी खूब बढ़ी है. फास्ट फूड वगैरह का अधिक चलन उस युवा पीढ़ी में है जो इनके दुष्प्रभावों का सहजता से मुकाबला कर लेती है. बाद वाली पीढ़ी यथासम्भव इनसे दूरी बरत कर अपनी सेहत की परवाह का परिचय देती है. जिनके लिए तनिक भी सम्भव है वे समय-समय पर अपने स्वास्थ्य की जांच करवाते हैं और जैसे ही किसी रोग के प्रारम्भिक लक्षण नज़र आते हैं वे समय रहते उस रोग के उपचार की दिशा में प्रवृत्त होते हैं. मधुमेह, उक्त रक्तचाप आदि के बारे में लोग बहुत ज़्यादा सावधान रहने लगे हैं, जबकि मुझे अच्छी तरह स्मरण है, मेरे बचपन में इन रोगों की शायद ही कभी चर्चा होती हो. रोग तो तब भी रहे होंगे, लेकिन लोग ही उनसे अनजान थे.  फिटनेस के प्रति जागरूकता बढ़ने का आलम यह है कि घोर पारम्परिक नज़र आने वाले स्त्री-पुरुष भी सुबह शाम पार्कों में घूमते नज़र आते हैं और हर शहर कस्बे में नित नए जिम खुलते जा रहे हैं. जीवन शैली में आए बदलावों का सामना लोग अधिक शारीरिक सक्रियता के साथ कर रहे हैं. 

फ़िल्मों, मीडिया और अब सोशल मीडिया ने भी हमें अपने व्यक्तित्व, अपने रख-रखाव और रहन-सहन के प्रति अधिक सजग बनाया है. मुझे तो यह भी लगता है कि जब से विश्व सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारत की सहभागिता बढ़ी है, उसका एक असर हम सब पर यह भी हुआ है कि हम अपने रहन-सहन में और विशेष रूप से अपने पहनावे वगैरह के मामले में अधिक सजग हो गए हैं. बाद के समय में जब अभिनेत्रियों में ज़ीरो फ़िगर का क्रेज़ प्रचारित हुआ, उसका अप्रत्यक्ष असर हम सब पर यह हुआ कि हम भी अपने शरीर की अतिरिक्त  चर्बी को लेकर लज्जा का अनुभव करने लगे. इन सारी बातों का मिला-जुला असर यह हुआ है कि आज का एक आम भारतीय पहले के भारतीय की तुलना में अधिक सेहतमंद और अधिक चुस्त-दुरुस्त नज़र आने लगा  है. 

इसे बाज़ार का असर कहें, प्रचार का असर कहें, भौतिकवाद का बढ़ता असर कहें, पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव कहें,  - जो चाहे कहें, इतना बहुत स्पष्ट है कि  अब बढ़ी उम्र के भारतीय अपने लिए भी जीने लगे हैं. भरत व्यास का लिखा और आशा भोसले का गाया एक पुराना गाना अनायास याद आ रहा है: "गीत कितने गा चुकी हूं इस सुखी जग के लिए/ आज रोने दो मुझे पल एक अपने भी लिए मुझे." आज की उम्रदराज़ पीढ़ी, अपने सारे दायित्व पूरे कर लेने के बाद जीवन का उत्तर काल अपनी अधूरी रह गई आकांक्षाओं को पूरा करते हुए भी बिता रही है. यह आकस्मिक नहीं है कि हमारे पर्यटन स्थलों पर, रेल स्टेशनों और हवाई अड्डों पर पहले से ज़्यादा बुज़ुर्ग नज़र आते हैं. अब न तो वे इस तरह सोचते हैं और न कोई समझदार उन्हें देखकर ऐसी टिप्पणी करता है कि 'भला इस उम्र में यह सब शोभा देता है?'  पश्चिम में तो यह आम बात है कि लोग ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा अपनी ज़िमेदारियां पूरी करने में बिताते हैं और बुढ़ापा अपनी बाकी रह गई हसरतों को पूरा करते हुए मस्ती के साथ गुज़ारते हैं. अब हमारे यहां भी ऐसा ही होने लगा है. और यह बदलाव सुखद है. 

इतना सब कह देने के बाद कुछ बातें और कह देना ज़रूरी लग रहा है. अब तक मैंने जो लिखा है वह पूरे भारत के वृद्धजन का यथार्थ नहीं है. असल में भारतीय समाज बेपनाह विविधता भरा समाज है. यहां अगर ऐसे लोग हैं जो सुबह आधा पेट भर पाते हैं और शाम को कुछ मिलेगा या नहीं, इसकी अनिश्चितता में जीते हैं तो ऐसे भी हैं जिनके पास अकूत सम्पदा है. ऐसे में कोई भी सच पूरे भारतीय समाज का सच तो हो ही नहीं सकता. मैंने जो लिखा है वह ठीक-ठाक स्थितियों वाले मध्यमवर्गीय भारतीय समाज को ध्यान में रखकर लिखा है. इस समाज में भी सबकी स्थितियां तो एक जैसी नहीं हैं. अनेक ऐसे हैं जो अलग-अलग कारणों से सुखी-संतुष्ट जीवन नहीं जी पा रहे हैं. किसी को शारीरिक कष्ट है तो किसी को पारिवारिक-मानसिक संताप. किसी को आर्थिक असुविधाएं हैं तो किसी को मानसिक बनावट जन्य व्यथाएं. कुछ जैसे इसी ज़िद पर अडे रहते हैं कि उन्हें बाबा तुलसीदास के इस कथन को ग़लत साबित नहीं होने देना है -  'सकल पदारथ एहि जग माहीं कर्महीन नर पावत नाही' तो कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए वह लतीफा ही मूल मंत्र है जिसमें एक अधनंगा-सा बंदा किसी सूखे पेड़ पर टिक कर मूंगफली चबा रहा था और जब किसी ने उससे पूछा कि तुम क्या कर रहे हो, तो उसका जवाब था, ज़िंदगी में अपने तो दो ही शौक हैं -अच्छा खाना और अच्छा पहनना! 

इतना सब कुछ कह चुकने के बाद अब बस, यह कहना शेष रह गया है कि बाह्य स्थितियों के साथ-साथ हमारी आंतरिक मनोदशा भी यह तै करती है कि हम खुश हैं या नहीं! खुशी बाहर से ही नहीं आती है, उसे अपने भीतर से भी बाहर आने देना होता है.  

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