Tuesday, April 4, 2017

इतनी भी आसान नहीं है एमबीए की डगर

व्यवसाय की दुनिया में अपने लिए जगह बनाने के इच्छुक अधिकांश युवाओं  का सपना  होता है कि वे किसी प्रतितिष्ठित बिज़नेस स्कूल से एमबीए कर लें.  माना जाता है कि इस पाठ्यक्रम का हिस्सा बनकर आप वो सब सीख लेते हैं जो किसी भी कामयाब कम्पनी के लीडर को आना चाहिए. यही वजह है कि दुनिया के  चुनिंदा बिज़नेस स्कूल्स में एमबीए  पाठ्यक्रमों में प्रवेश पाना बहुत आसान नहीं होता है. लेकिन जितनी यह बात सच है उतनी ही सच यह बात भी है कि पिछले कुछ बरसों में पूरी दुनिया में एमबीए पढ़ाने वाले शिक्षण संस्थानों की संख्या में बहुत तेज़ वृद्धि हुई है और एमबीए उपाधिधारी युवाओं की ऐसी बाढ़ आई है कि उनके लिए ठीक-ठाक सी नौकरी प्राप्त करना भी कठिन हो गया है. ये दोनों बातें परस्पर विरोधाभासी भले ही लगें,  हैं सच. पारम्परिक पाठ्यक्रम को पढ़कर एमबीए करने वालों की इस स्थिति  को देखते हुए अब दुनिया के बहुत सारे देशों के विश्वविद्यालय अपने एमबीए पाठ्यक्रमों  का रुख विशेषज्ञता के अब तक अनछुए इलाकों की तरफ मोड़ रहे हैं. ऐसे ऐसे नए विषयों के पाठ्यक्रम सुनने को मिल रहे हैं कि ताज्जुब होता है.

उदाहरण के लिए ब्रिटेन की लिवरपूल यूनिवर्सिटी ने पिछले दो बरसों से  घुड़दौड (होर्सरेसिंग) में एमबीए का दो-साला पाठ्यक्रम चला रखा है. ज़ाहिर है कि यह पाठ्यक्रम उन युवाओं के लिए है जो इस खेल उद्योग में किसी वरिष्ठ प्रशासनिक या अग्रणी दायित्व का निर्वहन करने का ख़्वाब देखते हैं. इस कोर्स में मार्केटिंग,  स्पॉन्सरशिप  जैसी पारम्परिक बातों के अलावा खेल  विषयक नियम कानून, घोड़ों की देखभाल और उनकी  सेहत विषयक ज्ञान भी दिया जाता है. व्यावहारिक अनुभव प्रदान करने के लिए विद्यार्थियों को रेस दिखाने के लिए ले जाया जाता है और अश्व प्रजनन केंद्रों की पूरी कार्य प्रणाली का अवलोकन भी कराया जाता है. महत्वपूर्ण बात यह है कि यह पाठ्यक्रम शुरु करने का सुझाव खुद ब्रिटिश  होर्सरेसिंग प्राधिकरण और इसी तरह की अन्य संस्थाओं की तरफ से आया था. इन संस्थाओं ने महसूस किया कि अगर उन्हें इस व्यवसाय विशेष के लिए विशेष रूप से विधिवत प्रशिक्षित प्रबंधक मिल जाएं तो वे अपना काम और बेहतर तरीके से कर सकेंगी.   

इसी लिवरपूल  विश्वविद्यालय ने कोई बीसेक बरस पहले फुटबॉल में एमबीए का एक विशेषीकृत पाठ्यक्रम शुरु किया था जो अभी भी खासा लोकप्रिय है. इसकी लोकप्रियता इस तथ्य से भी समझी जा सकती है कि जहां होर्सरेसिंग कोर्स की दो बरस की पढ़ाई की कुल लागत साढे साथ हज़ार ब्रिटिश  पाउण्ड प्रति वर्ष है वहीं फुटबॉल वाले कोर्स की एक बरस की पढ़ाई की लागत पंद्रह हज़ार ब्रिटिश पाउण्ड है और अगर कोई विदेशी इसे पढ़ना चाहे तो उसे साढे इक्कीस हज़ार पाउण्ड खर्च करने होते हैं. 

विश्वविद्यालयों का सोच यह है कि अगर सभी अपने यहां एमबीए का पाठ्यक्रम चला रहे हैं तो हमें बाज़ार में टिके रहने के लिए कुछ अलग करना होगा. इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी समझ लिया है कि किसी खास क्षेत्र में अपनी जगह बनाने के लिए बहुत ज़रूरी है कि कुछ अलहदा और ख़ास किया जाए. यही अलग करने का भाव इन अजीब लगने वाले पाठ्यक्रमों में देखा जा सकता है. विश्वविद्यालय ही नहीं, विद्यार्थी भी इस बात को समझ रहे हैं. एक तियालीस वर्षीया फ्रांसिसी महिला का कहना है कि इण्टरनेशनल बिज़नेस और मार्केटिंग  में मास्टर्स डिग्री धारी होने के बावज़ूद उन्हें असंतोषप्रद नौकरियां ही मिलीं और इस वजह से वे बार-बार नौकरियां बदलने को मज़बूर हुईं, लेकिन आखिर में अपना घर बेच कर उन्होंने तैंतीस हज़ार पाउण्ड खर्च कर जब फ्लोरिडा विश्वविद्यालय से एविएशन (उड्डयन) मैनेजमेंट में डिग्री हासिल की तो उन्हें उनकी मनपसंद नौकरी भी मिल गई.

लेकिन ऐसा नहीं है कि इस अति विशेषीकृत शिक्षा को सब पसंद ही कर रहे हैं. प्रबंधन के बहुत सारे विशेषज्ञों का कहना है इस प्रकार के पाठ्यक्रमों में चुने हुए विषय पर इतना अधिक ध्यान और समय दिया जाता है कि बिज़नेस की आधारभूत बातों को बताने-पढ़ाने के लिए बहुत कम गुंजाइश बच रहती है, और इस तरह मूल प्रबंधन विषय उपेक्षित रह जाता है. कुछ जानकारों का यह भी कहना है इन  विशेषीकृत  विषयों को अभी बाज़ार में पूरी तरह स्वीकृति नहीं मिल पाई है इसलिए इन्हें पढ़ने वालों की राह बहुत सुगम नहीं है. यह भी कहा जाने लगा है कि किसी ख़ास  विषय में एमबीए करने वालों के लिए नौकरी चुनने के मौके बहुत सीमित हो जाते हैं. इस बारे में सबसे मज़ेदार टिप्पणी तो एक अंतर्राष्ट्रीय एडमिशन काउंसिलिंग कम्पनी के सीईओ ने की है. उनका कहना है  कि बहुत सम्भव है कि किसी स्पेशलाइज़्ड विषय में एमबीए करने वाले को किसी (जनरल)  एमबीए के अधीन काम करना पड़ जाए!


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ उधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 अप्रैल, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.