निदा फ़ाज़ली साहब की एक बेहद लोकप्रिय गज़ल का मतला है – दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है/ मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है. जो आपके पास होता है वह आपको बेमानी लगता है लेकिन जो नहीं होता है उसके लिए आप तरसते और तड़पते हैं. आपके पास बेपनाह दौलत हो तो भी ज़रूरी नहीं कि आप उससे संतुष्ट और खुश हों, लेकिन जो आपके पास नहीं होता है उसका अभाव अनिवार्यत: आपको सालता है. यह बात मेरे जेह्न में आई ओकलेण्ड, कैलिफोर्निया निवासी डॉमिनिक़ अपोलन के बारे में पढ़ते हुए. पैंतालीस वर्षीय अपोलन अमरीका स्थित एक महत्वपूर्ण संगठन में रिसर्च के वाइस प्रेसिडेण्ट हैं. ज़ाहिर है कि वे खासे सुखी सम्पन्न व्यक्ति हैं. जानते हैं उन्हें हाल में सबसे बड़ी खुशी किस बात से हासिल हुई? इतनी ज़्यादा खुशी कि उनकी आंखों से अश्रु धारा बह निकली! वह खुशी हासिल हुई उन्हें हर कहीं आसानी से और बहुत कम मूल्य पर मिल जाने वाली बैण्ड एड जैसी एक पट्टी से. उनकी उंगली पर चोट लग गई थी और जब वे उस पर चिपकाने के लिए कोई पट्टी खरीदने बाज़ार गए तो उन्हें यह अभूतपूर्व खुशी हासिल हुई.
सामान्यत: इस तरह की पट्टियां या तो हल्के भूरे रंग (जिन्हें हम सामान्यत: स्किन कलर कहते हैं) की होती हैं या फिर बच्चों के लिए मिलने वाली पट्टियों पर कोई कार्टून किरदार छपे होते हैं. हल्के भूरे रंग की पट्टियों के हम सब इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि इसमें किसी को कुछ भी असामान्य नहीं लगता है. लेकिन उस दिन ये डॉमिनिक़ अपोलन महाशय अपनी चोटिल उंगली पर चिपकाने के लिए पट्टी खरीदने बाज़ार गए तो चौंक पड़े. उन्हें वहां एक ऐसी पट्टी नज़र आई जो हूबहू उनकी त्वचा के रंग से मेल खाती थी. जान लीजिए कि ये डॉमिनिक़ महाशय अश्वेत हैं. उन्होंने उस पट्टी को अपनी उंगली पर चिपकाया और फिर उंगली को देखा तो लगा जैसे उन्होंने कोई पट्टी चिपका ही नहीं रखी है. पट्टी एकदम उनकी त्वचा में घुल मिल गई थी. यह पहली दफा हुआ था, अन्यथा उनके पैंतालीस बरस के जीवन में अनेक ऐसे मौके आए थे जब उन्होंने अपनी अश्वेत देह के किसी अंग पर हल्के भूरे रंग की पट्टी चिपकाई थी. डॉमिनिक़ को इस बात की खुशी थी कि चलो किसी ने तो यह सोचा कि सारी दुनिया श्वेत लोगों से ही भरी हुई नहीं है, उसमें अश्वेतों का भी कोई वुज़ूद है. अगर पहले किसी ने सोचा होता तो उसने भी अश्वेतों को ध्यान में रखकर उनकी त्वचा के रंग से मेल खाती पट्टियां बनाई होतीं. उंगली पर चिपकी पट्टी को वे बार-बार देख रहे थे और जैसे उस पट्टी के प्रति आभारी हो रहे थे कि कम से कम वह तो उनके अश्वेत होने का ढिंढोरा नहीं पीट रही है. डोमिनिक़ बेहद खुश थे, इतने खुश थे कि रो रहे थे. बाद में उन्होंने अपने भावों को शब्द बद्ध करते हुए एक ट्वीट किया: “मैं अब तक सूर्य के पैंतालीस चक्कर लगा चुका हूं लेकिन आज अपनी ज़िन्दगी में मैंने पहली दफा यह महसूस किया है कि मेरी अपनी त्वचा के रंग वाली बैण्ड एड के क्या मानी होते हैं. एक बार में तो यह आपको दिखाई ही नहीं देगी. मैं बहुत मुश्क़िल से अपने आंसू रोक पा रहा हूं.” बाद में उन्होंने अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए कहा कि मैंने बहुत बार यह महसूस किया है कि अपनी देह पर एक पट्टी चिपकाने जैसे बेहद मामूली काम में भी आपका अश्वेत होना घोषित होता है. अपनी आज़ तक की ज़िन्दगी में तो मैं अपनी देह पर वे ही पट्टियां चिपकाता रहा हूं जो हल्के रंग की चमड़ी वालों यानि गोरों के लिए निर्मित की जाती हैं. आज पहली दफा मैं एक ऐसी पट्टी का प्रयोग कर रहा हूं जो मुझ जैसों के लिए बनाई गई है.
दरसल डॉमिनिक़ की यह खुशी केवल इतनी-सी बात की नहीं है कि उन्हें अपनी त्वचा के रंग से मेल खाती पट्टी मिल गई. इस खुशी के मूल में यह बात है कि आखिर किसी ने तो उन और उन जैसे लाखों-करोड़ों लोगों के बारे में सोचा जिन्हें उनकी चमड़ी के रंग की वजह से उपेक्षित और अपमानित किया जाता रहा है. डॉमिनिक़ अपोलन के उपरोक्त ट्वीट के बाद यह मुद्दा खूब चर्चा में आ गया है. बहुत स्वाभाविक है कि जिस कम्पनी ने पट्टी के रंग में बदलाव कर डोमिनिक़ और उन जैसे अनगिनत अश्वेतों को आह्लादित किया है वह अपनी इस पहल पर गर्वित है. उसने एक ट्वीट कर कहा है कि अब वह और भी अनेक रंगों की पट्टियों का उत्पादन करने के बारे में विचार कर रही है. कम्पनी ने कहा है कि हमारी चमड़ी के रंगों की विभिन्नता ही हमारा सौन्दर्य है और हमें इस पर गर्व है. बहुत सारे अश्वेतों ने भी अपोलन का शुक्रिया अदा किया है कि उसने उन सबकी भावनाओं को वाणी दी है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक
कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 30 अप्रैल, 2019 को इसी शीर्षक
से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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