कल जब मैंने अपने आबू रोड के कार्यकाल का एक संस्मरण लिखा तो प्रसंगवश उसमें यह भी ज़िक्र आ गया था कि वहां की स्मृतियों में और काफी कुछ है जिन्हें लिखने में मुझे संकोच है. मेरे कुछ मित्रों ने पुरज़ोर आग्रह किया कि जो अनुभव हैं उन्हें लिख ही दूं. उनके आदेश को टाल नहीं पा रहा हूं. पढ़ें यह अंश:
पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि जुलाई 1998 से मार्च 2000 तक का करीब बीस माह का आबू रोड का कार्यकाल मेरे सेवा काल का सबसे कठिन कार्यकाल रहा. वैसे उचित यह होगा कि इन बीस माह में से करीब छह माह अलग कर दूं. इन छह माह की चर्चा कल कर ही चुका हूं. इसलिए सच तो यह है कि सिर्फ़ चौदह माह ही मुश्क़िल से बीते. और इसकी वजह सिर्फ यह कि आबू रोड कॉलेज सही मानों में एक बिगड़ा हुआ कॉलेज था. कॉलेज को बिगाड़ने में वहां की छात्र राजनीति की और वहां की सामाजिक संरचना की बहुत बड़ी भूमिका है. वहां के एक राजनेता, तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष विनोद परसरामपुरिया (अब स्व.) का एक दिन फोन आया. न कोई दुआ न कोई सलाम. सीधे बोले, “प्रिंसिपल साहब, आपको यहां रहना है या नहीं रहना है?” मैंने पूछा कि क्या बात है, तो बोले, “आपको इतना समय हो गया यहां आए, आप एक बार भी मुझसे मिलने नहीं आए!” मैंने अपने को काबू में रखते हुए जवाब दिया कि “न तो आपने कभी मुझे बुलाया और न मुझे कोई काम पड़ा. आता कैसे?” बोले, “आप जानते हैं, मैं आपका तबादला करा सकता हूं.” मैंने यह कहते हुए कि “अब तक तो नहीं मालूम था, अब आपने बता दिया है”, फोन रख दिया. उसके बाद उनसे कभी कोई संवाद नहीं हुआ.
आबू रोड सिरोही ज़िले में ही स्थित है लेकिन वहां की संस्कृति सिरोही से एकदम अलहदा है. आबू रोड की युवा पीढ़ी के लिए एक शब्द बहु प्रयुक्त है: चवन्ना. अर्थ बहुत स्पष्ट है. वैसे मुझे कभी भी यह बात नहीं रुचती है कि किसी पूरे के पूरे समूह को एक ही डण्डे से हांका जाए या उस पूरे समूह पर एक लेबल लगा दिया जाए. लेकिन लगभग दो बरस आबू रोड में रहकर मुझे लगा कि जिसने भी यह नामकरण किया होगा, अवश्य ही वह भुक्त भोगी रहा होगा. विद्यार्थी राजनीतिक दलों की युवा शाखाओं एन.एस.यू.आई. और ए.बी.वी.पी. में बुरी तरह विभक्त और हर वक़्त लड़ने-मरने और प्रशासन की नाक में दम करने को तैयार. व्यवहार में विनम्रता और शालीनता का दूर-दूर तक कोई ठिकाना नहीं. जाति की बात करना मेरे स्वभाव में नहीं, लेकिन वहां जाकर महसूस किया कि अगर किसी जाति के युवाओं को अशिष्टता के लिए पहला पुरस्कार देना हो तो वह जाति अग्रवाल होगी. हालत यह हो गई कि अगर कोई छात्र मेरे पास आता और अशिष्टता से पेश आता तो मैं उससे पहली बात यही पूछता कि “कहीं तुम अग्रवाल तो नहीं हो?” और उनका आभार कि उन्होंने मुझे एक बार भी ग़लत साबित नहीं किया. सबसे ज़्यादा मज़ा तो तब आया जब मैं, अपने आबू रोड पदस्थापन के करीब-करीब आखिरी दिनों में वहां की एक प्रख्यात मिठाई की दुकान पर खरीददारी के लिए गया. दुकानदार भी मुझे पहचानता था. उस दिन जाने क्या बात हुई, उसने बहुत झुककर, ज़रूरत से ज़्यादा ही झुककर मुझे नमन किया. मैंने जब इसकी वजह पूछी तो वह बोला कि “सर! मैं आपको नमन इसलिए कर रहा हूं कि हम तो अपने एक-दो बच्चों को भी नहीं झेल पाते हैं, आप पूरे कॉलेज को झेल रहे हैं!” हो सकता हो, उस दिन उसके सपूतों ने कुछ अधिक ही आबूरोडपना दिखा दिया हो.
लेकिन फिर भी वहां बीस माह गुज़ारने में मुझे अधिक पीड़ा नहीं हुई. इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि वहां के स्टाफ से मुझे बहुत सहयोग मिला. विशेष रूप से टीचिंग स्टाफ़ से. डॉ एसबी लाहिड़ी, अनिता गुप्ता, अंशु रानी सक्सेना, गोपाल कृष्ण सुखवाल, भगवान दास,सत्य भान यादव, हनुवंत सिंह चौहान, संस्कृत की एक मै’म, जिनका नाम याद नहीं आ रहा, आदि मेरे बहुत अच्छे सहयोगी रहे. मेरे उपाचार्य प्रो. सवाई राम ने हमेशा मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया. अलबत्ता दफ़्तर का हाल इतना अच्छा नहीं था. ज़्यादातर लोग न तो ख़ुद काम करना चाहते थे और न उन्हें यह बात सहन होती थी कि कोई दूसरा काम करे. मेरे शिक्षक सहकर्मियों ने मुझे जब उन्मुक्त सहयोग दिया तो कार्यालय के साथियों ने उन्हें यह कहते हुए कि यह जो काम आप कर रहे हैं, यह आपका है ही नहीं, भड़काने का हर सम्भव प्रयास किया. उन दिनों कम्प्यूटर नया नया आया था, और मेरे कुछ शिक्षक साथी कम्प्यूटर सीखने में खूब रुचि लेते थे. दफ़्तर वाले उन्हें बार-बार टोकते, मेरे पास भी शिकायत लेकर आते कि ये कम्प्यूटर को खराब कर देंगे, या ये तो उस पर गेम खेलते रहते हैं. ज़ाहिर है कि मैं इन बातों को तवज्जोह नहीं देता, और यह उन्हें और बुरा लगता. लेकिन वक़्त जैसे-तैसे कट ही गया. मैं हर माह अपने दोस्तों के साथ संध्याकालीन ‘बैठकी’ के लिए सिरोही आता, और उस बैठकी में जैसे महीने भर का तनाव बह जाता.
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