जब आप हास्केल फ्री लाइब्रेरी में प्रवेश
करते हैं तो लगता
है कि आप किसी आम
कस्बाई अमरीकी लाइब्रेरी में घुसे हैं. बस एक फर्क़ पर आपका ध्यान जाता है कि यहां जो लकड़ी का काम है यानि फर्नीचर, अलमारियां वगैरह हैं वे सब अधिक भव्य और पुरानी शैली के हैं. फिर
आपका ध्यान इस बात पर भी जाता है कि यहां का जो स्टाफ है वह कभी अंग्रेज़ी बोलता है
तो कभी फ्रेंच, और हां, यह बात भी कुछ
अजीब लगती है कि इस अमरीकी लगने वाली लाइब्रेरी में फ्रांस-कनाडा के इतिहास पर
किताबों की बहुतायत है. और हां, सबसे अधिक ध्यानाकर्षक तो है इस लाइब्रेरी के फर्श
पर चिपका हुआ एक काला टेप जो इसे दो भागों में बांटता प्रतीत होता है.
मुझे लगता है कि अब आपको
यह बता ही दिया जाना चाहिए कि जिस
लाइब्रेरी की मैं चर्चा कर रहा हों वह दुनिया की एकमात्र ऐसी लाइब्रेरी है जो दो
देशों में स्थित है. यह लाइब्रेरी अमरीका के डर्बी लाइन, वर्मोण्ट और कनाडा के स्टैंस्टेड, क्यूबेक में स्थित है.
लाइब्रेरी का मुख्य द्वार, सामुदायिक
सूचना पट्ट और बच्चों की किताबों का खण्ड अगर अमरीका में है तो पुस्तकालय का शेष
संग्रह और वाचनालय कनाडा में हैं. इसी भवन की दूसरी मंज़िल पर एक ऑपेरा हाउस भी है
और ज़ाहिर है कि वह भी दोनों देशों में स्थित है. इस ऑपेरा हाउस की ज़्यादातर सीटें
कनाडा में हैं जहां बैठकर आप वर्मोण्ट, अमरीका की धरती पर होने वाले कार्यक्रमों का
लुत्फ़ लेते हैं. हैं ना मज़ेदार बात. इस दोमंज़िला भव्य इमारत का निर्माण एक रईस
अमरीकी व्यापारी की कनाडाई पत्नी मार्था हास्केल ने सन 1901 में करवाया था. यह वह
समय था जब ये दोनों कस्बे दूध और शक्कर की तरह घुले मिले थे. लोग समान जल स्रोत का
पानी पीते थे,
एक
साथ खेलते थे और यहां तक कि बड़ी लड़ाइयों में भी एक साथ हिस्सा लेते थे. हास्केल
परिवार ने इस भवन के निर्माण के लिए इस जगह का चुनाव बहुत सोच समझ कर किया था. वे
सीमा के दोनों तरफ के लोगों के बीच आत्मीयता और दोस्ती का प्रसार चाहते थे. उस
कालखण्ड में मार्था के मन में यह विचार था कि ऑपेरा हाउस की कमाई से लाइब्रेरी का
संचालन हो जाया करेगा. लेकिन चलचित्र के आगमन से लोगों की रुचि में बहुत बदलाव आया
और अब हालत यह है कि लाइब्रेरी की आय से ऑपेरा हाउस को ज़िंदा रखा जा रहा है.
अपनी स्थापना के बाद से
बहुत लम्बे समय तक यह लाइब्रेरी अपनी पुस्तकों के संग्रह के अलावा भी लोगों के
आकर्षण का केंद्र बनी रही. असल में सीमाएं, चाहे वे किन्हीं भी देशों
के बीच की हों,
लोगों
के मन में एक दुर्निवार आकर्षण जगाती हैं. यह सोचना कि एक विभाजक रेखा के पार सब
कुछ अलहदा है,
बहुत
रोमांचक होता है. यही रोमांच इस पुस्तकालय
और ऑपेरा हाउस में आने वाले लोगों के आकर्षण का कारण रहा और अब भी है. लेकिन
ग्यारह सितम्बर 2001 की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद से काफी कुछ बदल गया है. उस
समय से पहले तो इधर से उधर जाना-आना बहुत ही सहज-स्वाभाविक हुआ करता था. लेकिन इस
घटना के बाद इस भवन के परिसर में न सही, आस-पास के माहौल में एक अनकहा तनाव महसूस
किया जा सकता है. पुस्तकालय भवन के बाहर भी चौबीसों घण्टे अमरीकी सुरक्षा सेवा का
एक वाहन पहरेदारी करता है. रॉयल कैनेडियन माउण्टेड पुलिस के सीमा सुरक्षा सैनिक भी
वहां हर पल मौज़ूद रहते हैं. अमरीकी नागरिकों के लिए अब भी इस पुस्तकालय में
आना-जाना बहुत सहज है. वे मुख्य द्वार से
सीधे अंदर घुस सकते हैं, लेकिन कनाडाई नागरिकों को क्योंकि तकनीकी रूप से
अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को पार करना होता है, थोड़ी-सी असुविधा का सामना
करना पड़ता है. उन्हें कुछ सुरक्षा कैमरों के आगे से गुज़रते हुए लाइब्रेरी में प्रवेश
करना होता है. हां इतना ज़रूर है कि एक बार लाइब्रेरी में जाने के बाद वे
बहुत सुगमता से अपनी किताबें इश्यू करवा कर लौट आते हैं. हां, इस बात का ज़रूर ध्यान रखा
जाता है कि इस सुविधा का दुरुपयोग करते हुए कोई कनाडाई नागरिक अमरीकी इलाके में
ही न रह जाए. असल में यदा-कदा इस तरह के
प्रयास होते भी रहते हैं.
तमाम बदलावों के बावज़ूद यह
भवन दो देशों के बीच की विभाजक रेखा की वजह से अलग हो गए परिवारों को मेल मुलाकात
के अवसर सुलभ कराता है. यह भवन अगर आज भी
लोगों को अपनी तरफ खींचता है तो इसके पीछे जो भाव अंतर्निहित है उसे समझा जाना
ज़रूरी है. भौगोलिक राजनीतिक तनावों और दुनिया भर में जगह-जगह खड़ी होती जा रही
दीवारों के बीच यह भवन संदेश देता है कि सारी सीमाएं अंतत: मानव की कल्पना से
उत्पन्न हैं और उन्हें मानना न मानना भी अंतत: हमारे अपने विवेक पर ही निर्भर है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 28 मई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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