अगर आप बीमार हो जाएं तो क्या करेंगे?
अजीब सवाल है! डॉक्टर के पास
जाएंगे, और क्या करेंगे?
सही भी है. जिन लोगों में मेरा उठना बैठना है वे किसी पीर-ओझा-बाबा के
पास तो जाने से रहे. बेशक समाज का एक वर्ग है जो बीमार होने पर जादू-टोने-टोटकों
वगैरह की शरण लेता है, लेकिन बहुत बड़ा वर्ग वह है जो बीमार होने पर अस्पताल भागता
है और रोग की गम्भीरता तथा अपनी हैसियत के अनुरूप छोटे या बड़े डॉक्टर की सलाह लेता
है. इसी वर्ग में वे लोग भी शामिल हैं जो अपने-अपने विश्वासों के अनुरूप एलोपैथिक
से इतर किसी चिकित्सा पद्धति की शरण में जाते हैं. वैसे यह बात आम तौर पर मान ली गई है कि किसी को
तुरंत राहत चाहिये तो उसे एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति की शरण में ही जाना होगा.
एलोपैथिक चिकित्सक आपकी बात सुनेगा, अगर उसे ज़रूरी लगा तो कुछ परीक्षण
करवाएगा और फिर कुछ दवाइयां लिख देगा.
सरकार लाख कहे कि जेनेरिक दवाइयां लिखी जाएं, डॉक्टर आम तौर पर आपको ब्राण्डेड
दवाइयां ही देगा. लेकिन अगर आपका रोग गम्भीर हुआ तो बहुत मुमकिन है कि डॉक्टर आपको
शल्य चिकित्सा की सलाह दे. तब आप क्या करेंगे? डॉक्टर भगवान है, उसकी सलाह
मानेंगे. ठीक है ना?
लेकिन अभी हाल में नवी मुम्बई के एक सेकण्ड ओपिनियन सेण्टर की जो
रिपोर्ट सामने आई है, उसे पढ़ने के बाद शायद आप भी अपने इस जवाब पर पुनर्विचार करना
चाहें! यह सेकण्ड ओपिनियन सेण्टर दरअसल एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान है जो अपने आप
को ई- हॉस्पिटल कहता है और आप द्वारा
प्रस्तुत की गई रिपोर्ट्स आदि के आधार पर कुछ शुल्क लेकर आपको दुनिया भर में
अवस्थित अपने विशेषज्ञ चिकित्सकों की सलाह उपलब्ध कराता है. इस सेण्टर ने हाल में
साढे बारह हज़ार ऐसे रोगियों का विश्लेषण कर एक रिपोर्ट जारी की है जिन्हें शल्य
चिकित्सा की सलाह दी गई थी. सेण्टर का कहना है कि इनमें से 44% को असल में शल्य
चिकित्सा की ज़रूरत थी ही नहीं. अब ज़रा इसी बात को अगर अलग-अलग रोगों के सन्दर्भ
में देखिये. जिन हृदय रोगियों को सलाह दी गई उनमें से पचपन प्रतिशत को
स्टेण्ट लगवाने की, सैंतालिस प्रतिशत
कैंसर रोगियों को शल्य क्रिया की, और अड़तालीस प्रतिशत को घुटनों के प्रत्यारोपण की
ज़रूरत नहीं थी. सोचिये, अगर आपकी जेब और आपकी देह दोनों ने ग़ैर ज़रूरी शल्य
चिकित्सा का अत्याचार सहन किया होता तो?
वैसे यह जानकर आपको थोड़ी राहत महसूस हो सकती है कि सिर्फ अपने देश में
ही ऐसा नहीं होता है. पिछले दिनों हम लोग
यह भी पढ़ चुके हैं कि अमरीका में किए गए घुटना प्रत्यारोपण के ऑपरेशनों में भी एक
तिहाई अनावश्यक थे. अपने देश में भी, और अन्य देशों में भी, प्रसव के लिए सिज़ेरियन
ऑपरेशनों की अधिकता और अनावश्यकता पर अक्सर सवाल उठाये जाते रहे हैं.
जानकार लोग अनावश्यक शल्य चिकित्सा के मूल में यह बात देखते हैं कि निजी अस्पतालों में डॉक्टरों को
मिलने वाली तनख्वाह का सीधा सम्बन्ध इस बात से होता है कि वे अपने अस्पताल को
कितना ‘बिज़नेस’ देते हैं. और कमोबेश यही
बात हमें दी जाने वाली ग़ैर ज़रूरी दवाइयों के बारे में भी सच है. फर्क बस इतना है
कि यहां डॉक्टर और अस्पताल की बजाय डॉक्टर और दवा कम्पनी का समीकरण काम करता है. दवा
कम्पनियों द्वारा डॉक्टरों को उनके लिखे प्रेस्क्रिपशंस के अनुरूप ‘उपहार’ प्रदान
करने की चर्चाओं से शायद ही कोई नावाक़िफ हो.
इस सारे खेल में एक और पक्ष अब तेज़ी से जुड़ता जा रहा है और वह है बीमा
कम्पनियां. भारत में भी सरकारी अस्पतालों की बदहाली से तंग आए लोग निजी अस्पतालों
का रुख करने और उन्हें बहुत ज़्यादा महंगा पाकर मेडिकल इंश्योरेंस में अपना संकट
मोचक तलाश करने लगे हैं. निजी अस्पतालों और बीमा कम्पनियों की साठ गांठ इलाज का
खर्चा दिन दूना रात चौगुना बढ़ाने में कोई कसर नहीं रख रही है. शायद इसी की परिणति
इस बात में भी हुई है कि हाल ही में बीमा कम्पनियों ने कुछ महत्वपूर्ण रोगों के
लिए शुल्क निर्धारित कर दिया जिसे ये अस्पताल मानने को तैयार नहीं हैं और परिणामत:
अस्पतालों ने कैश लैस सुविधा को स्थगित कर रखा है.
लेकिन इस सारी चर्चा से यह न मान लिया जाए सारा दोष डॉक्टरों और
अस्पतालों का ही है. इस चर्चा के शुरु में मैंने सेकण्ड ओपिनियन सेण्टर की जिस रिपोर्ट
का ज़िक्र किया, उसके सन्दर्भ में यह जान लेना भी ज़रूरी होगा कि दो डॉक्टरों की राय
में अंतर सदा सम्भव है. इसलिए यह मान लेना भी उचित नहीं होगा कि हर मामले में पहली
राय ग़लत और दूसरी राय ही सही होगी. दूसरी राय से भी असहमत होने की सम्भावनाओं को
स्वीकार किया जाना चाहिए. लेकिन ये तमाम बातें हमारी चिंताओं को घटाते नहीं, बढ़ाते हैं, यह बात
निर्विवाद है.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 06 जनवरी, 2015 को आगे कुंआ, पीछे खाई, कोई राह न दे सुझाई शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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