“इस बात की तो किसी ने ख्वाब में भी कल्पना नहीं की होगी कि तीन हज़ार सालों के जातिगत भेदभाव के बाद तथाकथित पिछडी जाति की एक महिला देश के सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य की मुख्यमंत्री बन जाएगी. लेकिन दो बार ऐसा हो गया. इसी तरह, 2004 में भारत में जो हुआ वह तो मानवता के इतिहास में अभूतपूर्व है. एक अरब से ज़्यादा आबादी वाले इस दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में चुनाव हुआ और एक कैथोलिक राजनीतिक नेता (सोनिया गांधी) ने एक सिख के लिए देश के प्रधानमन्त्री पद का त्याग किया. और बात यहीं खत्म नहीं होती. सिख मनमोहन सिंह को शपथ दिलाई देश के मुस्लिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने. यह याद रहे कि देश की 81 प्रतिशत आबादी हिन्दू है.:”
इस और ऐसी ही अनेक टिप्पणियों से भरी रोचक किताब इन स्पाइट ऑफ द गॉड्स: द राइज़ ऑफ मॉडर्न इण्डिया में ब्रिटिश पत्रकार एडवर्ड लूसे ने तेज़ी से उभर रही आर्थिक और भू-राजनीतिक ताकत भारत की विकास यात्रा की पडताल की है, उसके अवरोधकों को रेखांकित किया है और विकास की गति तेज़ करने के लिए सुझाव दिए हैं. एडवर्ड लूसे 2001 से 2005 तक नई दिल्ली में फाइनेंशियल टाइम्स के दक्षिणी एशिया ब्यूरो चीफ रहे है और आजकल इसी पत्र के वाशिंगटन कमेंटेटर हैं. उनकी पत्नी भारतीय है. इस किताब के लिए लूसे ने महत्वपूर्ण राजनेताओं, धर्म गुरुओं, आर्थिक विश्लेषकों से लगाकर ग्रामीण मज़दूरों तक से बात की और खूब यात्राएं की. यह किताब रिपोर्ताज और विश्लेषण का अनूठा मिश्रण है और भारतीय समाज और व्यवस्था की जटिलताओं को बखूबी उभारती है. लूसे जल्दबाजी और भावुकता में कोई टिप्पणी करने की बजाय आंकडों और तथ्यों से पुष्ट बात कहकर अपनी बात को प्रामाणिकता प्रदान करते हैं.
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों, आर्थिक विकास और महाशक्ति बनने के दावों के बरक्स अनेक अध्ययनों ने यह बताया है कि दिया तले अन्धेरा भी घना है. एक अध्ययन के अनुसार, भारत में हज़ार लोगों के पीछे मात्र चौरासी टेलीविजन सेट्स हैं, जबकि अमरीका में नौ सौ अडतीस हैं. भारत में प्रति हज़ार 7.2 पर्सनल कम्प्यूटर हैं, ऑस्ट्रेलिया में 564.5 हैं. भारत में इण्टरनेट अभी महज़ दो प्रतिशत को सुलभ है, मलेशिया में चौंतीस प्रतिशत को. भारत की श्रम शक्ति का महज़ पांच प्रतिशत ही औपचारिक रूप से नियोजित है, यानि मात्र साढे तीन करोड लोगों को ही रोज़गार सुरक्षा सुलभ है. लगभग इतनी ही आबादी इनकम टैक्स देती है. भारत के तीस करोड लोग अडसठ लाख ऐसे गांवों में निवास करते हैं जहां शुद्ध पेय जल तक ठीक से सुलभ नहीं है. ज़्यादातर झोंपडियां गोबर से बनी हैं, चूल्हे जिस तरह जलाये जाते हैं उससे श्वास सम्बन्धी बीमारियां उग्र होती हैं. देश की पैसठ प्रतिशत जनसंख्या ही पढ सकती है. गांवों में तो साक्षरता दर मात्र तैंतीस प्रतिशत ही है. याद रखें, चीन में यह दर नब्बे प्रतिशत है. लेकिन, भारत के विकास में अवरोधक तत्वों की चर्चा करते हुए भी लूसे भारत में चीन का मॉडल अपनाने की हिमायत नहीं करते.
1991 से पहले भारत में कोटा-परमिट राज था. पी वी नरसिंहा राव ने उसे बदला. विदेशी निवेश भी बढा, और काफी कुछ बदला. टेलीविजन चैनल एक से एक सौ पचास तक पहुंचे, सडकों पर कारों के नए मॉडल्स आए, नई दुकानें और मॉल खुले और उनमें नई तरह के उत्पाद दिखाई देने लगे. फिर भी भारत के उभरते मध्यवर्ग, शिक्षित शहरी अभिजात वर्ग और गांवों में रह रहे गरीबों के बीच असमानता की खाई न केवल बनी हुई है, और गहरी हुई है. लूसे ने इसी तरह के अंतर्विरोधों से अपनी किताब का ताना-बाना बुना है. किताब का शीर्षक भी ऐसे ही एक अंतर्विरोध को उजागर करता है और बाद में एक जगह वे भारत के अभ्युदय पर अचरज करते हुए कहते हैं कि भारत एक तरफ तो एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक ताकत बनता जा रहा है और दूसरी तरफ अभी भी एक धार्मिक, आध्यात्मिक और कुछ मानों में अन्धविश्वासी समाज बना हुआ है.
आर्थिक सुधारों के बावज़ूद लाल फीताशाही में कमी नहीं आई है और व्यापक भ्रष्टाचार आर्थिक प्रगति को रोके हुए है. लूसे केरल के हाइवे विभाग के मुखिया वी जे कुरियन का हवाला देते हुए बताते हैं कि वे कुछ साल पहले कोच्चि में एक हवाई अड्डा बनाना चाहते थे. उन्हें दो लाख डॉलर की रिश्वत का प्रस्ताव दिया गया कि वे रनवे निर्माण के लिए सबसे कम दर वाली बोली को अस्वीकार कर उससे अधिक दर वाली बोली को मंज़ूरी दे दें. उन्होंने जब इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया तो उनका तबादला एक अन्य कम महत्वपूर्ण पद पर कर दिया गया. ऐसे अनेक प्रसंग इस किताब को रोचक बनाते हैं. लूसे भारत की तरक्की के लिए जिन बातों को ज़रूरी मानते हैं वे हैं – ऊर्जा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन. वे नियोजन विरोधी श्रम कानूनों को भी बदलने पर बल देते हैं
लूसे भारत की चर्चा करते हुए भारत से बाहर भी निकलते हैं. वे यह भी पडताल करते हैं कि भारत और चीन का उभरना दुनिया के भू राजनीतिक मानचित्र को कैसे प्रभावित करेगा. वे बताते हैं कि कैसे भारत और चीन के रिश्तों में बदलाव आया है और कैसे वही अमरीका जो शीत युद्ध के समय भारत को शक़ की निगाहों से देखता था, अब चीन की उभरती ताकत को संतुलित करने के लिए इसके निकट आता जा रहा है.
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मैंने कहा था कि लूसे अपनी इस किताब के कथनों को आंकडों के ज़रिये प्रामाणिक बनाने का प्रयास करते हैं. लेकिन यहां यह समझ लेना भी ज़रूरी है कि भारत जैसे विविधता वाले देश में आंकडे कभी भी सही तस्वीर पेश नहीं कर सकते. यही इस किताब की एक बडी सीमा भी है. किताब की एक दूसरी सीमा इसका शीर्षक है, जो किताब की विषय वस्तु से मेल नहीं खाता. फिर भी, किताब दिलचस्प है और यह बताती है कि दूसरे हमें किस तरह देखते हैं.
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Discussed book:
In Spite of the Gods: The Rise of Modern India
By Edward Luce
Published by: Anchor
Paperback, 416 pages
US $ 14.95
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत 3 जुलाई 2008 को प्रकाशित.
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