Tuesday, July 11, 2017

तबीयत से उछाला एक पत्थर और कर दिया आकाश में छेद!

मंगोलिया की डॉक्टर ओदोंतुया दवासुरेन जब महज़ सत्रह बरस की थीं और घर से काफी दूर लेनिनग्राड में रहकर पढ़ाई कर रही थीं तब फेफड़ों के कैंसर ने पिता को उनसे छीन लिया था. बाद में कभी उन्होंने बताया कि उन्हें इस बात का अब भी  मलाल है कि वे अपने पिता के अन्तिम  दर्शन तक नहीं कर सकीं, और अपनी बड़ी बहन से ही उन्हें यह भी पता चला कि उनके पिता लगातार असह्य वेदना झेलते रहे. इसके कई बरस बाद, जब वे डॉक्टर बन चुकीं तब भी उन्हें अपने असंख्य मरीज़ों के अलावा अपने निकट के लोगों की वेदना का मूक दर्शक बनना पड़ा. उनकी सास उनके साथ ही रहती थीं और ओदोंतुया ने लिवर कैंसर से जूझती,  दर्द से तड़पती और शांत मृत्यु के लिए विकल अपनी सास की पीड़ा को गहराई से महसूस किया. वे उनकी हर तरह से सेवा करतीं लेकिन उन्हें दर्द से निज़ात दिलाने में असमर्थ थीं.

उनकी असमर्थता का एक ख़ास संदर्भ  है. भले ही तब दुनिया के दूसरे देशों में असाध्य रोगों से ग्रस्त मरणासन्न रोगियों की पीड़ा कम करने के लिए ख़ास व्यवस्थाएं (पैलिएटिव केयर)  सुलभ थीं, खुद उनके देश मंगोलिया में उनके लिए सामान्य दर्द निवारकों से अधिक कुछ भी सुलभ नहीं था. यह आकस्मिक ही था कि सन 2000 में डॉक्टर ओदोंतुया को यूरोपियन पैलिएटिव केयर असोसिएशन की एक कॉन्फ्रेंस  में भाग लेने के लिए स्टॉकहोम (स्वीडन) जाने का अवसर  मिला और वहां मिली जानकारियों ने उनमें नई ऊर्जा का संचार कर डाला. तब तक तो वे पैलिएटिव केयर जैसी किसी अवधारणा से ही परिचित नहीं थी. स्वीडन से लौटकर उन्होंने अपने देश के स्वास्थ्य मंत्रालय से जब अपने देश में भी ऐसी ही सुविधाएं सुलभ कराने का अनुरोध किया तो पलट कर उनसे ही पूछा गया कि जब देश में ज़िंदा लोगों के लिए ही पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं देने के संसाधनों का अभाव है तो भला मरणासन्न लोगों को कोई सुविधा देने की बात सोची भी कैसे जा सकती है!

लेकिन एक चिकित्सक होने के नाते ओदोंतुया इस बात से भली भांति परिचित थीं कि मंगोलिया में इस सुविधा की कितनी ज़रूरत है. वे जानती थीं कि उनके देश में लिवर कैंसर से मरने वालों की तादाद वैश्विक औसत से छह गुना ज़्यादा है और इसमें लगातार वृद्धि होती जा रही है. इस तरह के रोगियों का अंत बहुत कारुणिक और कष्टप्रद  होता है. ऐसे में, ओदोंतुया यह मानने लगी थीं कि मृत्यु से पहले की सुखद ज़िंदगी मनुष्य का आधारभूत अधिकार है, और वे इसे दिलाने के लिए लगातार प्रयत्न करती रहीं. देश के स्वास्थ्य मंत्रालय के सामने अपनी बात सशक्त रूप से रखने के लिए उन्होंने मरणासन्न लोगों से उनके घरों पर जाकर मुलाक़ातें की और उनके अनुभवों को फिल्मांकित किया. उन्होंने पाया कि ऐसे बहुत सारे रोगियों को अस्पताल वाले जबरन घर भेज दिया करते हैं और वे असहाय रोगी दर्द से कोई निज़ात न पाकर मृत्यु की मांग तक करने लगते हैं.

आखिर ओदोंतुया के प्रयास  सफल हुए और सन 2002 में मंगोलिया सरकार ने मरणासन्न लोगों को राहत देने के लिए एक राष्ट्रीय पैलिएटिव केयर कार्यक्रम की शुरुआत करने की घोषणा की. इसके बाद से अब तक की प्रगति यह है कि अब उस देश का हर प्रादेशिक अस्पताल यह सुविधा सुलभ कराने लगा है और देश में बहुत सारे होसपिस  केंद्र भी खुल गए हैं. सबसे बड़ी बात यह हुई है कि ऐसे रोगियों को राहत पहुंचाने के लिए मॉर्फिन की आपूर्ति बढ़ा दी गई है. डॉक्टर ओदोंतुया के प्रयासों से पहले मंगोलिया के अधिकारी मॉर्फिन के वितरण में इसलिए कृपणता बरतते थे कि उन्हें भय था कि इसकी सुलभता नशे के प्रसार में सहायक बन जाएगी. लेकिन अब वहां कैंसर के रोगियों को उनकी ज़रूरत के मुताबिक मॉर्फिन दे दी जाती है, और वो भी निशुल्क. ज़ाहिर है कि इससे उनके कष्टों में काफी कमी आई है. ओदोंतुया के प्रयासों से मंगोलिया में हज़ारों डॉक्टरों को प्रशिक्षित किया गया है ताकि वे इस तरह के रोगियों को दर्द निवारण में और सुखपूर्ण अंतिम जीवन बिताने में सहायक बन सकें. खुद डॉक्टर ओदोंतुया अब भी नियमित रूप से ऐसे रोगियों के सम्पर्क में रहती हैं और न सिर्फ उन्हें समुचित  चिकित्सकीय सहायता सुलभ कराती हैं, जब उन्हें लगता है कि अब मृत्य के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा है तो उन्हें मानसिक रूप से मृत्यु के लिए तैयार भी करती हैं.

डॉक्टर ओंदोतुया का यह वृत्तांत एक बार फिर हमें आश्वस्त करता है कि दुनिया में भले लोगों की कमी नहीं है और हमारे कवि दुष्यंत कुमार ने ठीक  ही कहा है कि “कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो.”  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 11 जुलाई, 2017 को प्रकशित आलेख का मूल पाठ.   

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