अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटेन मे शुरु हुई
औद्योगिक क्रांति ने हमारे जीवन को आधारभूत रूप से बदल कर रख दिया. जीवन का हर
पहलू इससे प्रभावित हुआ. कल तक जो काम मनुष्य सिर्फ और सिर्फ अपने हाथों से करता
था, वे
काम आहिस्ता-आहिस्ता मशीनों की मदद से किये जाने लगे. स्वाभाविक ही है कि ऐसा होने
से मनुष्य को बहुत सारे मेहनत-मज़दूरी वाले कामों से मुक्ति मिली और उसका जीवन सुगम हुआ. औद्योगिक
क्रांति का असर केवल मानवीय श्रम तक ही सीमित नहीं रहा, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक
तमाम क्षेत्रों को इसने प्रभावित किया. अपने श्रम और प्रयत्नों को कम कर वे तमाम
काम मशीनों से करवाने के मनुष्य के प्रयास अभी भी थमे नहीं हैं. बल्कि कुछ अर्थों
में तो ये प्रयास और अधिक तेज़ भी हुए हैं. कल तक जिन कामों को मशीनों से करवाने की
कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, अब वे काम भी मशीनों से
करवाये जाने लगे हैं.
ऐसा करने से जहां मनुष्य
के श्रम में काफी कटौती हुई है वहीं एक नई
आशंका भी उत्पन्न हो गई है. समझदार लोग इस बात से चिंतित होने लगे हैं कि अगर यही
क्रम जारी रहा तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि मनुष्य द्वारा किये जाने वाले तमाम
काम मशीनों से ही करवाये जाने लगें. मशीनों को इतना समर्थ बना दिया जाए कि वे उन
सभी कामों को अधिक दक्षता से और अपेक्षाकृत कम खर्चे में करने लग जाएं! अगर वाकई
ऐसा हो गया तो क्या सारी मानवता बेरोज़गार नहीं हो जाएगी? बहुत सारे लोग अभी से यह सोच कर आशंकित हैं कि कल को उनका काम मशीनें करने
लगेंगी और उनके पास करने को कुछ रह ही नहीं जाएगा! इसी आशंका के तहत ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के फ्यूचर ऑफ ह्युमेनिटी (मानवता
का भविष्य) संस्थान ने दुनिया के 352 शीर्षस्थ
वैज्ञानिकों से जवाब मांग कर उन जवाबों के आधार पर यह अनुमान लगाने का प्रयास किया
है कि कितने बरसों में मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले सारे काम मशीनें करने
लगेंगी. इस पड़ताल में पाया गया है कि फिलहाल इस बात की पचास प्रतिशत सम्भावना है
कि आगामी एक सौ बीस बरसों में मशीनें
मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले
सारे काम करने लगेंगी. इस निष्कर्ष से उन सभी को आश्चर्य हुआ है जो यह सोच कर
भयभीत थे कि ऐसा निकट भविष्य में ही हो जाएगा!
वैज्ञानिकों का सोच यह है
कि मशीनें मेहनत का काम तो आसानी से कर लेती हैं लेकिन जहां विवेक की आवश्यकता
होती है वहां वे पिछड़ जाती हैं, हालांकि कृत्रिम बुद्धि
(आर्टीफीशियल इण्टेलीजेंस) का प्रयोग बहुत तेज़ी से बढ़ता जा रहा है. अब यही बात
देखें कि सन दो हज़ार दस में एक रोबोट एक साधारण तौलिये को तह करने में उन्नीस मिनिट लगा रहा था वहीं दो
बरस बाद ही वह पांच मिनिट में एक जीन्स को और छह मिनिट में एक टी शर्ट को तहाने
लगा था. कृत्रिम बुद्धि का प्रयोग करते हुए सन दो हज़ार सत्ताइस तक मानव रहित ट्रक
चालन की कल्पना की जा रही है.
हममें से बहुतों ने यह बात
नोट की होगी कि जब हम किसी ऑनलाइन
स्टोर पर कोई चीज़ तलाश करते हैं तो
तुरंत हमें उससे मिलती-जुलती चीज़ों के लिए सुझाव मिलने लगते हैं, और यह काम मानव नहीं करता है. इसी कामयाबी से उल्लसित होकर यह कल्पना भी
की जाने लगी है कि सन दो हज़ार तरेपन तक आते-आते शल्य चिकित्सक का काम रोबोट करने
लगेंगे और उससे भी चार बरस पहले यानि सन उनचास तक मशीनें ही बेस्ट सेलिंग उपन्यास
भी लिखने लग जाएंगी! इस काम की शुरुआत तो हो ही चुकी है. गूगल अपने यंत्रों को
रोमाण्टिक उपन्यास और समाचार लेख लिखने के लिए प्रशिक्षित कर रहा है. बेंजामिन
नामक उनका एक यंत्र छोटी-छोटी साइंस फिक्शन पटकथाएं लिखने भी लगा है.
लेकिन सबसे अच्छी बात यह
है कि इस क्षेत्र में जो लोग काम कर रहे हैं वे अपने लक्ष्यों को लेकर बहुत स्पष्ट
हैं. उनके मन में यह बात एकदम साफ़ है कि यह तकनीक मनुष्य के लिए पूरक बन कर आएगी, न कि उसका विकल्प बनकर. उनके मन में यह बात भी बहुत साफ़ है कि तकनीक कभी
भी मनुष्य को विस्थापित नहीं कर सकती है. और यह सब तब जबकि वे यह भी जानते हैं कि
जिस गति से तकनीकी विकास हो रहा है उसे देखते हुए ऐसा कोई काम नहीं बचने वाला है
जो मनुष्य करता हो और जिसे मशीन न कर सके. लेकिन ये लोग मज़ाक-मज़ाक में एक गम्भीर बात
कह देते हैं. इनका कहना है कि सबकुछ हो चुकने के बाद भी कुछ काम तो मनुष्य के लिए
ही बच रहेंगे, जैसे गिरजाघर के पादरी का काम. खुद मनुष्य यह
नहीं चाहेगा कि किसी चर्च में उसे हाड़-मांस के पादरी की बजाय रोबोट मिले!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 जुलाई, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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