यह पूरा वृत्तांत मैं आपको प्रजातंत्र के
असली रूप से परिचित कराने के लिए लिख रहा हूं. घटना दुनिया के बहुत छोटे लेकिन
बेहद खूबसूरत देश स्विटज़रलैण्ड की है. इस वृत्तांत से पता चलता है कि वहां किस तरह
एक सामान्य व्यक्ति का सोच पूरे देश को
जनमत संग्रह के लिए प्रेरित कर सकता है.
जनतंत्र की आधारभूत परिकल्पना भी यही है कि हरेक की बात सुनी जाए. आपको थोड़ा पीछे यानि
सन 2010 में ले चलता हूं. स्विटज़रलैण्ड का एक उनसठ वर्षीय किसान आर्मिन कापौल अपने
देश के संघीय कृषि कार्यालय को एक पत्र लिखता है और जब कुछ इंतज़ार के बाद उसे लगता
है कि उसके पत्र पर कोई हलचल नहीं हुई है तो वह एक अभियान छेड़ कर अपने प्रिय
मुद्दे के समर्थन में एक लाख लोगों के हस्ताक्षर जुटाता है ताकि उस मुद्दे पर जनमत
संग्रह कराया जा सके. मुद्दा क्या था? रोचक बात यह है कि आर्मिन
कापौल ने यह संघर्ष अपने या इंसानी हितों के लिए न करके अपने देश की गायों के लिए
किया. स्विटज़रलैण्ड में बछड़े के जन्म लेने
के तीसरे चौथे सप्ताह में ही उसके सींग काट दिये जाते हैं और फिर उसका विकास बिना
सींग वाले प्राणी के रूप में ही होता है. वहां यह माना जाता है कि सींग वाली गायों
का रख-रखाव ज़्यादा महंगा पड़ता है. इसके अलावा, जब वे किसी बाड़े में रहती
हैं तो उनके सींग कई बार अन्य गायों के लिए घातक भी साबित हो जाते हैं. इसलिए वहां
बिना सींग वाली गायों को पालना ज़्यादा सुगम और व्यावहारिक माना जाता रहा है. लेकिन
पिछले कुछ समय से विभिन्न संगठनों ने इस कर्यवाही को पशुओं की गरिमा के विरुद्ध
मान कर इसके खिलाफ़ आवाज़ उठानी शुरु की. आर्मिन कापौल का अभियान भी इसी आवाज़ का एक
हिस्सा है.
आर्मिन और उसके साथी महसूस
करते हैं कि सींगों का होना न केवल गायों की पाचन शक्ति में मददगार होता है, इनसे उनकी सेहत और
पारस्परिक सम्पर्क में भी मदद मिलती है. वहां बाकायदा अध्ययन कर बहुत सारी गायों पर सींग न होने के दीर्घकालीन
दुष्परिणाम भी देखे गए हैं. लेकिन यह बात तो स्वयंसिद्ध है कि अगर किसान सींग वाली
गायें पालेंगे तो उनके रख रखाव का खर्च बहुत बढ़ जाएगा. इसलिए स्वाभाविक ही है कि
जब बात पैसों की होगी तो किसान गायों की गरिमा और उनकी सेहत की बजाय अपनी जेब को देखेंगे और वे उनके
सींग निकालने की प्रक्रिया ज़ारी रखना चाहेंगे. और इसलिए आर्मिन कार्पोल और उनके
साथी चाहते हैं कि आर्थिक कारणों से किसान
गायों को सींग विहीन करने के लिए मज़बूर न हों. यह तभी सम्भव होगा जब सरकार सींग
वाली गायें रखने के लिए किसानों को सब्सिडी देने का फैसला करे. यानि यह मुद्दा गायों से होता हुआ सब्सिडी
पर जाकर टिकता है. सब्सिडी की अनुमानित राशि है डेढ़ करोड स्विस फ्रैंक. बता दूं कि
एक स्विस फ्रैंक करीब सत्तर रुपयों के बराबर होता है. स्विस सरकार फिलहाल यह
अनुदान राशि खर्च करने के मूड में नहीं है, और इसलिए वह तर्क दे रही
है कि सींग न केवल गायों के लिए, बल्कि उनके पालकों के लिए भी ख़तरनाक होते हैं और
सींग वाली गायों को रखने के लिए ज़्यादा जगह की भी ज़रूरत होती है. स्विटज़रलैण्ड के
कृषि मंत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि पशु अधिकारों के समर्थक यह मुद्दा उठाकर अपने ही पाले में गोल करने पर
उतारू हैं.
स्विटज़रलैण्ड में जनमत
संग्रह की पुष्ट परम्परा है और वहां लोगों का रुझान आम तौर पर स्पष्ट नज़र भी आ
जाता है. लेकिन यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर तराज़ू के दोनों पलड़े लगभग समान स्थिति
में हैं. एक तरफ जहां ऑर्गेनिक फूड असोसिएशन और अनेक पशु संरक्षण समूह इस मुद्दे का खुलकर
समर्थन कर रहे हैं वहीं वहां की शक्तिशाली स्विस फार्मर्स यूनियन ने अपने सदस्यों से कह दिया है कि वे जिस
तरफ चाहें उस तरफ वोट दें. इसका परिणाम यह हुआ है कि एक सर्वे में 49 प्रतिशत लोग
सब्सिडी का समर्थन करते पाए गए तो उनसे मात्र तीन प्रतिशत कम लोग सब्सिडी देने का
विरोध करने वाले पाए गए.
जनमत संग्रह हो जाएगा और
उसके परिणाम भी सामने आ जाएंगे. लेकिन हम भारतीयों के लिए यह वृत्तांत दो
महत्वपूर्ण सबक छोड़ जाएगा. एक तो यह कि स्विस लोग अपनी गायों से किस हद तक प्रेम
करते हैं और उनकी छोटी-से छोटी बात को लेकर कितने व्यथित और उद्वेलित होते हैं.
उनके लिए गाय नारेबाजी और लड़ाई झगड़े का विषय न होकर असल लगाव का मामला है. और
दूसरी बात यह कि वहां प्रजातंत्र का असली और वरेण्य रूप मौज़ूद है जो हरेक की बात
सुनता और उस पर अपनी राय देने का हक़ देता है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 27 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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