सन 2004 में एलेन हॉपकिंस का एक उपन्यास आया था – क्रैंक. इस बहुचर्चित रहे उपन्यास में लेखिका ने एक लडकी क्रिस्टीना ज्योर्जिया स्नो की करुण कथा कही थी. यह लडकी ड्रग के मायाजाल में फंस कर अपना सर्वस्व लुटा बैठती है. एक अन्य नशेडी क्रिस्टीना से बलात्कार करता है और वह गर्भवती हो जाती है. इस उपन्यास ने पाठकों को इतना अधिक प्रभावित किया कि उन्होंने लेखिका से सम्पर्क कर जानना चाहा कि आखिर क्रिस्टीना का क्या हुआ? इस जिज्ञासा के मूल में यह तथ्य भी था कि उपन्यास स्वयं लेखिका की बेटी की आपबीती पर आधारित था.
अब इसी उपन्यास क्रैंक की अगली कडी (सीक्वेल) के रूप में लेखिका ने अपने पाठकों की जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास किया है. सन 2007 में प्रकाशित ग्लास में एलेन हॉपकिंस ने क्रैंक की ही कथा को आगे बढाया है. यहीं यह बताता चलूं कि क्रैंक और ग्लास शब्द ड्रग्स के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं. कहना गैर ज़रूरी है कि ग्लास भी लेखिका की आपबीती पर ही आधारित है. ग्लास की कथा क्रैंक की कथा जहां खत्म होती है उसके एक साल बाद से शुरू होती है. नायिका क्रिस्टीन अपने नवजात शिशु के साथ मां के घर लौट आई है. वह अब ड्रग के सम्मोहन से मुक्त होने का प्रयास कर रही है. उसने खुद को नवजात शिशु में रमा लिया है. डाइपर बदलने और स्तनपान कराने में उसे अपने जीवन की सार्थकता दिखाई देने लगती है.
जीवन ठीक-ठाक चल रहा है. ड्रग लेने की चाहत यदा-कदा उसे व्याकुल करती है और वह बलपूर्वक उस चाहत को दूर धकेलती है. उसी दौरान उसे अपने जीवन में ऊब महसूस होने लगती है. उसे यह भी खयाल आता है कि प्रसव ने उसकी देह को बेडौल और अनाकर्षक बना दिया है. वह स्थूल हो गई है. इस प्रतीति से उसकी ऊब और खीझ और बढ जाती है. सोचती है, क्यों न इस सबसे निज़ात पाने के लिए थोडी-सी ड्रग ले ली जाए! मन में अतीत की कटु स्मृतियां झिलमिलाती हैं. वह दृढ निश्चय करती है कि अब ड्रग को अपना स्थायी साथी नहीं बनाएगी. लेकिन एकाध बार ले लेने में क्या हर्ज़ है? शायद इससे उसकी काया भी फिर से सुडौल हो जाए. यह भी खयाल आता है कि एकाध बार के ड्रग सेवन से उसे अपने भविष्य को संवारने की ताकत मिल जाएगी. वह यह भी सोचती है कि उसका जो गडबड वर्तमान है, उससे भी, भले ही कुछ देर को ही सही, पलायन करने का सुख भी मिल जाएगा.
नायिका की इसी उहापोह का सशक्त चित्रण इस उपन्यास की जान है. क्रिस्टीन का आत्म संघर्ष जिस खूबसूरती से अंकित किया गया है वह अद्भुत है. यहीं यह भी ज़िक्र कर दूं कि क्रैंक और ग्लास दोनों ही उपन्यास पद्यबद्ध हैं. यानि पूरे उपन्यास गद्य में नहीं, पद्य में रचे गए हैं. लेखिका के चित्रण की खूबसूरती और ताकत इस बात में है कि जब आप ग्लास को पढते हैं तो जैसे आप खुद क्रिस्टीन ही बन जाते हैं. इसी को भारतीय काव्य शास्त्र में साधारणीकरण कहा गया है. क्रिस्टीना का हर कृत्य आपको वाज़िब लगता है. मुझे तो इस उपन्यास को पढते हुए बार-बार भगवतीचरण वर्मा के प्रख्यात उपन्यास चित्रलेखा की ये पंक्तियां याद आती रहीं : हम न पाप करते हैं, न पुण्य करते हैं. हम तो वह करते हैं जो हमें करना पडता है.
वास्तव में क्रिस्टीना ने जो किया वह करना उसकी विवशता ही तो थी. और बहुत बार जीवन में ऐसा होता है कि आप जानते हैं कि आप गलत कर रहे हैं, फिर भी वैसा करने से खुद को रोक नहीं पाते हैं. क्रिस्टीना फिर से ड्रग के उस मकडजाल में फंस जाती है, जिससे वह बडी मुश्किल से निकली थी. उसकी देह, उसका स्वास्थ्य, उसका परिवार सब, न चाहते हुए भी, क्रमश: ड्रग को उसके लिए अपरिहार्य बना देते हैं. मां उसे घर से निकाल देती है, हालांकि उसकी संतान को अपने पास रख लेती है. उपन्यास जहां खत्म होता है वहां यह साफ लगता है कि अब निश्चय ही लेखिका इस सीक्वेल में तीसरी कडी भी जोडेगी.
ड्रग सेवन पश्चिम में एक भयावह रूप ले चुका है. दुर्भाग्य से भारत में भी इसका प्रसार होने लगा है. ऐसे में यह उपन्यास ग्लास हमें ड्रग के भयावह दुष्परिणामों से आगाह करता है – यह बात रेखांकनीय है.
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Discussed book:
Glass
By Ellen Hopkins
Hardcover, 688 Pages
Published By Margaret K.McElderry
US $ 16.99
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 24 जनवरी 2008 को प्रकाशित.
2 comments:
क्रिस्टीना के बारे में और उसकी ऊहापोह के बारे में पढकर अब तो मूल पुस्तक को पढने को जी ललचा रहा है।
आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूं.
किताब वाकई मार्मिक है.
एक बार फिर से आभार.
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