Thursday, January 10, 2008

हंसाते-हंसाते रुला देने वाला उपन्यास

पडौसी देश पाकिस्तान से हाल ही में आया ‘खोया पानी’ व्यंग्य(और हास्य भी) का एक अनूठा उपन्यास है. टोंक में जन्मे और अब लन्दन में रह रहे मुश्ताक़ अहमद यूसुफी का यह उपन्यास (हिन्दी अनुवाद: तुफैल चतुर्वेदी) पांच कहानी नुमा निबन्धों या निबन्ध नुमा कहानियों से बुना हुआ है. कहानियां हैं हवेली, धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा, स्कूल मास्टर का ख्वाब, खण्डहर में दीवाली, और कार, काबुलीवाला और अलादीन बेचिराग. उपन्यास में कोई एक सीधी सपाट कथा नहीं है, लेकिन जो वृत्तांत है उससे मुख्य चरित्र गुस्सैल किबला यानि बिशारत के ससुर, खुद बिशारत फारूक़ी और मुल्ला अब्दुल मन्नान आरसी भिक्षु और उनका परिवेश कुछ इस तरह साकार होते है आपके मुंह से एक साथ ही ‘वाह’ और ‘आह’ दोनों निकल पडते हैं. उपन्यास की एक बडी ताकत इसकी चुस्त-चपल और हास्य-व्यंग्य से भरपूर भाषा है. कुछ बानगियां देखें :
•शेर को इस तरह नाक से गाकर सिर्फ वही मौलवी पढ सकता है जो गाने को वाकई हराम समझकर गाता हो. किसी शख्स को गाने, सूफीज़्म, फारसी और मौलवी चारों से एक ही समय में नफरत करानी हो तो मसनवी के दो शेर इस धुन में सुनवा दीजिए.
•शेरो-शायरी या नोविलों में देहाती ज़िन्दगी को रोमांटिसाइज़ करके उसकी निश्छलता, सादगी, सब्र और प्राकृतिक सौन्दर्य पर सर धुनना और धुनवाना और बात है लेकिन सचमुच किसी किसान के आधे पक्के या मिट्टी गारे के घर में ठहरना किसी शहरी इण्टेलेक्चुअल के बस का रोग नहीं.
•भोगे हुए यथार्थ के पर्दे में जितनी दाद तवायफ को उर्दू फिक्शन लिखने वालों से मिली उतनी अपने रात के ग्राहकों से भी न मिली होगी.
•बिशारत स्तब्ध रह गये, मर्द ऐसे मौकों पर खून कर देते हैं और नामर्द खुदकुशी कर लेते हैं. उन्होंने यह सब नहीं किया, नौकरी की जो क़त्ल और खुदकुशी दोनों से कहीं ज़ियादा मुश्क़िल है.
•अरे साहब! मैं भी एक बिज़नेसमैन को जानता हूं. उनके घर पर कालीनों के लिये फर्श पर जगह न रही तो दीवारों पर लटका दिये. कालीन हटा-हटा कर मुझे दिखाते रहे कि इनके नीचे निहायत कीमती रंगीन मारबल है.

लेखक का सबसे बडा कौशल इस बात में है कि वे हंसाते-हंसाते अचानक उदास कर देते हैं. मार्मिक चित्रण में तो वे बेजोड हैं. कुछ बानगियां देखें :
•यह कैसी बस्ती है. जहां बच्चे न घर में खेल सकते हैं न, बाहर. जहां बेटियां दो गज़ ज़मीन पर एक ही जगह बैठे-बैठे पेडों की तरह बडी हो जाती हैं, जब ये दुल्हन ब्याह के परदेस जायेगी तो इसमे मन में बचपन और मायके की क्या तस्वीर होगी? फिर खयाल आया, कैसा परदेस, कहां का परदेस. यह तो बस लाल कपडे पहन कर यहीं-कहीं एक झुग्गी से दूसरी झुग्गी में पैदल चली जाएगी. यही सखी सहेलियां “काहे को ब्याही बिदेसी रे! लिखी बाबुल मोरे!” गाती हुई इसे दो गज़ पराई ज़मीन के टुकडे तक छोड आयेंगी. फिर एक दिन मेंह बरसते में जब ऐसा ही समां होगा, वहां से अंतिम दो गज़ ज़मीन की ओर डोली उठेगी और धरती का बोझ धरती की छाती में समा जायेगा.
•कब्रिस्तान भी सीख लेने की जगह है. कभी जाने का मौक़ा मिलता है तो हर कब्र को देख ध्यान आता है कि जिस दिन इसमें लाश उतरी होगी, कैसा कुहराम मचा होगा. रोने वाले कैसे बिलख-बिलख, कर तडप-तडप कर रोये होंगे. फिर यही रोने वाले दूसरों को रुला-रुला कर यहीं बारी-बारी मिट्टी का पैबन्द होते चले गये. साहब ! यही सब कुछ होना है तो फिर कैसा शोक किसका दुखा, काहे का रोना.

या ये सूक्ति नुमा वाक्य देखिये :
•देहात में वक़्त भी बैलगाडी में बैठ जाता है.
•जिन कामों में मेहनत अधिक पडती है लोग उन्हें नीचा और घृणित समझते हैं.
•आप रिश्वतखोर, व्यभिचारी और शराबी को हमेशा मिलनसार और मीठे स्वभाव का पायेंगे. इस वास्ते कि वो अक्खडपना, सख्ती और बदतमीज़ी एफोर्ड कर ही नहीं सकता.
•आज काम तो बडे हो रहे हैं, मगर आदमी छोटे हो गए हैं.

उपन्यास में कथाओं-उपकथाओं के शीर्षक देने में भी गज़ब की कलाकारी है. जानी-पहचानी गज़लों, गीतों और मिस्रों को शीर्षक बना कर जो लज़्ज़त पैदा की गई है, उसका क्या कहना! हम चुप रहे, हम रो दिये; कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या; जग में चले पवन की चाल; कोई दीवार सी गिरी है अभी; एक उम्र से हूं लज़्ज़ते-गिरियां से भी महरूम; कश्का खेंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया; वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है आदि.

लेखक बीते ज़माने की तस्वीर बनाता है, खुद उसके मज़े लेता है, आपको हंसाता है, व्यंग्य करता है और अचानक कोई ऐसी बात कह जाता है कि आपकी आंखें नम हो जाती हैं. उसकी सहानुभूति सर्वत्र वंचित के साथ है. कहीं भी वह उसके प्रति क्रूर नहीं होता. उपन्यास अतीत और वर्तमान के बीच बहुत सहजता से आता-जाता है. यह उपन्यास एक ऐसी रचना है जिसकी उत्कृष्टता का असल अनुभव इसे खुद पढकर ही किया जा सकता है. जब आप इसे पढते हैं तो इसके एक-एक वाक्य, एक-एक प्रसंग के साथ डूबते-उतरते हैं, लेकिन जब पढकर खत्म करते हैं तो बरबस फिराक़ गोरखपुरी याद आ जाते हैं :
आए थे हंसते खेलते मैखाने में फिराक़
जब पी चुके शराब तो संज़ीदा हो गए!
◙◙◙


चर्चित पुस्तक:
खोया पानी (अद्भुत व्यंग्य उपन्यास)
मुश्ताक़ अहमद यूसुफी
अनुवाद : तुफैल चतुर्वेदी
प्रकाशक : लफ्ज़, प-12, नर्मदा मार्ग, सेक्टर – II, नोएडा-201301
पहला संस्करण : 2007
पृष्ठ : 348
मूल्य : 200.00

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत दिनांक 10 जनवरी 2008 को प्रकाशित.

2 comments:

bhuvnesh sharma said...

बहुत समय से इस पुस्‍तक की चर्चा है ब्‍लाग जगत में. आज आपकी समीक्षा पढ़कर इसे पढ़ने की इच्‍छा और भी बलवती हो गई. जल्‍द ही मंगाता हूं.

Yunus Khan said...

वाह हमें भी पढ़नी है ये पुस्‍तक । मंगवाई जायेगी जल्‍दी ही । डॉक्‍टर साहब आप अपने चिट्ठे पर फीड का बटन लगाईये ताकि ऑटोमेटिक तरीके से हम गूगल रीडर पर पढ़ सकें और संग्रहीत कर सकें ।
क्‍योंकि आपको शायद अंदाजा भी नहीं कि आप कितना बढि़या काम कर रहे हैं । धन्‍यवाद ।