मध्य यूरोप का एक छोटा-सा
देश हंगरी इन दिनों एक अजीबो-गरीब संकट से जूझ रहा है. जब मैं अजीबो-गरीब संकट की
बात कर रहा हूं तो मेरे मन में अपने देश के हालात भी साथ-साथ चहलकदमी कर रहे हैं.
ऑस्ट्रिया,
स्लोवेनिया, क्रोएशिया, रोमानिया, सर्बिया और
स्लोवाकिया जैसे देशों से चारों तरफ घिरा हुआ यह देश अपने सुदीर्घ इतिहास, उच्च आय वाली
मौज़ूदा अर्थ व्यवस्था और बेहद मज़बूत पर्यटन उद्योग के लिए जाना जाता है. हंगरी की
राजधानी बुडापेस्ट की गणना यूरोप के सबसे खूबसूरत शहरों में होती है और हर बरस कोई 44 लाख लोग यह शहर घूमने आते
हैं. इस वजह से इसे यूरोप के छठे सर्वाधिक लोकप्रिय शहर का दर्ज़ा हासिल है. देश के लोग खूब सुखी हैं. यहां की उन्नत
व्यवस्थाओं की वजह से लोगों को बहुत आसानी से स्वच्छ पेयजल सुलभ है और वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट में इस देश को 69 वां स्थान प्राप्त
है.
आप भी सोच रहे होंगे कि जब
सब कुछ इतना अच्छा है तो फिर संकट क्या है? संकट है जनसंख्या का. और
इसीलिए मुझे अपना भारत याद आ रहा है. हंगरी का संकट हमसे एकदम उलट है. सन सत्तर से
ही यहां की जनसंख्या लगातार घटती जा रही है. कभी इस देश की जनसंख्या एक करोड़ दस
लाख थी,
वह
अब घटकर अट्ठानवे लाख चार हज़ार रह गई है. और यह बात हंगरी की सरकार को बेहद परेशान
किए हुए है. प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ने तो यहां तक कह दिया है कि अगले पांच
बरसों तक उनकी सरकार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य ही इस जनसंख्या की गिरावट को
रोकने का रहेगा. असल में हंगरी की सरकार की चिंता केवल घटती जनसंख्या को लेकर ही
नहीं है. समस्या यह भी है कि वहां युवाओं की तुलना में वृद्धों की संख्या लगातार
बढ़ती जा रही है. हंगरी में आयु सम्भाव्यता खासी ऊंची यानि 76.1 वर्ष है. विशेषज्ञों
का अनुमान है कि बहुत जल्दी यह बढ़कर 86.7 वर्ष तक जा पहुंचेगी. इसकी वजह से सन
1990 में जहां इस देश में प्रति एक हज़ार
शिशु (0-14 वर्ष) चौंसठ साल की उम्र वाले पैंसठ लोग हुआ करते थे, अब उनकी संख्या बढ़कर
एक सौ अट्ठाइस तक जा पहुंची है. इसके विपरीत हाल के बरसों में चौदह वर्ष तक के
बच्चों की संख्या में बहुत ज़्यादा कमी आई है. ज़ाहिर है इन बदलावों का असर यहां की
उत्पादकता पर पड़ रहा है. मेहनत करने वाले युवा घटते जा रहे हैं और बहुत कम काम कर
सकने वाले वृद्ध बढ़ते जा रहे हैं.
हाल में संयुक्त राष्ट्र
संघ ने विश्व जनसंख्या सम्भावनाओं के संशोधित अनुमान की जो रिपोर्ट प्रकाशित की है
उसमें भी इन बदलावों पर चिंता ज़ाहिर करते हुए यह भयावह आशंका व्यक्त की गई है कि
अगर कोई बड़ा चमत्कार न हुआ तो इस शताब्दी के आखिर तक केंद्रीय और मध्य यूरोप की पूरी जनसंख्या ही विलुप्त हो
जाएगी. इसी रिपोर्ट में यह डर भी व्यक्त किया गया है कि सन 2100 तक हंगरी की जनसंख्या
घटकर मात्र साठ लाख रह जाएगी. और ऐसा तब होगा जब इस शताब्दी के अंत तक धरती की जनसंख्या बढ़कर 11.2 बिलियन हो जाएगी. इस रिपोर्ट का यह
आकलन हमारे लिए विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि सन 2017 से 2050 तक दुनिया की
जनसंख्या की कुल वृद्धि सिर्फ नौ देशों में सिमट कर रह जाएगी. ये नौ देश हैं: भारत, नाइजीरिया, कॉंगो गणराज्य, पाकिस्तान, इथोपिया, तंजानिया गणतंत्र, अमरीका, युगाण्डा और
इण्डोनेशिया.
हंगरी की जनसंख्या समस्या
का एक आयाम यह भी है कि वहां की सरकार इस बात को अधिक पसंद नहीं करती है कि अन्य
देशों के लोग वहां आकर बसें. इसलिए फिलहाल तो हंगरी के वैज्ञानिक जहां इस जुगत में हैं कि कैसे बढ़ी उम्र में भी
लोगों की कार्यक्षमता को बनाए रखा जाए, वहां की सरकार अपने विभिन्न प्रयासों के
माध्यम से लोगों को अधिक संतानोत्पत्ति के लिए प्रेरित करने में जुटी हुई है. इस
बात पर विमर्श ज़ारी है कि क्यों नहीं तीन से अधिक संतानों को जन्म देने वाली
माताओं को आजन्म आयकर से मुक्ति प्रदान कर दी जाए. इस बात पर भी विचार चल रहा
है कि माताओं को तो मातृत्व अवकाश मिलता ही है, अब पिताओं को भी पैतृक अवकाश दिया जाने लगे. हंगरी
में एक व्यवस्था यह भी है कि सरकार नियमित
रूप से जनता से विचार विमर्श कर भावी
नीतियां तै करती है. इस विमर्श में भी जनसंख्या की कमी से निबटने के विभिन्न
उपायों पर चर्चाएं होती रहती हैं और उम्मीद की जा रही है कि अगले विमर्श से जो
सुझाव आएंगे वे देश की जनसंख्या विषयक नीतियां निर्धारित करने में प्रयुक्त किए
जाएंगे. हो सकता है हंगरी और भारत की स्थितियों की तुलना करते हुए आपको भी निदा
फाज़ली साहब का यह शे’र याद आ जाए:
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो
कहीं आसमाँ नहीं मिलता.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय
अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के
अंतर्गत मंगलवार, 19 फरवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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