उन प्रसाधन कक्षों में, जिनका रख-रखाव सलीके से किया गया हो, दर्पण का
होना सामान्य और स्वाभाविक बात है. अपने देश में सरकारी भवनों की बात अगर छोड़ दें
तो मॉल्स वगैरह के साफ-सुथरे और बेहतर तरीके से संधारित टॉयलेट्स में दर्पण
अनिवार्यत: होते हैं. और दर्पणों की जितनी ज़रूरत सार्वजनिक स्थलों के प्रसाधन
कक्षों में होती है, उतनी ही स्कूलों के प्रसाधन कक्षों में
भी होती है. अगर थोड़ा हास्य स्वीकार्य हो तो यह और जोड़ दूं कि दर्पण की ज़रूरत
छात्रों के प्रसाधन कक्षों से भी अधिक छात्राओं के प्रसाधन कक्षों में होती है. इस
‘प्रसाधन कक्ष में दर्पण’ विषयक चर्चा
से भारत के सरकारी स्कूलों को अलग कर लेना बेहतर होगा. ख़ास तौर पर लड़कियों के
स्कूलों को, क्योंकि उनमें दर्पण का सवाल तो तब उठेगा जब
प्रसाधन कक्ष होंगे. लेकिन सब जगह तो ऐसे हालात नहीं हैं. ख़ास तौर पर अमरीका जैसे
देश में, जहां सर्वत्र साफ सुथरे प्रसाधन कक्ष अपवाद नहीं
नियम की तरह मौज़ूद हैं. तो आज चर्चा इसी अमरीका
के कैलिफोर्निया राज्य में स्थित एक हाई स्कूल की. पिछले महीने वहां के लागुना
हिल्स हाई स्कूल में जो बदलाव हुआ,
जिसकी चर्चा आज सर्वत्र हो रही है.
इस स्कूल की छात्राओं के प्रसाधन कक्ष से दर्पण हटा दिये गए.
उनकी जगह छोटी-छोटी पट्टिकाएं लटका दी गईं, जिनपर कुछ खूबसूरत जुमले लिखे हुए
थे. मसलन: “आप खूबसूरत हैं. आप मुकम्मल हैं. आप महत्वपूर्ण हैं. आप बहुत अच्छी
हैं. आप सबसे अलहदा हैं. आप स्मार्ट हैं. आप विलक्षण हैं. आप अकेली नहीं हैं” वगैरह.
कहना अनावश्यक है कि ये सारे जुमले सकारात्मक हैं और जो इन्हें पढ़ेगी उनमें आशा, उल्लास और ऊर्जा का संचार होगा. इस मंज़र की कल्पना
कीजिए कि आप दर्पण देखने को आगे बढ़ते हैं, उम्मीद करते हैं
कि उसमें अपना चेहरा देखेंगे लेकिन वहां आपके चेहरे की बजाय आपको यह संदेश मिलता
है कि आप खूबसूरत हैं! कैसा लगेगा आपको? जो जवाब आपकी ज़ुबां
पर आएगा, कदाचित वही भाव इस स्कूल की छात्रा सब्रीना के मन
में उस वक़्त रहा होगा, जब उसने अपने स्कूल के छात्रा प्रसाधन कक्ष में यह
बदलाव लाने के बारे में सोचा होगा. यह सत्रह वर्षीय लड़की अपने स्कूल में काइण्डनेस
क्लब नामक एक गतिविधि का संचालन करती है और इसी गतिविधि के अंतर्गत उसने स्कूल में
एक सप्ताह मनाया, जिसका शीर्षक था: ‘व्हाट
इफ...’ यानि
क्या हो अगर ऐसा हो. और योजना बनाई कि इस सप्ताह के हर दिन वो अपने सहपाठियों को
एक संदेश देगी. जैसे, एक दिन उसने यह संदेश दिया कि ‘क्या हो अगर हम अधिक प्रेम से रहें!’ और यह सप्ताह
मनाने के लिए इस तरह के संदेश तैयार करते हुए उसने सोचा कि क्यों न इन संदेशों को
प्रसाधन कक्ष में लगा दिया जाए? अपने स्कूल प्रशासन से भी
उसे सहमति और सहयोग हासिल हुए और जैसा बाद में स्कूल की गतिविधियों की
डाइरेक्टर चेल्सिया मैक्सेल ने कहा,
सबरीना ने उस सेमेस्टर के लिए इस बात को अपना लक्ष्य ही बना लिया कि वो पूरे स्कूल
परिसर में सकारात्मक संदेशों का प्रसार करेगी. और इस तरह जो गतिविधि सिर्फ एक
सप्ताह के लिए शुरु की गई थी, उसके स्वागत से प्रफुल्लित होकर स्कूल प्रशासन ने तै
किया है कि वे इसे ज़ारी रहने देंगे. इस बारे में खुद सबरीना ने जो कहा है वो ग़ौर
तलब है. उसने कहा है कि “मैंने यह कभी नहीं सोचा है कि मैं ऐसा कुछ कर रही हूं
जिससे औरों की ज़िंदगी प्रभावित हो. मैं तो बस यह जानती हूं कि मेरे इस काम से उनका
एक दिन थोड़ा ज़्यादा उजला हो सकता है या उनका मनोबल थोड़ा बढ़ सकता है. लेकिन मुझे
नहीं लगता कि इस काम का कोई बहुत बड़ा असर
होगा.” लेकिन सबरीना ने इससे आगे जो कहा है वो बहुत महत्वपूर्ण है. उसने कहा
है कि “हमारे इन संदेशों ने लोगों को यह याद रखने में मदद की है कि हम में से हरेक
खूबसूरत है, हरेक महत्वपूर्ण है, हरेक बेहद अच्छा है और हरेक के साथ समानता का
बर्ताव किया जाना चाहिए. मैंने ऐसा इस कारण
किया है कि मैं इस बात को लेकर बेहद जुनूनी हूं कि हरेक महत्वपूर्ण है और हरेक का
खयाल रखा जाना चाहिए.”
लेकिन खूब सराहे गए इस
प्रयास को सभी ने स्वीकार नहीं किया है. कुछ लोगों का कहना है कि भले ही यह काम
नेक इरादों से किया गया हो, दर्पण को हटाकर हम यथार्थ की अनदेखी करने का ग़लत काम
कर रहे हैं. ऐसे लोग चाहते हैं कि सकारात्मकता और यथार्थ से आंख मिलाने से कतराने
को अलग-अलग करके देखा जाए. और भी कुछ बातें कही गई हैं. यह सब पढ़ते हुए हो सकता
है, आपको वो गाना याद आ जाए: कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 11 अप्रेल, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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