लेखकों और विशेष रूप से हिंदी लेखकों की यह शाश्वत शिकायत है कि लोगों में
पढ़ने की आदत घटती जा रही है. यह शिकायत बीस-तीस बरस पहले भी की जाती थी, आज भी की जाती है. किताब खरीद कर पढ़ने के बारे में तो इस
तरह की शिकायतें और भी ज़्यादा की जाती हैं. लेकिन इन शिकायतों के बरक्स यह भी एक
यथार्थ है कि खूब लिखा जा रहा है, खूब लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं, लोग लेखकों को देख-सुन रहे हैं और पुस्तक मेलों में किताबें बिक भी रही
हैं. सच बात यह है कि शिकायतें भी सही हैं और सकारात्मक बातें भी सही हैं. मुझे यह
भी लगता है कि आज पहले से बहुत ज़्यादा किताबें छप रही हैं लेकिन उसी अनुपात में किताबें खरीदने वालों की संख्या नहीं बढ़ रही है
इसलिए हर लेखक को लगता है कि उसकी किताब कम बिक रही है. हिंदी में एक ख़ास
प्रवृत्ति यह भी है कि हम चाहते हैं कि हमारी किताब बिके, लेकिन
जिसकी बिकती है उसके अच्छा लेखक होने में संदेह करने में भी हम देर नहीं करते हैं.
यह भी सही है कि गम्भीर किताबों पर चर्चा कम होती है, हल्की-फुल्की
किताबों पर ज़्यादा चर्चाएं होती हैं. लेकिन ऐसा तो सभी क्षेत्रों में होता है. बढ़ते
जा रहे लिटरेचर फेस्टिवल्स का अपना अर्थशास्त्र और अपना तौर तरीका है जहां बहुत
गम्भीर लेखन के लिए जगह कम ही बन पाती है. इन तमाम बातों के बीच जब मैं राजस्थान
के लेखकों की वर्ष 2019 में आई किताबों पर एक नज़र डालता हूं तो मुझे असंतुष्ट होने
का कोई कारण नहीं मिलता. हर विधा में खूब लिखा गया है, बेहतरीन
भी. नए लेखक भी दृश्य पटल पर खूब आए हैं.
उनमें भरपूर ऊर्जा और उत्साह है और यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भी अपने लेखन को
निरंतर परिष्कृत करते हुए बहुत जल्दी
साहित्य जगत में अपने लिए स्थान बनाएंगे.
कविताएं
राजस्थान के लेखकों ने भी कविता लिखने में अधिक उत्साह दिखाया है. यहां
तक कि हेतु भारद्वाज जैसे वरिष्ठ गद्यकार और आलोचक का कविता संग्रह कविता भर एक
उम्र और अप्रतिम गद्यकार सत्यनारायण का कविता संग्रह साठ पार भी इस बरस
प्रकाशित हुए. पीयूष दईया के दो कविता संग्रह इसी बरस आए – मार्ग मादरजात
और त(लाश). आदिवासी विमर्श के सुपरिचित विशेषज्ञ हरि राम मीणा का कविता
संग्रह आदिवासी जलियांवाला एवम अन्य कविताएं, आलोचक राजाराम
भादू की भिन्न स्वाद वाली कविताओं का संग्रह स्वयं के विरुद्ध (पुनर्मुद्रण), वरिष्ठ कवि
प्रकाश परिमल का हैण्ड्स अप हिंदुस्तान भी इसी बरस प्रकाशित हुए. इस साल
प्रकाशित कविता पुस्तकों में सबसे ज़्यादा चर्चा रही कृष्ण कल्पित की हिंदनामा
की. माया मृग का मुझमें मीठा है तू, ओम नागर का तुरपाई, विनोद पदरज का देस,
कैलाश मनहर का अरे भानगढ़ और हेमंत शेष का अफ़सोस दर्पण भी चर्चा
में रहे. अपेक्षाकृत नए रचनाकारों में सूर्यप्रकाश जीनगर के पहले कविता संग्रह रेत
से हेत ने ध्यान आकर्षित किया. इस साल प्रकाशित अन्य महत्वपूर्ण कविता
पुस्तकों में जंगलों के बीच (बृजेंद्र कौशिक), फिर
कविता का रूप बदलता (मेघराज श्रीमाली), जो शब्दों के अलाव पर नंगे पांव चलता है
(नरेंद्र चतुर्वेदी) इश्क़ नाखुदा दिल पतवार (कविता माथुर), भोरगंध (आभा सिंह), चेहरों
की तनहाइयां (ओमवीर करन), 108 मनके (कुन्ना चौधरी), ओ मेरे मन (ममता शर्मा ‘अंचल’), मन
वल्लकी (रितु सिंह वर्मा), अनकहे
शब्द (रेनु शर्मा ‘शंद मुखर’),
और जुदा होना पड़ा (पण्डित आईना उदयपुरी) प्रमुख हैं.
कहानी
कविता से थोड़ी ही कम सक्रियता कहानी की
दुनिया में देखने को मिली. इस बरस अत्यंत वरिष्ठ लेखिका सावित्री चौधरी का कहानी
संग्रह अब क्या करूं, सुदेश बत्रा का फिर कब आओगे,
नंद भारद्वाज का आवाज़ों के आस पास, नीलिमा
टिक्कू का इंसानियत डॉट कॉम, नरेंद्र चतुर्वेदी का शायद
कोई वह, रजनी मोरवाल के दो कहानी संग्रह – नमकसार
और हवाओं से आगे, तस्नीम ख़ान का दास्तान-ए-हज़रत, एस. भाग्यम शर्मा का एक बेटी
का पत्र, रेखा लोढ़ा ‘स्मित’
का मुट्ठी भर आकाश, जितेंद्र कुमार
सोनी का एडियोस: ढाई आखर की कहानियां, पद्मजा शर्मा
के दो संकलन –वक़्त भी हैरान रह जाए तथा अन्य कहानियां और मोबाइल पिक और हॉस्टल तथा अन्य कहानियां,
तराना परवीन का बहुत उम्मीदें जगाता पहला कहानी संग्रह एक सौ आठ,
रमेश खत्री का इक्कीस कहानियां तो आए ही, ईश मधु तलवार का लाल बजरी की सड़क, चरण सिंह
पथिक का मैं बीड़ी पीकर झूंठ नी बोलता भी आए और चर्चाओं में रहे. एस. भाग्यम
शर्मा ने अनुवाद के रूप में हमें श्रेष्ठ तमिल कहानियां का उपहार दिया तो
नीरज दइया ने एक सौ एक राजस्थानी कहानियां हमें सौंपी. नंद भारद्वाज की
राजस्थानी कहानियों का उन्हीं द्वारा अनूदित संग्रह बदलती सरगम भी इसी बरस
आया. स्वयंप्रकाश की कहानियों का एक महत्वपूर्ण संकलन चौथा हादसा भी इसी
बरस प्रकाशित हुआ.
उपन्यास
साल के प्रारम्भ में आए मनीषा कुलश्रेष्ठ के
उपन्यास मल्लिका और साल के अंत में आए हरि राम मीणा के डांग के बीच ईश मधु तलवार के रिनाला
ख़ुर्द, श्याम जांगिड़ के उदास हथेलियां, क्षमा
चतुर्वेदी के अपने हिस्से की धूप, वीना चौहान के नारी
कभी ना हारी, हिमाद्री वर्मा डोइ के नया जन्म और
अतुल कनक के महत्वाकांक्षी सृजन अंतिम तीर्थंकर ने आश्वस्त किया कि हमारे
रचनाकार बड़े फलक के प्रति भी कम अनुराग नहीं रखते हैं. राजेंद्र मोहन शर्मा का विनायक
सहस्र सिद्धै भी इसी साल प्रकाशित हुआ. एस. भाग्यम शर्मा ने तमिल लेखिका आर.
चूड़ामणि के उपन्यास का दीप शिखा शीर्षक से अनुवाद हमें सौंपा. वरिष्ठ लेखक
और ‘सम्प्रेषण’ के सम्पादक चंद्रभानु
भारद्वाज ने भटक्यो बहुत प्रकाश शीर्षक से एक अनूठी कृति हमें दी
जिसमें आत्मकथा और उपन्यास दोनों का बहुत
सुंदर मेल है. उर्दू हास्य व्यंग्य के सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षरों में शुमार मूलत:
टोंक निवासी मुश्ताक़ अहमद यूसुफी के दो बहु प्रशंसित और चर्चित उपन्यास खोया
पानी और धन यात्रा, जो लम्बे समय से अनुपलब्ध थे,
इसी साल राजपाल से पुन: प्रकाशित हो सुलभ हुए.
हास्य व्यंग्य
मुझे यह बात बहुत दिलचस्प लगती है कि हमारे
बहुत सारे रचनाकार अपने सुपरिचित इलाकों से बाहर निकल कर अप्रत्याशित रच रहे हैं.
मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि विजय वर्मा जैसे गम्भीर अध्येता हास्य व्यंग्य
भी रचेंगे. उन्होंने हमें एक नया राग दिया – राग पद्मश्री. उन्हीं की तरह
एक अन्य गम्भीर रचनाकर अम्बिका दत्त ने भी हमें परम देश की अधम कथा सुना
डाली. और जब ऐसे रचनाकार हास्य व्यंग्य की तरफ खिंचे चले आए तो इस विधा के
सुपरिचित रचनाकार भला कैसे पीछे रहते? डॉ यश
गोयल का नामुमकिन नेता, अजय अनुरागी का एक गधे की
उदासी, पूरन सरमा का श्री घोड़ीवाला का चुनाव अभियान
और उन्हीं का कुर्सी मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है इस बरस हमें गुदगुदाने और भीतर ही भीतर कसमसाने को विवश
करने में कामयाब रहे. यशवंत कोठारी के
सारे व्यंग्य उपन्यासों का किंडल संस्करण समग्र उपन्यास शीर्षक से आया. उन्हीं
की 101 चुनिंदा व्यंग्य रचनाओं का संकलन होना फ्रेक्चर हाथ में भी किंडल पर
आया है.
कथेतर
इधर हिंदी में कथेतर में बहुत अधिक और बेहतरीन काम हो रहा है. राजस्थान भी
इसका अपवाद नहीं है. असल में कथेतर में मौलिक और सर्जनात्मक होने की अपरिमित
सम्भावनाएं हैं और हमारे रचनाकार इन सम्भावनाओं का खूब उपयोग कर रहे हैं. हाल में
हमसे जुदा हुए विलक्षण कथाकार स्वयंप्रकाश की धूप में नंगे पांव
एक अद्भुत कृति है. इस किताब में स्वयंप्रकाश ने अपने जीवन के उन क्षणों और
प्रसंगों को शब्दबद्ध किया है जो उनके कथा साहित्य में नहीं आ सके. यहां
स्वयंप्रकाश की रचनाशीलता अपने चरम पर है. हेतु भारद्वाज ने बैठे ठाले की
जुगालियां में अपने मस्त मौला और बिंदास अंदाज़ में अतीतावलोकन किया है. उषा
गोयल ने भी जीवन के रंग सृजन के संग में अपनी जीवन यात्रा में हमें साझीदार
बनाया है. डॉ श्रीगोपाल काबरा ने कहां आ गए हम में उस सुखद अतीत से हमें
मिलवाया है जिसे हम तेज़ी से भूलते जा रहे
हैं. और इसी सिलसिले में याद आती है हेमंत शेष की कृति भूलने का विपक्ष
जिसमें उन्होंने राजस्थान के कुछ महत्वपूर्ण किंतु भुला दिए गए रचनाकारों के
साथ-साथ कुछ अन्य को भी बड़ी आत्मीयता से
स्मरणांजलि दी है. रामबक्ष जाट की अनूठी संस्मरण कृति मेरी चिताणी भी इसी
साल हमारे हाथों में आई. इसी बरस आई उमा
की कृति क़िसागोई हमारे सुपरिचित रचनाकारों को एक नए आलोक में प्रस्तुत करने
का यादगार उपक्रम है. यही काम कैलाश मनहर ने मेरे सहचर मेरे मित्र में अलग
तरह से किया है. अपने समकालीनों को क़मर मेवाड़ी ने भी यादें में बहुत
खूबसूरती और अपनेपन से स्मरण किया है. सब कुछ जीवन सत्यनारायण की उनकी
सिग्नेचर विधा रिपोर्ताज की कृति है. इस बरस प्रकाशित पुस्तकों में सोशल
एक्टिविस्ट भंवर मेघवंशी की मैं एक कार सेवक था भी अपनी ईमानदारी और
प्रखरता के लिए बहु चर्चित रही है. इनके अलावा हरिशंकर शर्मा की तू हमको पुकारे
हम नहीं, प्रभाशंकर उपाध्याय की यादों के दरीचे, आभा सिंह की स्वप्न दिशा की ओर भी इसी साल आईं. देशबंधु अंगिरा की
किताब मानसरोवर यात्रा, कुमार अजय की डायरी मैं
चाहूं तो मुस्करा सकता हूं, सत्यनारायण की डायरी दु:ख
किस कांधे पर और हरिशंकर शर्मा की पण्डित राधेश्याम कथावाचक की डायरी पर आधारित विश्लेषणात्मक कृति डायरी
का व्याकरण भी इस बरस की उल्लेखनीय कृतियां हैं. प्रबोध कुमार गोविल सम्पादित हरे
कक्ष में दिनभर और हरिशंकर शर्मा की संवादहीनता
के युग में में महत्वपूर्ण साक्षात्कार पढ़ने को मिले. इसी बरस संगीत पर
केंद्रित श्रीलाल मोहता और ब्रजरतन जोशी सम्पादित संगीत: संस्कृति की प्रकृति और हिंदी फिल्म संगीत पर केंद्रित नवल किशोर
शर्मा की फिल्म संगीत: संस्कृति और समाज भी प्रकाशित हुईं. ‘अनुकृति’ सम्पादक जयश्री शर्मा के सम्पादकीय लेखों
का संग्रह सम्पादक कहिन, स्वयंप्रकाश की डाकिया
डाक लाया, प्रगति गुप्ता की सुलझे अन सुलझे,
राजेंद्र गर्ग की आत्महीनता और अन्य मनोविकार और मिश्री लाल
माण्डोत की बोध कथाओं की किताब जिओ ऐसे ज़िंदगी को भी इसी साल प्रकाशित
हुईं. मालचंद तिवाड़ी की स्त्री का मनुष्यत्व और गोपाल शर्मा ‘सहर’
की लोहा हैं ये शब्द इस साल आई दो और महत्वपूर्ण किताबें है.
कवि- आलोचक सत्यनारायण व्यास
की आत्मकथा क्या कहूँ आज का प्रकाशन इस विधा की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला
होगा. और ससंकोच यह भी कि इसी बरस सामयिक विषयों पर मेरे लेखन के
भी दो संग्रह आए –समय की पंचायत और जो देश हम बना रहे हैं.
नाटक इस बरस बहुत कम प्रकाशित हुए. मेरी
जानकारी मदन शर्मा के एक थी माधवी और प्रबोध कुमार गोविल के बता मेरा मौत नामा तक सीमित है.
आलोचना
मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य की बात है कि इस साल आलोचना के क्षेत्र में हमारे
प्रांत ने काफी कुछ महत्वपूर्ण दिया है. साल की शुरुआत साहित्य अकादेमी की भारतीय
साहित्य के निर्माता शृंखला में विश्वम्भरनाथ
उपाध्याय पर हेतु भारद्वाज के मोनोग़्राफ़ से हुई तो साल बीतते बीतते इसी
श्रंखला में नंद चतुर्वेदी पर पल्लव का मोनोग्राफ़ हाथ में आया. और इनके बीच
आईं डॉ नवलकिशोर की लम्बे समय से अनुपलब्ध दो किताबें –मानववाद और साहित्य औरमानवीय अर्थवत्ता
और हिंदी उपन्यास. इनके साथ ही लगभग चालीस
साल बाद उनकी नई किताब प्रेमचंद की प्रगतिशीलता भी आई. रामदेव
आचार्य की लाक्षागृह और लेखन भी इसी बरस फिर से प्रकाशित हुई. प्रचार
प्रसार से दूर रहते हुए चुपचाप अपना काम करने वाले मोहनकृष्ण बोहरा की भी दो
महत्वपूर्ण कृतियां समकालीन कहानीकार:
नया वितान और रचनाकार का संकट इसी बरस प्रकाशित हुईं. मोहनकृष्ण बोहरा
के अवदान पर एटा उत्तर प्रदेश से प्रकाशित ‘चौपाल’ पत्रिका ने एक
विशेषांक भी प्रकाशित किया. रवि श्रीवास्तव की दो किताबें राष्ट्र,
राष्ट्रवाद और लोकतंत्र तथा जनजीवन और
साहित्य भी इसी साल प्रकाशित हुईं. युवा कवि-चित्रकार और रंगकर्मी
रविकुमार पर ‘बनास जन’ का अंक भी यादगार
रहा. माधव नागदा की किताब समकालीन हिंदी लघु कथा और आज का
यथार्थ भी 2019 में ही प्रकाशित हुई. सदाशिव श्रोत्रिय की किताब कविता का
पार्श्व इस कारण भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि यहां एक कवि ने अपनी ही
कविताओं पर बहुत बारीकी से लिखा है. माधव हाड़ा अपने शोध और
आलोचना संबंधी लेखन के लिए व्यापक पहचान बना चुके हैं, यह उनकी निष्ठा ही है
कि ब्रजरतन दास संपादित ऐतिहासिक संकलन मीरां माधुरी का नया संस्कारण उनके प्रयासों से आया. वहीं मानस
का हंस पर कालजयी कृति शृंखला में उनकी, कुरुक्षेत्र पर रेणु व्यास और आवारा मसीहा पर पल्लव
की किताबें आलोचना में उल्लेखनीय मानी जाएंगी.
तो यह था बरस 2019 में आईं राजस्थान के
लेखकों की हिंदी कृतियों का संक्षिप्त लेखा-जोखा. मैंने अपनी तरफ से भरपूर कोशिश
की है कि किसी महत्वपूर्ण किताब का ज़िक्र छूट न जाए, लेकिन हरेक की जानकारियों
की सीमा होती है, मेरी भी है. बहुत मुमकिन है कि अनेक
उल्लेखनीय कृतियों के प्रकाशन की मुझे जानकारी न मिल सकी हो. उन सभी के रचनाकारों
से अग्रिम क्षमा याचना. यहीं यह ज़िक्र करना भी अप्रासंगिक नहीं लग रहा है कि
बावज़ूद इतने विपुल और बेहतरीन सृजन के साहित्यिक परिदृश्य पर राजस्थान की लगभग
अनुपस्थिति व्यथित करती है. राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में छपे
वार्षिक लेखे-जोखे को देखें और तलाश करें कि उनमें राजस्थान के कितने लेखकों को
जगह मिली है. आखिर क्यों हमारे लेखन पर औरों का ध्यान नहीं
जाता है? इस पर हम
सबको मिलकर विचार करना चाहिए.
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मूलत: यह लेख जयपुर से प्रकाशित मासिकी 'जनतेवर' में प्रकाशित होने वाले मेरे स्तम्भ 'उजास' के लिए लिखा गया था. किन्हीं अपरिहार्य कारणों से 'जनतेवर' का प्रकाशन स्थगित है, अत: यह लेख यहां पोस्ट कर रहा हूं.
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