Monday, June 8, 2020

स्वयंप्रकाश : वे मेरे लिए फ्रेण्ड, फिलोसॉफर और गाइड थे


अभी कुछ ही समय पहले स्वयं प्रकाश की किताब धूप में नंगे पांव आई थी. इस किताब में उन्होंने कुछेक प्रसंगों में मेरा भी  ज़िक्र किया है. उस ज़िक्र से, जिसमें एक मित्र की सहज आत्मीयता जन्य प्रशंसा थी,  मैं एक बार फिर उन अपनास भरे दिनों में लौट गया था जब हम इतना निकट थे कि जब चाहे मिल सकते थे. वे सुमेरपुर में थे और मैं सिरोही में था. दोनों कस्बों के बीच मात्र चालीस किलोमीटर का फासला, जो हम दोनों को  अपनी जवानी की वजह से कुछ भी नहीं लगता था. जब जी चाहता वे सिरोही चले आते और जब जी चाहता हम सुमेरपुर चले जाते. उन्हीं खूबसूरत और उजले दिनों को स्वयं प्रकाश ने इस किताब में भी याद किया है. जब यह किताब पढ़ रहा था तब नहीं पता था कि इस किताब पर कुछ लिखने का पल्लव का आग्रह पूरा करूंगा उससे पहले ही स्वयं प्रकाश के लिए एक स्मृति लेख लिखने की विवशता सामने आ खड़ी होगी. शायद एक महीना भी पूरा न लगा उन्हें गम्भीर रूप से बीमार होने, इलाज़ के लिए मुम्बई जाने और फिर हम सब को रोता-बिलखता छोड़ हमसे बहुत दूर चले जाने में. स्वयं प्रकाश के न रहने के हृदय विदारक समाचार ने मुझे अनायास शंकर के बांग्ला उपन्यास चौरंगी के उस कथन  की याद दिला दी जो अंग्रेज़ी के एक कम ख्यात कवि ए.सी. माफेन की पंक्तियों पर आधारित है. उपन्यास में एक चरित्र बोस भाई कहता है:  दुनिया की इस सराय में हमने कुछ क्षणों के लिए आश्रय लिया है. हम लोगों में से कुछ लोग ब्रेकफास्ट खाकर ही चले जाएंगे. कुछ लोग लंच ख़त्म करते ही चले जाएंगे. शाम का अंधेरा पार करके जब हम रात में डिनर-टेबुल पर इकट्ठे होंगे, तो कितने ही परिचित लोगों को गायब पाएंगे. इतने लोगों में से दो-चार व्यक्ति ही वहां मिल सकेंगे. मगर परवाह मत करो, दुख मत करो. जो जितना पहले चला जाएगा, उसे उतना की कम बिल चुकाना पड़ेगा.”   लेकिन यहां आकर मैं बोस भाई उर्फ शंकर से असहमत होता हूं. स्वयं प्रकाश को इस बात की खुशी तो नहीं होगी कि उन्हें कम बिल  चुकाना पड़ेगा. अलबत्ता, जैसी उनकी फितरत थी, वे दूसरे लोक में जाकर  भी कम धमाल नहीं मचा रहे होंगे.

20 जनवरी 1947 को इंदौर में जन्मे और मैकेनिकल इंजीनियरिंग (और बाद में हिंदी में एम. ए. और पी-एच.डी.)  की शिक्षा प्राप्त  स्वयं प्रकाश  ने आजीविका के लिए बहुत सारी नौकरियां कीं, बहुत सारे शहरों और कस्बों में रहे. उनका जन्म भले ही  मध्य प्रदेश में हुआ और हाल के बरसों में वे वहीं रह भी रहे थे, उनके जीवन का बड़ा भाग राजस्थान में ही बीता. यह उचित ही है कि हम राजस्थान वासी उन्हें अपने प्रांत का लेखक मानते हैं. इन सब कामों और जगहों से उन्होंने जो अनुभव अर्जित किये वे उनके दो दर्ज़न से ज़्यादा कहानी संग्रहों की कहानियों, पांच उपन्यासों, एक नाटक, और कथेतर की कई किताबों में रचनात्मक रूप से अभिव्यक्त हुए हैं. उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण किताबों के अनुवाद भी किये, कुछ पत्रिकाओं का सम्पादन किया – जिनमें चकमक और वसुधा विशेष रूप से स्मरणीय हैं, और बच्चों के लिए भी खूब लिखा.

हालांकि मेरा यह लेख उनके लेखन के बारे में नहीं है, फिर भी यह यह कहना ज़रूरी लग रहा है कि स्वयं प्रकाश  के लेखन की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि वे गम्भीर से गम्भीर बात कहते हुए भी सहज और सरल बने रहते हैं. उनके लेखन में से ऐसे अंश ढूंढ  पाना लगभग नामुमकिन होगा जहां वे बोझिल हुए हों. और इसी तरह उनके लेखन में शायद ही ऐसा कुछ हो जो सिर्फ मज़े के लिए हो. बात चाहे साम्प्रदायिकता की हो, स्त्री-पुरुष सम्बंधों की हो, पीढ़ियों के द्वंद्व की हो, समाज में ग़ैर बराबरी की हो, शोषण की हो, जाति प्रथा की हो, अपने खिलंदड़े लहज़े को बरक़रार रखते  हुए स्वयं प्रकाश  अपनी बात कहने की कला के उस्ताद साबित होते हैं. यह आकस्मिक नहीं है कि उनकी नीलकांत का सफर, चौथा हादसा, पार्टीशन, बड्डे, बलि, नैनसी का धूड़ा, क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी  देखा जैसी कहानियां समकालीन हिंदी की सबसे ज़्यादा पढ़ी और सराही गई कहानियों में शुमार हैं. अपने उपन्यासों में भी उन्होंने बड़े फ़लक पर यही किया है.  चाहे वो जलते जहाज पर हो, ज्योतिरथ के सारथी हो, उत्तर जीवन कथा हो, बीच में विनय हो या ईंधन हो – अपने हर उपन्यास में स्वयं प्रकाश अपने अनुभवों और विचार को इस कुशलता से गूंथते हैं कि आप चाह कर भी इनके बीच कोई फांक नहीं तलाश कर पाते हैं. और जब वे कथा से कथेतर के इलाके में आते हैं तब तो कहना ही क्या! खुलकर, बेलौस अंदाज़ में वे अपनी बात कहते हैं. लेकिन पाठक से नज़दीकी उनकी यहां भी कम नहीं होती. स्वान्त: सुखाय, दूसरा पहलू, रंगशाला में एक दोपहर, कहानीकार की नोटबुक और क्या आप साम्प्रदायिक हैं जैसी किताबों में उनका वैचारिक पक्ष बहुत खुलकर सामने आता है. इस लिहाज़ से धूप में नंगे पांव का अलग से ज़िक्र इसलिए ज़रूरी है कि यहां हमें व्यक्ति स्वयं प्रकाश से मिलने का मौका मिलता है. एक तरह से यह किताब उनके लेखक को समझने की चाबी है. एक लेखक किन स्थितियों में रहता और अनुभव अर्जित करता है जब आप इस किताब को पढ़ते हुए यह जानते-समझते हैं तब महसूस करते हैं कि एक बड़ा लेखक क्यों और कैसे बनता है.

जैसा मैंने अभी कहा, गम्भीरता का लबादा स्वयं प्रकाश के पास था ही नहीं. इस मामले में वे ज़्यादातर लेखकों-बुद्धिजीवियों से भिन्न थे. वे उत्साह से लबरेज़ थे. सक्रियता, उल्लास और जीवंतता के वे चलते-फिरते बिम्ब थे. मेरा पहला परिचय उनसे जब हुआ तब तक मैं एक लेखक के रूप में उनके नाम से परिचित हो चुका था. यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि सातवें दशक के अंत में उनकी वैसी ख्याति नहीं रही होगी, जैसी बाद के बरसों में हुई, लेकिन तब भी वे खूब लिख रहे थे, छप रहे थे और साहित्य प्रेमी उनके नाम से भली भांति परिचित  हो चुके थे. मेरे और उनके बीच पुल बने चित्तौड़ कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक और मेरे घनिष्ट मित्र सदाशिव श्रोत्रिय. अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो याद आता है कि कैसे हम अनायास मिले. मैं चित्तौड़ में कुम्भानगर में रहता था और उसी कॉलोनी में सदाशिव श्रोत्रिय भी रहते थे. एक दिन मेरे घर की घण्टी बजी, दरवाज़ा खोला तो पाया कि एक सुदर्शन युवक, जिसका चेहरा-मोहरा धर्मेंद्र से बहुत मिलता है, बाहर खड़ा है और सदाशिव श्रोत्रिय के घर का पता पूछ रहा है. कहना अनावश्यक है यह युवक स्वयं प्रकाश था, जिसके नाम और काम से मैं बज़रिये सदाशिव जी, परिचित हो चुका था. उसी शाम सदाशिव जी ने अपने घर एक महफिल सजाई और उस महफिल में पहली दफा स्वयं प्रकाश  से ठीक से मुलाकात हुई. थोड़ी गपशप और बहुत सारे गीत गज़ल. स्वयं प्रकाश का गला बहुत सुरीला था. मेहदी हसन, ग़ुलाम अली, जगजीत सिंह, किशोर कुमार, लता मंगेशकर  न जाने किन-किन के नग़्मे उन्होंने उस शाम सुनाए. उस शाम के असर की कल्पना इसी बात से की जा सकती है कि आज भी जब मैं लता मंगेशकर के एक गाने रात भी है कुछ भीगी-भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम मद्धमके बारे में सोचता हूं तो वह मुझे स्वयं प्रकाश की आवाज़ में ही सुनाई देता है. उस शाम गोपाल सिंह नेपाली का एक गीत भी उन्होंने सुनाया, दूर जाकर न कोई बिसारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे. इसी गीत का आखिरी बंद आज बेसाख़्ता याद आ रहा है: एक दिन क्या मिले मन उड़ा ले गए, मुफ़्त में उम्र भर की जलन दे गए / बात हमसे न कोई दुबारा करे, मन दुबारा-तिबारा पुकारा करे।  और वाकई, उस एक दिन की अनायास हुई मुलाक़ात ने हमें रिश्तों की जिस मज़बूत डोरी से बांध दिया, स्वयं प्रकाश उसे इस तरह एक झटके से तोड़ कर चले जाएंगे, यह तो कभी सोचा भी न था.

स्वयं प्रकाश के न रहने की ख़बर ने, हालांकि उनकी गम्भीर बीमारी के मिलते समाचारों ने हमें इस अनहोनी के लिए मानसिक रूप से तैयार कर दिया था, मुझे इतना  अधिक  विचलित कर दिया है कि सिलसिले वार कुछ भी लिख पाना सम्भव नहीं हो रहा है. और यह स्वाभाविक भी है. लगभग साढे‌ चार दशकों की दोस्ती कोई मामूली दोस्ती तो होती नहीं. और फिर यह कोई रस्मी और दिखावे की दोस्ती तो थी नहीं. दिखावे की भी नहीं और आदान-प्रदान के धागों से बंधी भी नहीं. यह एक लेखक और उसके पाठक के बीच की दोस्ती भी नहीं थी. आलोचक तो मैं तब तक बना ही नहीं था, इसलिए वह रिश्ता तो था ही नहीं. मैं खुद बरसों यह सोचता रहा कि स्वयं प्रकाश और मेरे बीच इतनी सघन दोस्ती क्यों हुई? और जवाब मिला धूप में नंगे पांव में ही. स्वयं प्रकाश ने मेरे लिए लिखा है, “इस सब में जो प्रमुख चीज़ थी वह थी सुरुचि जो दुर्लभ नहीं तो बहुत ज़्यादा सुलभ भी नहीं होती.” यही बात मैं उनके लिए भी कहना चाहता हूं. असल में उनकी सुरुचि ने ही मुझे उनका मुरीद बनाया. बात चाहे खाने-पहनने की हो, रहन-सहन की हो,  चिट्ठी लिखने की हो, आपसी रिश्तों के निर्वहन की हो, स्वयं प्रकाश सुरुचि का पर्याय थे. कम में भी कैसे ज़िंदगी के रस को छक कर पिया जा सकता है, यह मैंने न केवल उनमें देखा, उनसे सीखा भी. सीखा तो और भी बहुत कुछ. चित्तौड़ की उस मुलाकात के बाद वास्तव में हम नज़दीक आए कोई पांचेक बरस के बाद. चित्तौड़ से मेरा तबादला सिरोही हो गया और संयोग ऐसा बना कि स्वयं प्रकाश भी स्थानांतरण पर सुमेरपुर टेलीफोन एक्सचेंज में आर एस ए होकर आ गए. बस, उसके बाद हमारे मिलने-जुलने का, संवाद का चिट्ठी-पत्री का और एक दूसरे के सुख दुख में साझीदार होने का जो सिलसिला शुरु हुआ वह अनवरत चलता रहा. सुमेरपुर-सिरोही के उन दिनों को स्वयंप्रकाश ने धूप में नंगे पांव में बहुत खूबसूरती से अंकित किया है. उनका सिर्फ़ एक वाक्य हमारी घनिष्टता को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है: धीरे-धीरे सिरोही मेरे लिए दूसरे घर जैसा बन गया और मैं लगभग हर साप्ताहिक अवकाश में किसी भी बस या ट्रक में चढ़कर वहां पहुंचने लगा. यहां सिरोही को दुर्गाप्रसाद का पर्याय समझा जा सकता है. कहना अनावश्यक है कि मेरे लिए सुमेरपुर स्वयं प्रकाश का पर्याय था. अब इस बात को निस्संकोच कह सकता हूं कि दोस्ती के उस दौर में स्वयं प्रकाश का शोषण भी मैंने खूब किया. मैंने भी और हमने भी. इस बात की गिनती करना कठिन होगा कि कितनी बार मैंने उन्हें अपने कॉलेज में बुलाया. कभी अपने विद्यार्थियों से बात करने, व्याख्यान देने, कभी कविताएं सुनाने, कभी पुरस्कार वितरण करने. और इसका मानदेय देना तो दूर, यात्रा व्यय भी शायद ही कभी दिया हो. इस बात की आज तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई बड़ा लेखक इस तरह आपके एक आवाज़ देने से चला आएगा. लेकिन स्वयं प्रकाश आते रहे. मेरे विद्यार्थी कहते कि सर, स्वयं प्रकाश जी को आए बहुत दिन हो गए और मैं वहीं कॉलेज से उन्हें फोन करता और वे चले आते. कभी बस से, और कभी ट्रक पर लिफ्ट लेकर. जैसे मैंने उनका भरपूर दुरुपयोग किया, वैसे ही मेरी पत्नी ने भी किया. वे आते और हम अपने दोस्तों पड़ोसियों को जुटा कर महफिल जमा लेते. कभी मेरे घर के छोटे से कमरे में तो कभी हमारे घर की छत पर. कोई ताम झाम नहीं, बस, वे होते और हम सब होते. और फिर तीन-चार घण्टे कैसे बीत जाते पता ही नहीं चलता. खूब कविताएं, खूब गाने, ग़ज़लें, लतीफ़े और भी बहुत कुछ. उन अनौपचारिक महफ़िलों में जाने कितनी बार हमने नीलकांत का सफ़र सुनी.

उसी दौर में स्वयं प्रकाश ने मेरे कॉलेज से स्वयं पाठी विद्यार्थी के रूप में हिंदी में एम ए किया और फिर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. इस बहाने उनसे और ज़्यादा मिलना-जुलना हुआ. इस सबका बहुत रोचक वर्णन उन्होंने अपनी इस किताब में किया है. इस वर्णन को पढ़ते हुए मैं उनकी याददाश्त का भी मुरीद होता रहा. जिन घटनाओं का मैं भी एक किरदार था और जिन्हें मैं भूल चुका था, वे उन्हें बरसों बाद ऐसे याद थीं जैसे अभी ही घट रही हों. इस वर्णन को पढ़ते हुए मेरा ध्यान  इस बात पर भी गए बग़ैर नहीं रहा कि जो घटनाएं हमारे लिए बहुत सामान्य होती हैं, एक रचनाकार का हल्का-सा स्पर्श पाते ही वे कितनी महत्वपूर्ण और रोचक बन जाती हैं. स्वयं प्रकाश का यह रचनात्मक स्पर्श उनके पत्रों में भी खूब होता था. उनका मेरा खूब पत्राचार हुआ. उन्हें पत्र लिखने का जैसे जुनून था और मैं भी एक हद तक उन जैसा ही था. यह बात अलग है कि मुझे उतने विस्तृत पत्र लिखने की आदत नहीं थी और वैसी रचनात्मकता तो ख़ैर शायद ही उनमें होती. मेरी संक्षेप में पत्र लिखने की आदत पर तो एक बार उन्होंने यह कहते हुए चुटकी भी ली थी कि दुर्गा बाबू, यह आपकी शैली है या कुटेव? वे अपने पत्रों में दुनिया-जहान की बातें लिखते. जहां होते वहां के हाल-चाल, साहित्य की नई से नई हलचलों पर चर्चा, नई पढ़ी किताबों पर उनकी राय, हाल में सुने गए संगीत का विवरण और न जाने  क्या-क्या! बहुत बार बड़े मौलिक लतीफ़े भी उनके पत्रों में होते. मुझे अपने जीवन में जिन चीज़ों का सबसे ज़्यादा अफ़सोस है उनमें से एक इस बात का भी है कि मैं उन पत्रों को सहेज कर नहीं रख सका. बार-बार के तबादलों में मेरी वो दौलत खुर्द बुर्द हो गई.

इस बात को स्वीकार करने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं है कि मेरी साहित्यिक रुचि के निर्माण में स्वयं प्रकाश की बहुत बड़ी भूमिका है. उनसे मुलाकात के पहले मैं हिंदी का एक औसत दर्ज़े का प्राध्यापक था. अपने पाठ्यक्रम को ठीक से पढ़ा लेता था और जो मिलता वह पढ़ लेता था. यों भी जब हम मिले तक तक मेरी नौकरी की उम्र छह साथ बरस की थी. स्वयं प्रकाश ने मुझे विचारधारा की समझ दी. मेरी बहुत सारी शंकाओं का समाधान किया, करते रहे. साहित्यिक विवेक मैंने उनसे पाया. और यह केवल उन संग साथ के दिनों की ही बात नहीं है. यह सिलसिला अनवरत चलता रहा. बाद में हमारा पत्राचार कम हुआ तो उसकी जगह दूरभाष संवाद ने ली. लेकिन तब भी हम लम्बी बातें करते और अपनी समझ को और धार देते. स्वयं प्रकाश के साथ बहुत सारे साहित्यिक आयोजनों में भी सहभागिता करने का अवसर मिला. वो समय राजस्थान में साहित्यिक सक्रियता के लिहाज़ से सबसे उम्दा समय था. खूब सारे आयोजन होते और हम लोग उनमें जाते. इस बहाने साथ रहने का और विचार विमर्श का भी ज़्यादा समय मिलता. स्वयं प्रकाश के साथ ही हम सिरोही से जयपुर प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में शिरकत करने आए और एक सामान्य-सी धर्मशाला –शायद इमिटेशन वालों की धर्मशाला- में भीष्म  साहनी जैसे दिग्गजों के साथ रुके. मेरे लिए साहित्य की दुनिया के चमकते सितारों को नज़दीक से देखने का वह पहला मौका था. उस आयोजन  में अमृत राय, कैफी आज़मी, गुलाम रब्बानी ताबां, अली सरदार ज़ाफरी, त्रिलोचन, नागार्जुन जैसी शख़्सियतों ने सहभागिता की थी.

स्वयं प्रकाश अपने लेखन और विचारधारा को लेकर जितने संज़ीदा और ईमानदार थे उतने ही संज़ीदा और ईमानदार अपने घर परिवार के प्रति भी थे. इतने बरसों की नज़दीकी में मैं यह बात ख़ास तौर पर देख सका कि वे परिवार और साहित्य दोनों के प्रति समान रूप से ईमानदार थे. इस मामले में वे उन साहित्यकारों से अलग ठहरते थे जो साहित्य  को ही ओढ़ते-बिछाते हैं और परिवार को अपने हाल पर छोड़ देते हैं. सच बात तो यह है कि वे रिश्तों में और चीज़ों में घालमेल से बचने के पक्षधर थे. यह बात मैंने एक और ख़ास संदर्भ में देखी, और सीखी भी. वे नौकरी और लेखन को अलग रखते थे. मुझे जावर माइंस में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनके ही तंत्र के और पास-पड़ोस के लोग इस बात से नावाक़िफ़ थे कि वे एक लेखक भी हैं. हालांकि तब तक वे अखिल भारतीय प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके थे. वैसे यह इस बात पर भी एक टिप्पणी है कि हमारा समाज अपने ही लेखकों से कितना ज़्यादा कटा हुआ है. अगर उनके दफ्तर के लोग भी थोड़ा  बहुत पढ़ने वाले रहे होते तो वे इस बात से अपरिचित नहीं हो सकते थे कि एक बड़ा लेखक उनके तंत्र में कार्यरत है. अपने कार्यालय समय में वे केवल एक दक्ष अधिकारी थे और बाद के समय में अफसर न होकर सिर्फ लेखक थे. इसी तरह जब वे परिवार के साथ होते तो एक पल को भी यह बात सामने नहीं आने देते कि वे एक लेखक हैं. मेरे बच्चों के साथ वे बच्चे बन जाते और उन्हीं के स्तर पर आकर उनसे बतियाते. आज उनकी जितनी कमी मैं महसूस कर रहा हूं उससे कम मेरी पत्नी और बच्चे नहीं कर रहे हैं. अगर वे चौबीसों घण्टे वाले लेखक होते तो ऐसा नहीं होता.

स्वयं प्रकाश को बहुत नज़दीक से देखकर मैं यह जान और अनुभव कर पाया कि जिन मूल्यों और आदर्शों को वे अपने लेखन में अभिव्यक्त करते थे उन्हें शब्दश: जीते भी थे. इस मामले में वे उन लोगों से एकदम अलग थे जो लिखते कुछ और हैं, जीते कुछ और. समानता, स्वतंत्रता, कर्म काण्ड और पाखण्ड का विरोध, असासाम्प्रदायिक होना, स्त्री का सम्मान, बेटे बेटी के बीच कोई भेद न रखना, सामाजिक स्तर पर बराबरी का भाव, श्रम के प्रति निष्ठा, शोषण का हर स्तर पर विरोध जैसी बातें जो उनके लेखन में बार-बार आती हैं उनके निजी जीवन में भी हर स्तर पर देखने को मिलीं. इन बातों के अनेक उदाहरण मुझे याद आ रहे हैं, लेकिन स्थानाभाव के कारण उन्हें अंकित नहीं कर रहा हूं.

स्वयं प्रकाश में स्वाभिमान का भाव कूट-कूट कर भरा था. लेकिन इस स्वाभिमान को अहंकार से अलग करके देखा जाना ज़रूरी है. वे बेहद शालीन, बहुत विनम्र थे, लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर, अपने रचनाकार को लेकर वे कोई समझौता करने को या किसी के भी आगे झुकने  को कभी तैयार नहीं पाए गए. उनके स्वाभिमान की ही एक अभिव्यक्ति इस रूप में भी होती थी कि बाद के बरसों में जब उनका स्वास्थ्य नरम रहने लगा था, हम जब भी फोन पर बतियाते और मैं उनसे उनकी सेहत के बारे में पूछता, वे बात को किसी और तरफ मोड़ देते. फिर मुझे समझ में आ गया कि वे अपने कमज़ोर स्वास्थ्य के बारे में बात नहीं करना चाहते हैं. 

यहां मैंने लेखक स्वयं प्रकाश की, उनके साहित्यिक अवदान की चर्चा नहीं की है. उस पर खूब चर्चा हुई है और आगे भी होगी. बेशक वे हमारे समय के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लेखकों में अग्रणी हैं. बावज़ूद इस बात के कि वे निरर्थक और दिल बहलाऊ लेखन के कभी हामी नहीं रहे. लेखन उनके लिए एक ज़िम्मेदारी भरा और मिशनरी काम था. बेशक वे मेरे भी प्रिय लेखकों की सूची में बहुत ऊपर हैं. लेकिन इससे भी अधिक वे मेरे फ्रेण्ड, फिलोसॉफर और गाइड थे. उनसे किसी भी विषय पर बात की जा सकती थी, किसी भी मुद्दे पर सलाह ली जा सकती थी और आंख मूंद कर उन पर भरोसा किया जा सकता था. जीवन में हर पल वे साथ रहे. बस! अब वे धोखा दे गए!
आप तो ऐसे न थे, प्रकाश भाई!
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राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका मधुमतीके जनवरी, 2020 अंक में प्रकाशित स्मृति लेख.

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