समय और स्थितियों में इतनी तेज़ी से बदलाव आया है
कि जब मैं अपने कॉलेज के दिनों और उसके तुरंत बाद नौकरी शुरु करने के समय की बातें
किसी को बताता हूं तो उन बातों को संशय के साथ सुना जाता है. 1967 में जब मैंने
कॉलेज प्राध्यापक के रूप में अपनी नौकरी की शुरुआत की तो मेरे कॉलेज के सारे
प्राध्यापक, बल्कि प्रिंसिपल भी, साइकिल पर ही कॉलेज आते थे. सड़कों पर भी स्कूटर, मोटर साइकिल बहुत कम नज़र आते थे, कारें तो और भी कम.
कोई आठ बरस नौकरी करने के बाद मैंने अपने जीवन का पहला स्कूटर खरीदा, और वो भी सरकार से कर्ज़ा लेकर. तब तनख़्वाहें भी ज़्यादा कहां होती थीं?
उस समय मैं जिस सिरोही कॉलेज में कार्यरत था वहां मुझसे पहले मेरे
दो साथियों के पास स्कूटर थे. एक के पास लैम्ब्रेटा और दूसरे के पास राजदूत. एक के
लिए स्कूटर मज़बूरी था और दूसरे ज़रूरत से ज़्यादा शाही तबीयत के धनी थे. अन्यथा किसी
को स्कूटर रखने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती थी. जब मैंने भी स्कूटर खरीदा तो मेरे
कई शुभ चिंतकों ने मेरी इस फिज़ूल खर्ची पर सवाल उठाये. उन्होंने बाकायदा गणना करके
मुझे समझाया भी कि मैं अनावश्यक रूप से हर माह पैट्रोल पर इतना खर्चा करने की
मूर्खता कर रहा हूं.
जिस
ज़माने की मैं बात कर रहा हूं उसमें स्कूटरों का राजा हुआ करता था वेस्पा. भले ही
इसे स्टार्ट करने के लिए एक तरफ झुकाना होता था, जिनके पास यह होता था उनकी शान और ऐंठ अलग ही होती थी. लेकिन वेस्पा आसानी
से मिलता कहां था? बुकिंग करवानी होती थी और लम्बी प्रतीक्षा
सूची का धैर्य रखना होता था. जब लगभग उन्हीं दिनों उदयपुर में वेस्पा की बुकिंग
शुरु हुई तो ऐसी भगदड़ मची कि घुड़सवार पुलिस को उसे काबू करने में खासी मशक्कत करनी
पड़ी और उस भगदड़ में कई लोगों ने अपनी जानें तक गंवाई. और यह हालत वेस्पा की ही नहीं थी. लैम्ब्रेटा
भी बुक करवाने के बाद इंतज़ार के बाद ही मिलता था. सरकारी कर्मचारियों के लिए एक
अलग प्रतीक्षा सूची भी होती थी जिसके आधार पर उन्हें यह स्कूटर देने में
प्राथमिकता दी जाती थी. ख़ुद मैंने भी इस सरकारी प्राथमिकता के लिए आवेदन किया था. यह
बात अलग है कि मेरा नम्बर कभी आया नहीं. उन्हीं दिनों एक सरकारी उपक्रम स्कूटर्स
इण्डिया का नया स्कूटर विजय डीलक्स बाज़ार में उतरा तो स्कूटर स्वामी बनने की मेरी
आकांक्षा ने भी ज़ोर मारा, और मैंने भी उदयपुर में अपने
लिए एक विजय डीलक्स स्कूटर बुक करवा लिया. स्कूटर की कीमत थी चार हज़ार सात सौ सैंतालीस
रुपये. लयात्मक राशि (चार सात चार सात)
होने के कारण यह मुझे अब तक स्मरण है. लेकिन इतना पैसा एक मुश्त चुकाने की
अपनी क्षमता थी नहीं सो सरकारी ऋण के लिए आवेदन किया और वो मिल भी गया, जिसकी कटौती कई बरस होती रही. जब उदयपुर के डीलर से सूचना मिली कि हम
डिलीवरी लेने आ सकते हैं तो सिरोही से हम दो साथी अपने दो मित्रों के साथ उदयपुर
गए. तब तक मुझे स्कूटर चलाना आता ही नहीं था. स्कूटर खरीदने वाले दूसरे साथी का भी यही हाल था. लौटते हुए रास्ते में थोड़ी
देर हिम्मत कर मैंने स्कूटर चलाया तो नदी की एक रपट पर फिसला भी सही. लेकिन उस समय
स्कूटर स्वामी बन कर जो खुशी हासिल हुई वो खुशी बाद में चौपहिया वाहन खरीद कर भी
हासिल नहीं हुई, दूसरा स्कूटर खरीदने के मौके की तो बात ही क्या
की जाए. मेरे यह स्कूटर खरीदने के बाद मेरे कॉलेज के कई अन्य मित्रों ने भी
उदयपुर से ही यह स्कूटर खरीदा और अनुभवी होने के नाते
उनमें से अनेक के साथ इस बड़ी खरीददारी के लिए उदयपुर जाने का सौभाग्य मुझे मिला.
आज
भले ही यह बात अविश्वसनीय बल्कि हास्यास्पद लगे, उस ज़माने में विजय स्कूटर का स्वामी होना भी बड़े गर्व की बात थी और हम
दोनों ने अपने दोनों बच्चों के साथ इसी स्कूटर पर कई बार सिरोही से उदयपुर की
यात्राएं कीं. शिवगंज सुमेरपुर तो इतनी बार गए कि उसकी गिनती ही मुमकिन नहीं. यह
गर्व बोध काफी समय तक बरकरार रहा. 1998 से 2000 के बीच जब मैं आबू रोड कॉलेज में
प्राचार्य रहा तब भी न जाने कितनी बार हम दोनों अपने स्कूटर पर आबू रोड से अम्बाजी
और माउण्ट आबू गए. तब तक स्कूटर को एक सम्मानजनक वाहन माना जाता था. उसका अवमूल्यन तो
आगे जाकर हुआ.
सिरोही
में मेरे दो दशक से भी अधिक के कार्यकाल में आरजेडब्ल्यू 1615 नम्बर प्लेट वाला वह
नीला विजय डीलक्स स्कूटर मेरे व्यक्तित्व के साथ इस तरह एकाकार हो गया था कि कहीं
उस स्कूटर के खड़े होने का मतलब ही वहां डीपी अग्रवाल के होने का होता था. बाद में
जब मेरा बेटा भी मेरे इस स्कूटर का इस्तेमाल करने लगा तो मेरे दोस्त बड़े सहज भाव
से मुझसे अपना यह ज्ञान साझा कर लिया करते
थे कि कल आप अमुक जगह गए थे, जबकि
असल में वहां मेरा बेटा गया होता था. इसी पहचान की वजह से एक मज़ेदार प्रसंग भी उत्पन्न हो
गया, जिसकी चर्चा आगे चलकर करूंगा.
1996 में उपाचार्य पद पर मेरी पदोन्नति हुई और मुझे सिरोही छोड़ कर
कोटपूतली जाना पड़ा. तब तक मेरा यह स्कूटर भी वृद्धावस्था को प्राप्त होने लगा था.
लेकिन मुझे इससे लगाव भी था, और यह मेरी
ज़रूरत भी था सो इसे साथ ले गया. जब दो-एक बार वहां इसकी रिपेयर की ज़रूरत पड़ी तो
जिस भी मैकेनिक के पास मैं इसे लेकर गया, उसने इसे आगे-पीछे, ऊपर नीचे देखकर पहला सवाल यही
किया कि यह है क्या चीज़? ज़ाहिर है कि उन लोगों ने इससे पहले विजय स्कूटर
नाम की कोई चीज़ नहीं देखी थी. वो लोग इसकी रिपेयर करने के प्रति भी उदासीन ही रहते,
क्योंकि यह उनके लिए अपेक्षाकृत नई चीज़ था. ख़ैर! जैसे–तैसे मेरा काम
तो इस स्कूटर से वहां चल ही गया.
मात्र दस माह में मेरा स्थानांतरण वहां से
सिरोही हो गया. और क्योंकि यह स्थानांतरण मेरे इच्छित स्थान सिरोही हुआ था, मैं बिना एक भी दिन का विलम्ब किये वहां से सिरोही के लिए रवाना हो गया.
गृहस्थी का सामान तो ज़्यादा था नहीं, सो वह तो साथ ही ले
आया. असल संकट तो इस स्कूटर का था. कोटपूतली में रेल्वे स्टेशन है नहीं सो स्कूटर
ट्रांसपोर्ट से ही सिरोही भेजा जा सकता था, और यह काम करने
का मेरे पास समय था नहीं. इसलिए अपना यह
स्कूटर मैं वहीं अपने कॉलेज के एक
प्रयोगशाला सहायक राजेश सैनी के पास इस अनुरोध के साथ छोड़ आया कि वह
यथासुविधा इसे ट्रांसपोर्ट से बुक करवा के सिरोही भेज दे. कुछ दिनों के बाद उसने
मेरा स्कूटर ट्रांसपोर्ट से बुक करवा के सिरोही भेज दिया. ट्रांसपोर्ट वाले ने
इसके लिए एक हज़ार रुपये चार्ज किये. अब आगे की बात बड़ी दिलचस्प है. ट्रांसपोर्ट
में थोड़ी बहुत टूट फूट तो होती ही है. मेरे वयोवृद्ध स्कूटर के भी बांये
हाथ में कुछ चोट आ गई जिसे बड़ी मुश्क़िल से सिरोही में मेरे स्थायी स्कूटर मैकेनिक
डाया लाल ने ठीक किया. इस पर करीब पांच सौ रुपये का खर्चा और आ गया. लेकिन तब तक
मुझे लगने लगा था कि अब इस स्कूटर के साथ मेरा रिश्ता और नहीं निभ सकेगा, इसलिए मैंने एक नया स्कूटर ले
लिया. अब सवाल उठा कि इस पुराने, बूढ़े स्कूटर का क्या
किया जाए? इधर उधर
बात की, लोगों से कहा कि मुझे मेरा पुराना स्कूटर बेचना है
तो एक ग्राहक घर में ही मिल गया. मेरे पुराने कॉलेज का एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी
उसे खरीदने को तैयार हो गया. और उसे मैंने अपना यह लाड़ला स्कूटर बड़े भारी मन से
बेच दिया. पूछना चाहेंगे कि कितने में बेचा? पूरे एक हज़ार
रुपये में! बेचने के बाद ख़ुद मुझे लगा कि मैं कितना बड़े वाला ‘वो’ हूं! अगर मैं इस स्कूटर को सिरोही न लाया होता
और इसे कोटपूतली की सड़क पर लावारिस भी छोड़ आया होता तो मुझे शुद्ध पांच सौ रुपये
की बचत होती. लेकिन जो हुआ सो हुआ!
लेकिन किस्सा यहीं ख़त्म नहीं हो गया. इस कथा
का एक और लेकिन अभी बाकी है. केक पर
आइसिंग का मज़ा तो अब आएगा. भले ही मैंने एक नया, मिलिट्री ग्रीन रंग का
स्कूटर खरीद लिया था, सिरोही में आरजेडब्ल्यू 1615 नम्बर
प्लेट वाला नीला विजय डीलक्स स्कूटर मेरे व्यक्तित्व के साथ स्थायी रूप से जुड़
चुका था. लोग स्कूटर देखते तो कल्पना कर लेते कि डीपी अग्रवाल भी आसपास यहीं कहीं
होंगे. जब मैंने यह स्कूटर अपने उस पुराने कर्मचारी को बेच दिया तो उसके कुछ ही
दिनों बाद दबे स्वरों में सिरोही में यह चर्चा सर उठाने लगी कि आजकल अग्रवाल साहब
के रंग-ढंग कुछ ठीक नहीं हैं. इस कुचर्चा के मूल में था मेरा वह 1615 नम्बर का
स्कूटर जिसे लोग पिछले कुछ दिनों से हर शाम स्वरूप क्लब के पास वाले देशी दारु के
ठेके के पास खड़ा देख रहे थे. यह मान लिया गया कि जब उनका स्कूटर यहां है तो
अग्रवाल साहब भी यहीं होंगे! और देशी दारु
के ठेके पर होंगे तो ज़ाहिर है कि उसका सेवन भी कर ही रहे होंगे! असल बात यह थी कि
मेरे कॉलेज का वह कर्मचारी देशी मदिरा का नियमित सेवन करता था, और अब जब उसने स्कूटर खरीद लिया था तो बड़ी शान से हर शाम उस स्कूटर पर
आसीन होकर अपना शौक पूरा करने जाने लगा था. जैसे ही यह कुचर्चा मुझ तक पहुंची,
मैंने उस शौकीन मिजाज़ कर्मचारी को बुलाया और उसे पाबंद किया कि वो
अपना शौक भले ही ज़ारी रखे, मेरा स्कूटर लेकर वहां न जाया
करे! मैं तो उससे अपना स्कूटर वापस भी खरीद लेने को तैयार था, लेकिन उसने इसके बिना ही मेरी बात
मान ली.
तो, यह था मेरा संक्षिप्त स्कूटर पुराण!
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