कोरोना वायरस से अपनी सुरक्षा
के लिए अपने-अपने घरों में कैद हम सब बड़ी फुरसत में हैं और अलग-अलग तरह से अपना अपना
मन बहलाने का प्रयास कर रहे हैं. कुछ यह कल्पना करने में लगे हैं कि यह संकट टल जाने
के बाद की दुनिया कैसी होगी, तो कुछ उस दुनिया
को याद कर रहे हैं जिसे वे पीछे छोड़ आए हैं. ऐसा ही काफी कुछ करते हुए मैं भी वॉटसएप
पर एक नए समूह के सम्पर्क में आया, जिसका नाम है ऑटोग्राफ़ बिगिनर्स ग्रुप.
एक ज़माना था जब किसम किसम की हॉबीज़ का चलन था. कोई डाक टिकिट इकट्ठे करता था,
कोई सिक्के, तो कोई माचिसों के लेबल, तो कोई बड़े लोगों के हस्ताक्षर. तब तक सेलिब्रिटी शब्द चलन में नहीं आया था.
एक शौक चिट्ठियां लिखने और बड़े लोगों के जवाब पाने का भी था. खुद मेरे पास कोई हज़ारेक
चिट्ठियां तो होंगी ही जो मैंने इस शौक़ के तहत बड़े लोगों को लिख कर जवाब में उनसे प्राप्त
की थीं. किसी का जन्म दिन होता, उन्हें पत्र लिखते और लौटती डाक
से उनका हस्ताक्षर किया हुआ जवाब आ जाता. उन बड़े लोगों में जवाहर लाल नेहरु,
राजेंद्र प्रसाद, डॉ एस. राधाकृष्णन आदि से लगाकर
जॉन एफ कैनेडी तक थे. फिल्मी सितारों में तब मेरी ज़्यादा रुचि नहीं थी, लेकिन जब उनका दीवान शाया हुआ तो मैंने मीनाकुमारी को एक चिट्ठी ज़रूर लिखी
थी. तत्कालीन परम्परानुसार उनका हस्ताक्षरित एक श्वेत श्याम चित्र भी मेरे पास आया
था, जो ज़ाहिर है उनके सेक्रेटरी ने भेजा होगा. वो चिट्ठियों का
ज़माना था, जिसे बाद में ई मेल आदि ने विस्थापित कर दिया.
उस ज़माने में क्योंकि सुरक्षा के बड़े तामझाम नहीं होते थे, किसी भी
बड़े आदमी (या औरत) के पास आपका पहुंचना बहुत कठिन नहीं होता था. ‘गाइड’ की शूटिंग के दौरान देव आनंद, वहीदा रहमान, नोबल पुरस्कार विजेता लेखिका पर्ल एस बक,
किशोर साहू आदि को मैंने इतनी बार और इतने नज़दीक से देखा कि चाहता तो
उनके ऑटोग्राफ़ भी ले ही सकता था. पर्ल एस बक तो उदयपुर में मेरे घर के पास वाले जगदीश
मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी अक्सर दिखाई दे जाती थीं. बेशक देव आनंद या वहीदा रहमान के
आस पास थोड़ी भीड होती थी लेकिन क्योंकि वे लोग गाइड की शूटिंग के लिए लम्बे समय उदयपुर
में रहे, भीड़ भी आहिस्ता-आहिस्ता कम होती गई थी.
मेरा बचपन क्योंकि उदयपुर में बीता है, मैं उदयपुर
की ही बत करूंगा. उस ज़माने में, सत्तर के दशक के मध्य में,
उदयपुर में नेताओं का आना खूब होता था. उनकी आम सभाएं वगैरह भी होती
थीं और लोग बड़ी सहजता से उनसे हाथ भी मिला लिया करते थे. तब न कैमरे ज़्यादा चलन में
थे और न सोशल मीडिया का जन्म हुआ था, इसलिए उस समय का दस्तावेज़ीकरण
उपलब्ध नहीं है. अभी मैं जिस प्रसंग का ज़िक्र करना चाहता हूं उससे यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि उस ज़माने के नेता कितने सहज और मानवीय
होते थे. उदयपुर के भारतीय लोक कला मण्डल के मुक्ताकाश मंच पर कोई सरकारी कार्यक्रम
था. उस कार्यक्रम में बहुत सारे अन्य लोगों के साथ केंद्रीय काबीना मंत्री एस. के.
डे भी आए हुए थे. एस. के. डे देश के पहले सहकारिता और पंचायती राज मंत्री थे. भारत
में सामुदायिक विकास में उनका योगदान अप्रतिम है. तो अपन भी घूमते फिरते उस आयोजन में पहुंच गए. तब मैं बी.ए. का विद्यार्थी था. जब कार्यक्रम
समाप्त हुआ तो मैं भी मंच पर चढ़ गया और अपनी ऑटोग्राफ़ बुक एस. के. डे के सामने कर दी.
वे शायद जल्दी में थे. उन्होंने मुझसे मेरी वह ऑटोग्राफ बुक ली और कहा कि आप मेरे सेक्रेटरी
को अपना पता लिखवा दें, मैं इसे आपके घर भिजवा दूंगा. मैंने कहा
कि मेरा पता तो इस ऑटोग्राफ बुक पर ही लिखा हुआ है. डे साहब ने कहा, अच्छा! और चल दिये. मैं बड़ा हताश. सोचा, अब तक जो बीसेक
ऑटोग्राफ इकट्ठे किये हैं वे सब भी गए. भला किस मंत्री को इतनी फुरसत हो सकती है कि
एक साधारण से लड़के की ऑटोग्राफ बुक लौटाना याद भी रखे.
लेकिन अगले दिन सुबह आठ बजे ही मेरे घर के सामने एक लाल पट्टी वाली सफेद एम्बेसेडर कार आकर रुकी, उसमें
से उतरे एक रौबदार आदमी ने किसी से मेरा नाम पूछा, और जब उसने
मेरी तरफ इशारा किया तो उस आदमी ने मेरी ऑटोग्राफ
बुक मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, मंत्री जी ने भिजवाई है. यह बात
है 24 जनवरी 1964 की.
उस ज़माने में जो एक वरिष्ठ और अति सम्मानित काबीना मंत्री ने
किया, वैसा करने की उम्मीद आज एक विधायक से भी कर सकते हैं?
●●●
No comments:
Post a Comment