Tuesday, August 4, 2020

प्राचार्य कैसे-कैसे-2

मैंने जुलाई 1967 में राजस्थान कॉलेज शिक्षा सेवा में प्रवेश किया और नवम्बर 2003 में इस सेवा से निवृत्त हुआ. लगभग 36 वर्षों के इस कार्यकाल में अंतिम 32 माह को छोड़कर, जब मैं निदेशालय कॉलेज शिक्षा में संयुक्त निदेशक पद पर कार्यरत रहा, सारा समय विभिन्न महाविद्यालयों में कार्यरत रहा. इस दौरान मुझे लगभग बीस प्राचार्यों के साथ काम करने का अवसर मिला और उनमें से हरेक से मैंने कुछ न कुछ सीखा. आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो उन बीस में से एक स्वर्गीय महेश कुमार भार्गव मुझे कुछ ज़्यादा ही याद आते हैं. वे 1978 से 1981 तक राजकीय महाविद्यालय, सिरोही में मेरे प्राचार्य रहे. उनके व्यक्तित्व और कार्य शैली का मुझ पर इतना भारी प्रभाव रहा कि जब मार्च 2000 में मैं राजकीय महाविद्यालय सिरोही का प्राचार्य बना तो एक क्षण को मैं उस कुर्सी पर बैठते हुए झिझका जिस पर कभी एम. के. भार्गव जैसे प्राचार्य बैठ चुके थे, और फिर दूसरे ही क्षण मुझे यह गर्व भरी प्रतीति हुई कि मैं इतनी महान परम्परा की एक कड़ी बनने जा रहा हूं. भार्गव साहब से जुड़ा एक संस्मरण कुछ दिन पहले मैं साझा कर चुका हूं (देखें: प्राचार्य कैसे-कैसे).  आज उसी क्रम को आगे बढ़ा रहा हूं:

एक छोटी-सी, बल्कि कहें उनकी बहुत बड़ी बात आज मेरे जेह्न पर दस्तक दे रही है. यह बात उस व्यक्ति की मानसिक निर्मिति को दर्शाती है. प्राचार्य भार्गव साहब की बेटी मंजरी भार्गव भी हमारे ही कॉलेज में इतिहास की प्राध्यापिका थीं. शायद कुछ लोगों को याद हो कि ये मंजरी भार्गव तैराकी की अर्जुन पुरस्कार विजेता भी थीं. लेकिन विमला और मेरे लिए वे न प्रोफ़ेसर थीं, न अर्जुन पुरस्कार विजेता. हमारे लिए वे केवल मंजु जी थीं. हुआ यह कि एक दिन हम कुछ परिवारजन भार्गव साहब के बंगले पर बैठे गपशप कर रहे थे (बाद में वही बंगला कुछ समय के लिए हमारा भी आशियाना बना!). मंजरी ने कोई लेख लिखा था और उस पर वे मेरी सलाह चाह रही थीं. उन्होंने बड़े सहज भाव से कहा “अग्रवाल साहब, आप इस काम के लिए कब आ सकेंगे?” यह कोई ख़ास बात नहीं थी. भार्गव साहब कॉलेज में प्राचार्य थे लेकिन उनसे हमारी बहुत गहरी पारिवारिकता थी. इतनी ज़्यादा कि जब भी उनके यहां कढ़ी बनती, वे कॉलेज में ही चपरासी को भेजकर मुझे अपने चेम्बर में बुलाते और हौले-से कहते, “डीपी, आज घर पर कढ़ी बनी है. लंच में मेरे साथ चलना!” मेरा कढ़ी प्रेम विश्वविख्यात था और है. लेकिन जैसे ही मंजरी ने मुझसे अपने घर आने को कहा, भार्गव साहब ने फौरन उन्हें टोका. बोले, “मंजु, अग्रवाल साहब तुम्हारे घर क्यों आएंगे? ये तुमसे सीनियर हैं. तुम्हें पूछना चाहिए कि सर, मैं आपके यहां कब आ सकती हूं?” क्या आज कोई कल्पना भी कर सकता है कि एक प्राचार्य पिता अपनी प्राध्यापक बेटी को इस तरह टोक सकता है? लेकिन भार्गव साहब वाकई अदभुत थे. अद्भुत और अनुकरणीय. उनसे बहुत सीखा है मैंने.

और यह लिखते हुए मुझे उनका एक और प्रसंग याद आ रहा है, जिसे बताए बिना रहा नहीं जा रहा है. वह सर्दी की रात थी. शायद दिसम्बर का महीना रहा होगा. हम खाना खाकर रजाई में घुस चुके थे. कोई आठेक बजे घर की घण्टी बजी. रजाई में से निकल कर, ताला खोलकर बाहर आया तो देखा प्राचार्य भार्गव साहब खड़े हैं. वैसे हम लोगों का एक दूसरे के यहां खूब आना-जाना था, और जैसा मैंने पहले भी कहा है, भार्गव साहब हम लोगों से कुछ ज़्यादा ही स्नेह रखते थे, लेकिन उस समय उनका आना मुझे भी चौंका गया. मैं उनसे कुछ कहता-सुनता और उन्हें घर के भीतर आने को कहता, उससे पहले विमला, मेरी पत्नी भी बाहर आ गईं. भार्गव साहब बोले, “उमा (उनकी पत्नी) कार में हैं. वे यहां मिसेज़ अग्रवाल के पास रुकेंगी, और डीपी, तुम मेरे साथ चलो!” कोई भूमिका नहीं, कोई जानकारी नहीं. बस, साथ चलने का आदेश. मैंने बाहर जाने योग्य कपड़े पहन कर आने की इजाज़त ली और तब तक वे तथा श्रीमती भार्गव हमारे दरवाज़े पर ही खड़े रहे. मैं कपड़े बदल कर आया तो श्रीमती भार्गव कार से निकल कर मेरे घर में आ गईं और मैं कार में जा बैठा. तब तक भार्गव साहब ने नहीं बताया कि वे मुझे कहां ले जा रहे हैं. थोड़ी देर में कार जाकर रुकी हमारे कॉलेज के सामने. मेरे घर से कॉलेज बमुश्क़िल एक किलोमीटर दूर होगा. तो मुश्क़िल से तीन-चार मिनिट लगे होंगे. उन दिनों किसी मुद्दे पर छात्र हड़ताल पर थे और वे रात को भी कॉलेज के बाहर धरना दिये हुए थे. भार्गव साहब ने कार रोकी, मुझे बाहर निकलने का इशारा किया और हम दोनों सीधे कॉलेज के गेट पर जा पहुंचे जहां दस पंद्रह विद्यार्थी ठण्ड में सिकुड़ते हुए धरने पर जमे हुए थे. भार्गव साहब ने उनसे कहा कि तुम बेशक अपना धरना ज़ारी रखो, लेकिन मुझे यह फिक्र है कि कहीं ठण्ड के मारे बीमार न पड़ जाओ. मै यह देखने आया हूं कि तुम्हारे पास ओढ़ने बिछाने का पर्याप्त इंतज़ाम है या नहीं. अगर न हो तो मैं टेण्ट हाउस से अभी भिजवा देता हूं. और इतना कह कर वे वापस अपनी कार की तरफ मुड़े. पीछे-पीछे मैं. अब उनकी कार जाकर रुकी एक टेण्ट हाउस के सामने. उन्होंने आदेश दिया कि पंद्रह बीस गद्दे और रजाइयां तुरंत कॉलेज के बाहर पहुंचा दिये जाएं! यह सब देखकर मैं तो अवाक था. विद्यार्थी पूरे दिन प्राचार्य मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हैं और प्राचार्य है कि कड़कड़ाती ठण्ड में उनकी सेहत की फिक्र कर रहा है. रास्ते में वे मुझसे बोले, “डीपी, हैं तो ये अपने ही बच्चे! हम इनको बीमार पड़ता कैसे देख सकते हैं?” कहना अनावश्यक है कि अगली सुबह जब मैं कॉलेज पहुंचा तो पाया कि विद्यार्थी अपना धरना ख़त्म कर चुके थे. ऐसे बड़े मन वाले प्राचार्य को मैं कैसे भूल सकता हूं!

2 comments:

Sunita Bishnolia said...

बहुत ही सुंदर संस्मरण सर वास्तव में सही लिखा प्राचार्य कैसे कैसे
सर आज आपका कढ़ी प्रेम पता चला

डॉ. जेन्नी शबनम said...

बहुत भावुक और यादगार संस्मरण. कुछ लोगों का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली होता है कि आजीवन हमें प्रेरित करता है. बधाई एवं शुभकामनाएँ.