युवा मित्र यशवंत ने मुझे किन्हीं सज्जन का एक संदेश फॉरवर्ड किया है. इन सज्जन ने अपने परिचय में स्वयं को न्यूज़ प्रोड्यूसर एवम एडिटर इन चीफ़ बताया है. इन्होंने किसी संस्थान में लेखन विषयक किसी काम के लिए आवेदन करते हुए अपने परिचय में जो लिखा है उसका हिंदी अनुवाद यहां प्रस्तुत कर रहा हूं: “नमस्ते महोदय. मैंने हिंदी में सामग्री सर्जक (कण्टेण्ट क्रिएटर) के रूप में रेड एफएम, रेडियोसिटी, राजस्थान पत्रिका जैसे शीर्षस्थ मीडिया ब्राण्ड्स के साथ काम किया है. मैं एक महान लेखक हूं और हिंदी पर मेरा अधिकार मुंशी प्रेमचंद से भी बेहतर है. आप इस पद के लिए मेरे नाम पर विचार कर सकते हैं.” मुझे नहीं पता कि जिन्हें इन सज्जन ने यह संदेश भेजा है उन्होंने इनकी सेवाएं लेने का सौभाग्य प्राप्त किया या नहीं. लेकिन इनके इस संदेश को पढ़ते हुए मुझे अनायास अपनी नौकरी के दिनों के एक मित्र की याद आ गई. वे भी मेरी ही तरह कॉलेज व्याख्याता थे. उनके विषय का उल्लेख जान बूझकर नहीं कर रहा हूं. उनकी ‘रचनात्मकता’ उन दिनों उफान पर थी. महीने डेढ़ महीने में एक किताब वे लिख दिया करते थे. उनका प्रकाशक जिस विषय पर कहता उसी पर वे तीस-चालीस दिनों में चार पांच सौ पन्नों की किताब लिख कर पेश कर देते. जानकार साथीगण दबे स्वरों में उनकी किताबों को ‘छात्रोपयोगी’ कहा करते थे. यह भी सुनने को मिला था कि पुस्तक उत्पादन के इस काम को वे कुटीर उद्योग की तर्ज़ पर किया करते थे और उनकी पत्नी, बच्चे सभी इस उद्यम में सहयोग करते थे. करत-करत अभ्यास के वाली बात को चरितार्थ करते हुए उनकी पत्नी और बच्चे भी ‘लेखक’ बन गए.
मेरी उनसे दोस्ती थी. अब स्वीकार कर लेता हूं कि एक दिन मज़े लेने के लिए मैंने उनसे पूछा कि आप इतनी सारी ‘साहित्य सेवा’ कैसे कर लेते हैं? कहना अनावश्यक है कि यह सवाल पूछने से पहले मैंने उनकी रचनात्मकता की भूरि-भूरि सराहना की. शायद इस सराहना का ही प्रभाव था कि वे बहुत जल्दी खुल गए, और अपना एक ट्रेड सीक्रेट मुझे बता दिया. बोले, “आपकी हिंदी का कोई लेखक है, रामधारी सिंह दिनकर. उसकी किताब को मैंने अपनी इस किताब का आधार बनाया है.” मैंने बड़ी मासूमियत से पूछा, “आधार बनाकर फिर आपने क्या किया?” अब वे पूरी तरह खुल गए थे. बोले, “अरे डॉक्टर साहब. बस आधार पुस्तक मिल गई. इसके बाद तो कुछ ख़ास करना ही नहीं था. मैंने तो बस इस किताब की हिंदी थोड़ी ठीक कर दी. और मेरी यह किताब तैयार हो गई!” अब क्या यह भी बता ही दूं कि रामधारी सिंह दिनकर नामक लेखक की जिस किताब की हिंदी उन्होंने ठीक की थी, उस किताब का नाम क्या था? किताब का नाम था – 'संस्कृति के चार अध्याय!'
भले ही हिंदी पर प्रेमचंद से भी ज़्यादा अधिकार रखने वाले इस महान लेखक के दर्शनों का सौभाग्य मुझे नहीं मिला है, मैं इस बात पर तो गर्व कर ही सकता हूं कि रामधारी सिंह दिनकर की हिंदी ठीक करने की योग्यता रखने वाला एक व्यक्ति मेरा भी सहकर्मी और मित्र रहा है!
अपने यहां प्रतिभाओं की कमी थोड़े ही है!
1 comment:
ग़नीमत है कि उस महान लेखक महोदय ने ट्रेड सीक्रेट और सोर्स भी बता दिया।वैसे ऐसे महापुरुष हर जगह मिल ही जाते हैं।
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