Wednesday, February 17, 2016

धीरे-धीरे बोल, कोई सुन ना ले!

बहुत लम्बे अर्से तक मानवीय यौनिक (सेक्सुअल)  व्यवहार के बारे में कोई भी चर्चा किन्से रिपोर्ट्स के ज़िक्र के बग़ैर अधूरी रही है. अल्फ्रेड किन्से इण्डियाना विश्वविद्यालय में प्राणीशास्त्र के प्रोफेसर थे और इन्होंने किन्से  इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन सेक्स, जेण्डर एण्ड रिप्रोडक्शन की स्थापना की थी. जिन्हें किन्से रिपोर्ट्स के नाम से जाना जाता है वे दरअसल पुरुषों और स्त्रियों के यौनिक व्यवहारों का विश्लेषण करने वाली क्रमश: 1948 तथा 1953 में प्रकाशित दो अलग-अलग किताबें हैं. अपने ज़माने में किन्से की ये रिपोर्ट्स खासी विवादास्पद मानी गई थीं क्योंकि इनमें तब तक वर्जित माने जाने वाले बहुत सारे मुद्दों पर खुलकर चर्चा की गई थी.  लेकिन इन रिपोर्ट्स के छह दशक बाद पूरी दुनिया इतनी अधिक बदल चुकी है कि हर मुद्दे पर बहुत खुलकर बातें होने लगी हैं और उन बातों से आहत होना तो दूर की बात है, कोई चौंकता भी नहीं है.

किन्से ने लगभग 6000 स्त्रियों से व्यक्तिगत साक्षात्कार करने के बाद उनके यौनिक व्यवहार और इस विषयक उनकी पसन्द नापसन्द का विश्लेषण करते हुए पुरुषों और स्त्रियों की यौनिक  गतिविधियों का तुलनात्मक खाका प्रस्तुत किया था. इसे याद करते हुए हाल ही  में आए एक हज़ार से ज़्यादा स्त्रियों पर किए गए ग्लैमर सर्वे को देखें तो जहां हम यह पाते हैं कि आज का  यह सर्वे भी किन्से की इस बात से सहमति  ज़ाहिर करता है कि मानवीय यौनिक व्यवहार में एक निरंतरता होती  है लेकिन हर व्यक्ति की यौनिक पसन्द नापसन्द परिवर्तनशील होती है, वहीं इस सर्वे में भाग लेने वाली स्त्रियों में से कम से कम 63 प्रतिशत ऐसी हैं जो अपनी यौनिक पहचान को किसी एक लेबल तक सीमित नहीं रखना  चाहती हैं. इस बात को अगर थोड़ा खोलकर कहना हो तो यों कहा जा सकता है कि ये स्त्रियां केवल पुरुषों की तरफ ही नहीं, स्त्रियों की तरफ भी आकृष्ट हो सकती हैं और उनसे रिश्ते रख सकती हैं. इतना ही नहीं, इनमें से 47 प्रतिशत स्त्रियों ने तो खुलकर इस बात को स्वीकार भी किया है वे अन्य स्त्रियों की तरफ आकर्षित हुई हैं. 31 प्रतिशत ने और भी आगे बढ़ते हुए अन्य स्त्रियों के साथ यौनिक अनुभव साझा करने की बात भी स्वीकार की है. लेकिन एक मज़ेदार विरोधाभास यह भी सामने आया कि इस सर्वे  में भाग लेने वाली स्त्रियों में से 63 प्रतिशत ने यह कहा  कि वे ऐसे किसी पुरुष को डेट नहीं करेंगी जिसने किसी अन्य पुरुष के साथ दैहिक रिश्ते कायम किये हों. 

अगर आप यह सोचते हों कि यह सब तो उस पश्चिम की बातें हैं जो बहुत उदार, खुला या जो भी आप  समझते हों वो है, तो मैं बहुत विनम्रतापूर्वक  आपसे  निवेदन करना चाहूंगा कि कृपया पोर्नहब डॉट कॉम द्वारा हाल ही में जारी की गई वार्षिक रिपोर्ट पर भी एक नज़र डाल लें.  पोर्नहब दरअसल एक एडल्ट वीडियो वेबसाइट है लेकिन  हाल ही में इसने एक रिकॉर्ड लेबल लॉंच किया है, इसकी अपनी एक वस्त्र श्रंखला है, हाल ही में इसने एक स्कॉलरशिप फण्ड निर्मित किया है और एक नया अभियान बॉडी पॉजिटिव भी इसने शुरु किया है. तो इस पोर्नहब ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर भारतीय महिलाओं को लेकर कुछ  बड़े खुलासे  किये हैं, जो काफी चौंकाने वाले हैं. पोर्नहब के अनुसार भारत की महिलाएं दुनिया में सर्वाधिक पोर्न देखने वाली महिलाओं में तीसरे स्थान पर हैं. पहले और दूसरे स्थान पर क्रमश: अमरीका और यू.के. की महिलाएं हैं. ज़ाहिर है कि कनाडा, जर्मनी फ्रांस वगैरह  सब देशों की स्त्रियां पीछे हैं. दूसरी बात यह कि औसतन दुनिया भर के पुरुषों की तुलना में भारतीय स्त्रियां पोर्न देखने में थोड़ा-सा ज़्यादा समय बिताती हैं. तीसरी और और भी अधिक चौंकाने वाली बात पोर्नहब के अपने दर्शकों के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर यह है कि जहां दुनिया भर की स्त्रियां औसतन 35.3 वर्ष की उम्र में इस एडल्ट वेबसाइट पर आती हैं, भारतीय स्त्रियां 22 वर्ष की उम्र में ही आने लगती हैं. पोर्नहब ने अपने दर्शकों का लैंगिक आधार पर विश्लेषण करते हुए यह भी बताया है कि जहां पूरी दुनिया में औसतन 24% महिलाएं इस वेबसाइट को देखती हैं वहीं, भारत में यह प्रतिशत 30 है. वैसे अगर खुश होना चाहें तो यह याद कर सकते हैं कि जमैका और निकारागुआ में यह प्रतिशत क्रमश: 40 और  39 है.

किन्से रिपोर्ट और फिर ग्लैमर के सर्वे के सन्दर्भ में पोर्नहब के वार्षिक प्रतिवेदन के इन आंकड़ों की चर्चा से इतना तो स्पष्ट है कि जीवन के अंतरंग क्रियाकलापों को लेकर खुलेपन की बयार केवल कुख्यात पश्चिम में ही नहीं अपने पारम्परिक भारत में भी बहने लगी है. बेशक, यह बयार खुशी का नहीं फिक्र का ही पैगाम ला रही है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 16 फरवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, February 9, 2016

न उनकी रस्म नई है न अपनी रीत नई!

राजनेताओं के खिलाफ़ धरने प्रदर्शन वगैरह  कोई नई बात नहीं है. उनके काम काज और फैसलों से अनगिनत लोगों की ज़िन्दगियां प्रभावित होती हैं और यह बात कभी भी सम्भव नहीं हो सकती है कि सब पर अनुकूल प्रभाव ही पड़ें. जिन्हें उनके फैसलों से लाभ होता है वे अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए उनकी शान में जब तक सूरज चाँद रहेगा नुमा कसीदे पढ़ते हैं. लेकिन जो उनके फैसलों से प्रतिकूलत: प्रभावित होते हैं वे लिखते हैं, प्रदर्शन करते हैं, सियाही, जूता फेंकते हैं, नारे लगाते हैं..वगैरह. और सत्ता तंत्र इन तमाम विरोध प्रदर्शनों को यथासम्भव बाधित करने का प्रयास करता है. लेकिन सरकारी अमले की सारी कोशिशों के बावज़ूद अगर कोई किसी भी तरह अपना विरोध प्रदर्शन करने में कामयाब हो जाए तो पहले तो नेता जी के समर्थक उस पर अपनी ताकत का प्रयोग करते हैं और फिर सरकारी तंत्र अपनी तरह से उसे ‘देखता’  है.  यह तो कहा ही जाता है कि विरोध प्रदर्शन का यह तरीका ‘ग़ैर कानूनी’ है.

और कमोबेश जो अपने देश में होता है शायद वही दुनिया के अन्य देशों में भी होता है. यह समझ पाना मुश्क़िल है कि आखिर क्यों सरकारी तंत्र सरकार के रहनुमाओं के खिलाफ किसी भी तरह की आवाज़ को उठने नहीं देना चाहता. क्या वाकई हम सब निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय वाले समय से बहुत दूर निकल आए हैं? शायद ऐसा भी नहीं है. अगर ऐसा होता तो फैज़ अहमद फैज़ ने अपनी  नज़्म निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन में  यह नहीं लिखा होता:

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है,     न अपनी रीत नई

ये सारी बातें मेरे जेह्न में आई सुदूर न्यूज़ीलैण्ड  की एक घटना की  खबर पढ़ते हुए. हाल ही में पूरे पाँच साल चली वार्ताओं के बाद ऑकलैण्ड में एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए. अमरीका की अगुआई में किए गए इस ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप समझौते में अमरीका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, मेक्सिको, वियतनाम, मलेशिया, न्यूज़ीलैण्ड, ब्रुनेई, सिंगापुर, पेरु और चिली ये बारह देश शामिल हैं और माना  जा रहा है कि यह विश्व के सबसे बड़े व्यापारिक समझौतों में से एक है. समूह में शामिल इन बारह देशों की कुल जनसंख्या करीब 80 करोड़ है और इन देशों का दुनिया की अर्थव्यवस्था में योगदान 40 प्रतिशत आंका गया है. इस प्रशांत तटीय भागीदारी समझौते का लक्ष्य सदस्य देशों के बीच व्यापार व निवेश की सभी बाधाओं को दूर करना बताया गया है.

लेकिन जिस जगह इस समझौते पर हस्ताक्षर किये गए वहां की तमाम  सड़कें हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने जाम कर रखी थी. उनका कहना था कि इस समझौते से लोग न सिर्फ अपनी नौकरियां गंवा बैठेंगे, इन देशों की सम्प्रभुता भी खतरे में पड़ेगी. बात यहीं तक सीमित रहती तो मैं इसके बारे में लिखता भी नहीं. हुआ यह कि नॉर्थ आइलैण्ड के एक शहर वैतांगी  में  न्यूज़ीलैण्ड के आर्थिक विकास मंत्री  स्टीवन जॉयस पत्रकारों से बात करते हुए जब इस समझौते के फायदे गिना रहे थे, तभी अचानक जोसी बटलर नामक एक महिला ने गुलाबी रंग का एक डिल्डो (कृत्रिम लिंग) मंत्री  की तरफ फेंका और उस महिला का  निशाना इतना सच्चा था कि वह सीधा मंत्री महोदय के होठों से जा टकराया. उसके बाद तो जो अपने देश में होता है वही  वहां भी हुआ. पुलिस ने उस महिला को पूरी अशिष्टता से धर दबोचा, और ज़ाहिर है कि उसके बाद कानून ने अपना काम किया ही होगा. 

लेकिन तब तक मीडिया भी बीच में आ चुका था. एक साक्षात्कार में जोसी बटलर  ने कहा कि मैं यहां एक नर्स की हैसियत से हूं और मुझे रोगियों के अधिकारों  की चिंता है,  क्योंकि मुझे लगता है कि इस समझौते के बाद दवाइयां और उपचार बहुत महंगे हो जाएंगे और ज़्यादा लोग मौत की तरफ धकेले जाएंगे. इसलिए मुझे बहुत बुरा लग रहा है. एक और बयान में उसने और भी कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि यह समझौता हमारी सम्प्रभुता के साथ बलात्कार जैसा है, यह हमारे देश के साथ बलात्कार है क्योंकि इस समझौते के द्वारा हम अपने अधिकार और अपनी आज़ादी का सौदा कर रहे हैं.

इस सारे प्रकरण में मुझे मज़ेदार लगा उन मंत्री जी का बयान. इस घटना के फौरन बाद उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे नहीं लगता कि ऐसी घटनाएं रोज़-रोज़ घटित होती हैं. कुल मिलाकर तो मुझे यह खासा मज़ाकिया लगा है. राजनीति में हर रोज़ नए अनुभव  होते हैं. जनता की सेवा का यही तो सबसे बड़ा सुफल है!” 

आप नहीं कहेंगे- थ्री चीयर्स फॉर मंत्री जी!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में मंगलवार, 09 फरवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, February 2, 2016

क्यों बदल रही है सात समन्दर पार की गुड़िया बार्बी?

1967 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘तक़दीर’  में एक गाना था जो बहुत लोकप्रिय हुआ था:
सात समन्दर पार से  
गुड़ियों के बाज़ार से
अच्छी-सी गुड़िया लाना
गुड़िया चाहे ना लाना
पप्पा  जल्दी आ जाना!
और आज हम बात  कर रहे हैं सात समन्दर पार वाली लोकप्रिय गुड़िया बार्बी की!

छप्पन बरसों से पूरी दुनिया के गुड़िया साम्राज्य पर करीब-करीब एक छत्र राज करने वाली इस गुड़िया के रंग-रूप कद-काठी वगैरह में बहुत  बड़े बदलाव किए जा रहे हैं. इसकी निर्माता कम्पनी ने घोषणा की है कि इसी साल यानि 2016 में सात अलग-अलग रंगों की त्वचा वाली, तीस भिन्न-भिन्न  रंगों और चौबीस शैलियों की केश सज्जाओं वाली, नीली, हरी और भूरी आंखों  वाली और तीन अलग-अलग देहाकार वाली बार्बी गुड़ियाएं बाज़ार में आ जाएंगी.

कहना ग़ैर ज़रूरी है कि बार्बी की जानी-पहचानी छवि में यह बदलाव बाज़ार के दबाव में आकर  किया जा रहा है.  बावज़ूद इस बात के कि पूरी दुनिया के करीब एक सौ पचास देशों में बार्बी की दस खरब गुड़ियाएं बेची जा चुकी हैं और अब भी प्रति सैकण्ड तीन गुड़ियाएं बिकती हैं, पिछले कुछ समय से इसकी बिक्री में गिरावट देखी जा रही थी. पिछले एक दशक में पहली दफा सन 2014 में इस उत्पाद को लड़कियों के सबसे ज़्यादा बिकने वाले खिलौने के अपने गौरवपूर्ण स्थान से हाथ धोना पड़ा था. यही नहीं इस अक्टोबर माह में पूरी दुनिया में बार्बी  की बिक्री में चौदह प्रतिशत की गिरावट देखी गई.  बिक्री के अलावा, वैचारिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी इस उत्पाद  की काफी आलोचनाएं हो रही थीं. मुस्लिम देशों में जहां इसके अल्प वस्त्रों को लेकर नाराज़गी थी वहीं विचारवान लोग इसे प्लास्टिक प्रिंसेस ऑफ कैपिटलज़्म कहकर गरियाते थे. लेकिन इसकी सबसे मुखर और तीखी आलोचना तो इसकी अयथार्थवादी देह को लेकर होती थी. साढे ग्यारह  इंच वाली मानक बार्बी डॉल को 1/6 के पैमाने पर 5 फिट 9 इंच की आंकते हुए इसे 36-18-33 के आकार की माना गया और इसकी शेष देह की तुलना में इसकी 18 इंच की कमर को अपर्याप्त माना गया. इसी आलोचना के फलस्वरूप 1997 में इसकी कमर पर कुछ और चर्बी चढ़ाई गई.

लेकिन बार्बी को असल खतरा तो हुआ 21 वीं सदी की मम्मियों की तरफ़ से. बार्बी बनाने  वाली कम्पनी  की एक उच्चाधिकारी ने स्वीकार किया कि इस सदी की ये विचारवान माताएं सामाजिक न्याय से प्रेरित  हैं और इन्हें वे उत्पाद अधिक पसन्द आते हैं जिनके पीछे कोई उद्देश्य और मूल्य हों. तानिया मिसाद नामक इस अधिकारी ने बेबाकी से स्वीकार किया कि ये मम्मियां बार्बी को इस श्रेणी में नहीं गिनती हैं. और शायद यही स्वीकारोक्ति है इस बड़े बदलाव के मूल में.

वैसे इस गुड़िया के निर्माण की कथा को जान लेना भी कम रोचक नहीं होगा. बार्बी का निर्माण करने वाली कम्पनी की स्थापना 1945 में एलियट और रुथ हैण्डलर नामक दम्पती ने अपने कैलिफोर्निया स्थित घर के गैराज में की थी. हुआ यह कि रुथ ने अपनी बेटी बार्बरा और उसकी सहेलियों को कागज़ की बनी गुड़ियाओं  से खेलते देखा. ये लड़कियां इन गुड़ियाओं के साथ डॉक्टर-नर्स, चीयरलीडर और व्यापार करने वाली स्त्रियों के बड़ी उम्र वालों के रोल प्ले करवा रही थीं. याद दिलाता चलूं कि उस ज़माने में बाज़ार में सिर्फ दुधमुंही या प्राम में घुमाई जा सकने वाली उम्र की गुड़ियाएं मिलती थीं. तो हैण्डलर ने गुड़ियाओं से खेलने वाली बच्चियों की इस  ज़रूरत को समझा कि वे अपनी तमन्नाओं को मूर्त रूप देने के लिए गुड़ियाओं का प्रयोग  करना चाहती हैं. और तब उन्होंने इस विचार के इर्द गिर्द कि स्त्री के पास भी अपने विकल्प होते हैं, अपनी गुड़िया बार्बी का निर्माण किया. यहीं एक और मज़े की बात बताता चलूं  और वह यह कि हैण्डलर दम्पती ने अपनी बार्बी का निर्माण एक जर्मन गुड़िया बाइल्ड लिली के आधार पर किया था, और भरी-पूरी देह वाली यह गुड़िया बच्चों के लिए नहीं बड़ों के लिए निर्मित थी.

क्या पता इस सबके मूल में एक बात यह भी रही हो कि बार्बी डॉल अपने समय के फैशन को इतनी बारीकी से अंगीकार करती रही है कि आज भी आप तीस-चालीस बरस पहले की बार्बी को देखकर उसकी सज्जा के आधार पर यह बता सकते हैं कि उसका निर्माण किस दशक में हुआ होगा. लेकिन इधर खुद बार्बी के देश अमरीका में और शेष दुनिया में भी स्त्री देह, सौन्दर्य और उन के प्रति नज़रियों  में तेज़ी से जो बदलाव आ रहे हैं उन्होंने बार्बी के निर्माताओं को भी इस बड़े  बदलाव के लिए मज़बूर किया है. अब यह देखना है कि क्या यह बदलाव बार्बी की बिक्री के गिरते हुए हुए ग्राफ़ को थाम पाने में कामयाब होते हैं? इससे भी महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि विचारवान लोग इन बदलावों पर क्या कहते हैं! 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 फरवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  


Wednesday, January 27, 2016

पॉप अप वेडिंग यानि कम खर्च बालानशीं

इधर अपने भारत में समाचार माध्यम महंगी डेस्टिनेशन वेडिंग्स को ख़ास अहमियत देते हैं और उनके सचित्र विस्तृत समाचार देकर कई बार साहिर  लुधियानवी को याद करने के लिए मज़बूर भी करते रहते हैं. साहिर साहब की मशहूर नज़्म है ना – एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर.... लेकिन भाई, दुनिया का चलन है. जिसकी जैसी तमन्ना, आरज़ू और हैसियत होती है वो वैसा ही करता है. और ऐसा भी नहीं है कि महंगी शादियों पर केवल हम भारतीयों का ही एकाधिकार हो. भले ही ‘फैट इण्डियन वेडिंग का लेबल हम पर चिपक गया हो, जिनके पास दौलत है वे इस मौके पर उसे दिखाने और पानी की तरह बहाने से कोई गुरेज़  नहीं करते.

लेकिन सारी दुनिया तो  उन लोगों से भरी नहीं है जिनके पास अकूत वैभव है. जिनके पास बहुत कम है वे भी किसी न किसी तरह गुज़ारा करते हैं और अपने लिए नई राहों का निर्माण भी  करते हैं. बात जब शादियों की ही चल रही है तो क्यों न पश्चिम में आए एक नए ट्रेण्ड का ज़िक्र कर लिया जाए! वहां आजकल एक नई तरह की शादी बहुत लोकप्रिय होती जा रही है. इस शादी का नाम है – पॉप अप वेडिंग. अब पश्चिम में क्योंकि ज़्यादा काम व्यावसायिक रूप से होते हैं, उधर बहुत सारी कम्पनियां खड़ी हो गई हैं जो दावा करती हैं कि उन्हें पॉप अप वेडिंग करवाने में महारत हासिल हैं. उनके विज्ञापन देखें-पढ़ें तो हर कोई पॉप अप वेडिंग के लिए लालायित हो सकता है! लेकिन पहले यह तो जान लें कि यह पॉप अप वेडिंग है क्या!

आप यह समझ लीजिए कि पॉप अप वेडिंग करवाने वाली कम्पनियां शादी करने के इच्छुक   युगल को दुनिया वालों की नज़रों से दूर जाकर यानि भागकर शादी करने का रोमांचक किंतु सुनियोजित मौका प्रदान करती है. रोमांचक और सुनियोजित के अंतर्विरोध को आप थोड़ी देर के लिए नज़र अन्दाज़ कर दीजिए.  ज़ाहिर है कि जब आप भागकर शादी करेंगे तो उसमें मेहमानों की भीड़  भी नहीं होगी, यानि खर्चा भी बहुत कम होगा. तो अगर आप बिना मेहमानों के, बिना किसी ख़ास ताम-झाम के, बिना किसी तनाव के शादी करना चाहते हैं तो पॉप अप वेडिंग आपके लिए एकदम उपयुक्त है. कम्पनी आपके लिए बहुत दिलकश विवाह-स्थल, कुशल फोटोग्राफर, सज्जाकार,  वगैरह  सब कुछ उपलब्ध करा देगी. मेहमानों पर होने वाला खर्चा आप बचा लेंगे. चाहे तो उससे दुनिया घूम लीजिए, या अपना घर खरीद लीजिए. मतलब, अगर आपके पास कुछ धन हो.

और ठीक भी है. अगर बेहद धनी अपने पैसों के बल पर शानदार विवाह कर सकते हैं तो जिनके पास उतना वैभव नहीं है वे भी क्यों न अपनी शादी को यादगार बना लें? और यहीं सामने आती हैं वे कम्पनियां जिन्हें इस तरह की पॉप अप वेडिंग कराने में महारत हासिल है! आप उन्हें मौका तो दीजिए! अब क्या हुआ जो अपनी सेवाओं के लिए आपसे वे कुछ मेहनताना ले रही हैं. आपकी भारी बचत भी तो वे कर रही हैं. उनके पास आपके लिए सब कुछ तैयार है. प्राकृतिक दृश्यावलियों के वास्तविक-से प्रतीत होते बैकड्रॉप, और उन्हें और अधिक यथार्थ दिखाने का कौशल रखने वाले फोटोग्राफर, घुमंतू विवाह वेदियां और आसानी से उपलब्ध कर्मकाण्डी. और इतना ही क्यों? अगर युगल की हसरतें वहीं जंगल में मंगल करने यानि हनीमून मनाने की जाग उठें तो उनके पास एक ऐसा केबिन भी उपलब्ध रहता है जिसमें अच्छे खासे आकार का डबल बेड समा सके.

अगर आपको यह वर्णन थोड़ा कम रोचक लग रहा हो तो चलिये बात को और आगे बढ़ाया जाए! इन वेडिंग प्लानर्स ने एक क़दम और आगे बढ़ते हुए हमारे सामूहिक विवाहों की तर्ज़ पर सामूहिक पॉप अप वेडिंग भी करवाने की शुरुआत कर दी है. ज़ाहिर है कि इसके मूल में अर्थशास्त्र ही है. इस तरह के एक अमरीकी पॉप अप वेडिंग प्लानर ने प्रचारित किया है कि जब आप उनकी सेवाएं लेने का निर्णय कर लेंगे तो मुख्य आयोजन के एक दिन पहले वे एक वेलकम पार्टी में आपका स्वागत करेंगे. उसके बाद यानि अगले और मुख्य दिन हर युगल को अलग-अलग ब्रंच पर ले जाया जाएगा और उसके फौरन बाद उन्हें एक शानदार हॉलीवुड शैली का सौन्दर्य प्रसाधन पैकेज उपलब्ध कराया जाएगा जहां उनकी उपयुक्त केश सज्जा और मेक अप किया जाएगा. और इसके बाद होगी पॉप अप वेडिंग. इसमें हर युगल विवाह वेदी तक जाकर साथ जीने-मरने की शपथ लेगा. हां, कपनी ने हर युगल को इस सरप्राइज़ आयोजन में अधिकतम 14 अतिथि लाने  की भी  अनुमति दी है.

और अब इतना और जान लीजिए कि जहां अमरीका में औसतन एक पारम्परिक विवाह  का  खर्चा 31,213 डॉलर माना जाता है, कम्पनी यह सामूहिक विवाह मात्र 5,000 डॉलर प्रति युगल में सम्पन्न करवाने का वादा कर रही है. है ना सस्ता सौदा?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक  न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 27 जनवरी, 2016 को पॉप् अप वेडिंग यानि कम खर्च में शादी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.     

Tuesday, January 19, 2016

एक प्रतिबन्धित किताब की रोचक दास्तान

पूरी दुनिया में ऐसी अनगिनत किताबें हैं जिन्हें विविध कारणों से प्रतिबन्धित किया गया है. प्रतिबन्ध की दो बड़ी वजहें अश्लीलता और राजनीति रही हैं, हालांकि केवल ये ही दो वजहें नहीं रही  हैं. एक समय था जब किताब का केवल भौतिक अस्तित्व हुआ करता था. तब यह प्रतिबन्ध जितना प्रभावी होता था उसकी तुलना में आज प्रतिबन्ध एक रस्म अदायगी बन कर रह गया है. इण्टरनेट के विस्तार के बाद किताब ही क्यों, प्रतिबन्धित ऐसा क्या रह गया है जो सर्व सुलभ न हो!

ऐसी ही एक प्रतिबन्धित लेकिन सर्व सुलभ पुस्तक है मॉयन काम्फ़ (हिन्दी अर्थ: मेरा संघर्ष).  नाज़ी नेता एडॉल्फ हिटलर की यह किताब जो आंशिक  रूप से उनकी आत्मकथा और आंशिक रूप से उनके बड़बोले कथनों का खज़ाना है, पहली दफा 1925 और 1927 में दो खण्डों में प्रकाशित हुई थी और उसके बाद से इसके अनगिनत वैध-अवैध संस्करण पूरी दुनिया में छपे और बिके हैं. कहा जाता है कि 1933 में हिटलर के सत्ता में आने के बाद हर नव विवाहित जोड़े को यह किताब नाज़ी  शासन की तरफ से भेंट  में दी जाती थी.  लेकिन  द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद 1945 में जर्मनी में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया और अब भले ही यह कानूनी रूप से वहां प्रतिबन्धित नहीं रह गई है, उसके बाद से आधिकारिक रूप से इसे वहां प्रकाशित ही नहीं किया गया. लेकिन अब, बीते साल (2015)  के आखिरी दिन जर्मनी के बवेरिया  राज्य के पास इसका जो कॉपीराइट था वह सत्तर बरस पूरे कर समाप्त हो गया और इस तरह इसके पुन: प्रकाशन की राह खुल गई.

यह जानना भी कम रोचक नहीं होगा कि बावज़ूद प्रतिबन्ध के, खुद जर्मनी के स्कूलों में भी अन्य नाजी सामग्री के साथ-साथ इस किताब के अंश भी पढ़ाए जाते रहे हैं. लेकिन जब म्यूनिख़ के समकालीन इतिहास संस्थान ने इसके कॉपीराइट की अवधि पूरी होने के बाद इस किताब के एक नए, लगभग 2000 पन्नों के विस्तृत और टिप्पणी युक्त संस्करण को प्रकाशित करने की बात की तो इसके प्रकाशन के विरोध में तीव्र स्वर मुखर हो गए. स्वभावत: इस विरोध का भी विरोध हुआ.

संस्थान के अध्येताओं और इतिहासकारों ने तीन साल अनथक श्रम करके जो नया संस्करण तैयार किया उसके प्राक्कथन में हिटलर के लेखन को ‘अधपका, असंगत और अपठनीय’ कहा गया है. इन विद्वानों को इस लेखन की अनगिनत व्याकरणिक त्रुटियों ने बहुत दुःखी किया. लेकिन इसके बावज़ूद इन्होंने यह समझने और समझाने का प्रयास किया कि हिटलर ने कैसे नस्ल, स्पेस, हिंसा और तानाशाही – इन चार विचारों के आधार पर अपनी नाजी विचारधारा की नींव रखी. किताब के प्रकाशन के आलोचकों को शायद इसीलिए लगा कि हिटलर की विचारधारा को समझाने-समझाने का यह प्रयास वस्तुत: उनके कुकर्मों को मुलायम करते हुए उनकी बेहतर छवि गढ़ने का एक प्रयास है.

लेकिन दूसरे पक्ष का मानना है कि किसी किताब के प्रकाशन को रोके रखना  न तो  सम्भव है और न उचित. बवेरिया राज्य के वित्तमंत्री मार्क्स सोएडर ने कहा है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से वे  यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि इसमें कैसी निरर्थक  बातें लिखी हुई हैं और इस तरह के खतरनाक विचारों ने किस तरह पूरी दुनिया में विपदाएं पैदा की हैं. जर्मन असोसिएशन ऑफ टीचर्स के अध्यक्ष जोसेफ क्राउस ने भी  कहा कि इस नए  संस्करण को वहां के हाई स्कूल की कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ताकि जर्मनी की नई पीढ़ी पिछली पीढ़ी द्वारा किये गए अत्याचारों को जान कर  अतिवादी सोच के खतरों के प्रति सचेत हो सके. उनका यह भी कहना था कि अगर आप किसी किताब पर रोक लगाएंगे तो तो उसके प्रति उत्सुकता और अधिक बढेगी और लोग आसानी से उपलब्ध  ऑन लाइन संस्करणों का रुख  करेंगे. इससे तो यही अच्छा होगा कि इतिहास और राजनीति के अनुभवी और प्रशिक्षित शिक्षक विद्यार्थियों को इस किताब का परिचय दें.

तो, मॉयन काम्फ़ का यह नया, सुसम्पादित और विस्तृत टिप्पणियों युक्त संस्करण अंतत: मूल देश जर्मनी में प्रकाशित हो गया है और जो प्रारम्भिक खबरें आ रही हैं उनके अनुसार लगभग पाँच किलो वज़न वाला और उनसाठ यूरो (एक यूरो लगभग  74 रुपये के बराबर है) की अच्छी खासी कीमत वाला यह संस्करण प्रकाशकों की उम्मीदों से भी अधिक बिक रहा है. खबर यह भी आई है कि प्रकाशन पूर्व ही पन्द्रह हज़ार प्रतियों का आदेश मिल जाने की वजह से प्रकाशकों को इसके चार हज़ार प्रतियों के प्रथम मुद्रणादेश के भी बढ़ाना पड़ा था और जारी होने के कुछ ही घण्टों बाद अमेज़ॉन  की जर्मन साइट पर यह अनुपलब्ध था.

क्या इस बात से किताब जैसी चीज़ पर प्रतिबन्ध लगाने वाले कुछ सबक लेंगे?  
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 19 जनवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.    

Tuesday, January 12, 2016

गोरे रंग पे न इतना गुमान कर......

यह दुनिया भी अजीब है. जहां भारत सहित अधिकांश एशियाई देशों में गोरी चमड़ी के प्रति अतिरिक्त आकर्षण देखने को मिलता है वहीं उन देशों में जहां चमड़ी प्राकृतिक रूप से गोरी होती है लोग धूप में बैठ बैठकर और विभिन्न प्रकार के  लोशनों आदि का प्रयोग कर उसे ताम्बई रंगत देते हैं.  एक मार्केट रिसर्च कम्पनी ग्लोबल इण्डस्ट्री एनालिस्ट इनकॉर्पोरेटेड ने अनुमान लगाया है कि पूरी दुनिया में वर्ष 2020 तक त्वचा के रंग को हल्का बनाने वाले उत्पादों का कारोबार 23 बिलियन डॉलर्स तक जा पहुंचेगा और उसमें सबसे बड़ी भागीदारी एशिया पैसिफिक क्षेत्र के देशों की होगी. अपने देश में हम आए दिन ऐसे विज्ञापनों से रू-बरू होते रहते हैं जो यह दावा करते हैं कि उनके इस्तेमाल से आपकी  त्वचा का रंग गोरा हो जाएगा.  ये विज्ञापन दाता अपनी बात को वज़न देने के लिए किसी न किसी तरह गोरे रंग की महत्ता को रेखांकित करना भी नहीं भूलते हैं.

लेकिन हाल ही में जब थाइलैण्ड  की एक सौन्दर्य प्रसाधन निर्माता कम्पनी सिओल सीक्रेट ने अपने एक ऑनलाइन विज्ञापन में वहीं की जानी-मानी एक्ट्रेस क्रिस होरवांग के चेहरे को अश्वेत रंग में दर्शाया और उसकी तुलना एक गोरी चमड़ी वाली स्त्री से करते हुए उसे कमतर बताया तो हंगामा खड़ा हो गया. थाई नागरिक इस बात से तो नाराज़ हुए ही कि उनकी प्रिय एक्ट्रेस के चेहरे को  अश्वेत बना दिया गया था,  उन्हें इस वीडियो के नारे “विजेता होने के लिए आपका गोरा होना ज़रूरी है”  पर भी गम्भीर आपत्ति थी. थाई जनता की ये आपत्तियां इतनी पुरज़ोर थीं कि इस कम्पनी को न सिर्फ अपना यह विज्ञापन वापस लेना  पड़ा, उन्हें एक बयान भी जारी करना पड़ा. वैसे बयान था बड़ा मज़ेदार. कम्पनी ने कहा, “भेदभावपूर्ण  या नस्लीय सन्देश देने का हमारी कपनी का कोई इरादा नहीं था. हम तो बस यह कहना चाह रहे थे कि व्यक्तित्व, अपीयरेंस, दक्षताओं और प्रोफेशनिलिटी के सन्दर्भ में आत्म सुधार की बहुत अधिक महत्ता है.” 

इस विज्ञापन से आहत लोगों को स्वभावत: इस स्पष्टीकरण से संतोष नहीं हुआ और उनमें से बहुतों ने सोशल मीडिया पर इस आशय की टिप्पणियां कीं  कि इस तरह के टूटे-फूटे बहानों से काम नहीं चलने  वाला है. जैसा इस तरह के सारे मुद्दों पर होता है, कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें यह सारी बहस बेमानी लग रही थी और उनका कहना था  कि भाई, अगर आपको त्वचा को गोरा करने वाले उत्पादों पर आपति है तो उन्हें मत खरीदिये. झगड़े की क्या बात है? ऐसे लोगों को कम्पनी के इस प्रचार वीडियो में  कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा.
अगर हम इस विवाद से बाहर निकलकर इसी देश यानि थाइलैण्ड में इस तरह के उत्पादों के विज्ञापनों का अतीत खंगालें तो पाएंगे कि यह अपनी तरह का पहला मामला नहीं है. वैसे तो बहुत बड़ी बहु राष्ट्रीय कम्पनियां अपने सौन्दर्य (यानि गोरा बनाने वाले) उत्पादों के विज्ञापन के लिए रेडिएंस और परफेक्ट जैसे शब्दों का चालाकीपूर्ण उपयोग करती ही रही हैं, खुद उस देश की अनेक कम्पनियां भी अपने उत्पादों को बेचने  के लिए पक्के रंग की चमड़ी  वाली युवतियों और स्त्रियों का उपहास करती रही हैं. दरअसल थाइलैण्ड में गहरे रंग की चमड़ी का रिश्ता किसानों और श्रमिकों से कायम किया जाता है. समाज के निचले तबके के इन लोगों को तेज़ धूप में अनथक श्रम करना होता है जिससे इनकी चमड़ी झुलस कर पक्के रंग की हो जाती  है. समाज के ऊंचे तबके के लोग सुरक्षित माहौल में रहते हैं और इस वजह से उनकी चमड़ी का रंग उजला बना रहता है. विज्ञापनों आदि के द्वारा सारा माहौल गोरी चमड़ी के पक्ष में तैयार कर दिया गया है और लोग तथा खास तौर पर स्त्रियां अप्रामाणिक, अवैध और चमड़ी को गोरा बनाने के मिथ्या दावे करने वाले उत्पादों के प्रयोग का खतरा उठाते रहते हैं.  सन 2012  में वहां एक कम्पनी ने तो उस वक़्त हद्द ही कर दी थी जब उसने अपने एक उत्पाद के विज्ञापन में यह दावा किया था कि उसके इस्तेमाल से स्त्री देह के अंतरंग हिस्सों की त्वचा चमकदार और पारभासी (ट्रांसलुसेण्ट) हो जाएगी.   

अभी  दो बरस पहले ही वहां की एक कम्पनी के पेय पदार्थ के एक विज्ञापन चेहरे मोहरे और बोलने के लहज़े से एक व्यक्ति को अफ्रीकी मूल का दर्शाते हुए उसकी बेटी को इस पेय पदार्थ के पीने से काली से गोरी होते हुए दर्शाया गया था. इसी तरह जब वहां की एक कम्पनी ने उन विद्यार्थियों को नकद धनराशि देने का वादा किया जो उसके उत्पादों के प्रयोग से अपनी चमड़ी को गोरा बना लेंगे तो इसका भी पुरज़ोर विरोध किया गया था.


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अयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 12 जनवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 5, 2016

ताकि जी सके वो अपनी तरह से अपनी ज़िन्दगी

संयुक्त राज्य अमरीका का एक राज्य है ओरेगॉन. इस राज्य का नाम सुनते ही हम भारतवासी अपने ओशो को ज़रूर याद कर लेते हैं जिन्होंने अस्सी के दशक में इसी राज्य में रजनीशपुरम नाम से अपना एक अत्यधिक वैभवशाली साम्राज्य खड़ा किया था. यह अलग बात है कि कोई एक  दशक पहले जब मुझे इस राज्य में जाने का मौका मिला तो वहां ओशो या रजनीश के नाम से कुछ मिलना तो दूर रहा, इस नाम की स्मृतियां भी नदारद पाई गईं. अभी शुरु हुए नए साल में इस राज्य ने संयुक्त  राज्य अमरीका में एक महत्वपूर्ण पहल की है. इस पहल का परिचय देने से पहले यह बता देना ज़रूरी होगा कि दुनिया के और बहुत सारे देशों की तरह, और भारतीय चलन से हटकर, अमरीका में आप बिना डॉक्टर की पर्ची के कोई भी दवा नहीं खरीद सकते हैं. इस व्यवस्था  के कारण ही इस अमरीकी राज्य में साल के पहले दिन से शुरु हुई नई व्यवस्था की अधिक महत्ता है.

इस व्यवस्था  का सम्बन्ध गर्भ निरोध से है. बहुत सारी स्त्रियां विभिन्न कारणों से गर्भ निरोध के लिए गोलियों या पैचेस का इस्तेमाल करती हैं और ये न केवल खासे महंगे हैं, बिना डॉक्टर की पर्ची के इन्हें प्राप्त भी नहीं किया जा सकता था. इन दोनों कारणों से कई बार सुरक्षा चक्र अटूट नहीं रह पाता था, यानि इन्हें इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के कुछ दिन असुरक्षित हो जाते थे. लेकिन अब वहां दो हाउस बिल प्रभावी हो गए हैं जिनसे यह खतरा पूरी तरह निर्मूल हो गया है. हाउस बिल 3343 में यह प्रावधान किया गया है कि जो कम्पनी आपका बीमा करती है वह पूरे बारह महीनों के गर्भ निरोधकों  का भुगतान एक साथ करेगी, और इससे गोलियों या पैचेस की पूरे साल की निर्बाध आपूर्ति सम्भव हो जाएगी. यहीं यह उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि अमरीका में चिकित्सा सुविधाएं बहुत महंगी हैं और वहां के नागरिक समुदाय का एक बड़ा हिस्सा इस महंगाई से पार पाने के लिए बीमा योजनाओं का सहारा लेता है.

दूसरा  हाउस बिल 2879 और अधिक क्रांतिकारी है. इस बिल के द्वारा दवा विक्रेताओं को भी उन विशेषज्ञों की सूची में जगह दे दी गई है जो गर्भ निरोधक प्रेस्क्राइब कर सकते हैं. हालांकि यह काम उतना भी आसान नहीं होगा जितना प्रथम दृष्टि में लगता है, कि आप दवा विक्रेता के पास जाएं, उससे  अनुरोध करें और वो आपको गर्भ निरोधक  प्रेस्क्राइब कर दे. पहली बात तो यह कि यह सुविधा 18 वर्ष से कम की युवतियों को सुलभ नहीं होगी. उन्हें  अपना पहला प्रेस्क्रिप्शन तो डॉक्टर से ही लेना होगा, उसके बाद ही वे इस सुविधा का लाभ ले सकेंगी. दूसरी बात यह कि उन्हें दवा विक्रेता के पास जाकर एक प्रश्नावली भर कर देनी होगी और यह जांच लेने के बाद कि उन्हें गर्भ निरोधक के इस्तेमाल से कोई खतरा प्रतीत नहीं होता है, विक्रेता उन्हें वांछित सामग्री की बारह महीनों की सप्लाई दे सकेगा. यहीं यह भी बताता चलूं कि फिलहाल राज्य के तमाम दवा विक्रेताओं के यहां यह सुविधा सुलभ नहीं होगी. अभी वहां के मात्र 150 दवा विक्रेताओं को ऐसा करने के लिए अधिकृत किया गया है. स्थानीय प्रशासन दवा विक्रेताओं को समुचित प्रशिक्षण देने के बाद ही यह अधिकार प्रदान कर रहा है. उम्मीद की जा रही है कि अगले माह के अंत तक 800 दवा विक्रेताओं के यहां यह सुविधा उपलब्ध होने लगेगी. 

वैसे यह व्यवस्था एक अन्य अमरीकी राज्य कैलिफोर्निया करीब दो बरस पहले ही कर चुका था. वहां इस तरह का प्रावधान 2013 में ही पारित हो गया था लेकिन क्योंकि वह लागू  अब तक नहीं हो सका है, ओरेगॉन ऐसा करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है.

समझा जा सकता है कि अमरीका जैसे उन्मुक्त और उदार देश में इन व्यवस्थाओं का अर्थ केवल  परिवार को सीमित रखने के लिहाज़ से ही नहीं है. इससे भी आगे इन व्यवस्थाओं की अहमियत स्त्री को अपने चयन में अधिक समर्थ बनाने में है. स्त्री की देह पर उसका और केवल उसका अधिकार है और होना चाहिए तथा वो संतान को जन्म देना  चाहती है या नहीं, उसके इस निर्णय में अगर कोई बाधा आती है तो राज्य का दायित्व है कि वह उस बाधा को दूर करे. ओरेगॉन राज्य की इन नई व्यवस्थाओं को इसी सन्दर्भ में देखा और समझा जाना चाहिए. इन नई व्यवस्थाओं से जहां स्त्री पर पड़ने वाले आर्थिक  भार में कमी आएगी वहीं उसे अपना मनचाहा जीवन जीने के लिए ज़रूरी उपकरण/संसाधन प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों में भी कमी आएगी.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 05 जनवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Wednesday, December 30, 2015

आइये, हम भी नए साल का स्वागत दूध से करें!

पिछले कुछ बरसों से नव वर्ष की पूर्व सन्ध्या से पहले शहर में कई जगह बैनर नज़र आने लगे हैं – नए साल का स्वागत दारु से नहीं दूध से कीजिए! बहुत सारे होटल और टैक्सी वाले इस आशय के विज्ञापन जारी करते हैं कि नए साल की पार्टी से लौटते हुए खुद ड्राइव न करें और उनकी सेवाओं का लाभ उठाएं. नए साल के पहले दिन के अखबारों में और कोई ख़बर हो न  हो, यह खबर ज़रूर होती है कि पुलिस ने नशे में ड्राइव करते हुए इतने वाहन चालकों को पकड़ा. ये सारी बातें मुझे याद इस ख़बर को पढ़ते हुए आईं कि अमरीका में शराब के कारण  होने वाली मौतों में पिछले 35 बरसों में सबसे ज़्यादा इज़ाफा पाया गया है. वहां की सरकार द्वारा ज़ारी आंकड़ों के अनुसार पिछले बरस तीस हज़ार सात सौ अमरीकियों ने शराब  के कारण अपनी जान गंवाई. शराब के कारण,  यानि जहरीली शराब के कारण या शराब से होने वाली बीमारियों जैसे सिरोसिस के कारण. इसका मतलब यह कि इस संख्या में वे अभागे शामिल नहीं हैं जिनकी जानें नशे में वाहन चलाने के कारण हुई दुर्घटनाओं, अन्य दुर्घटनाओं या शराब जन्य अन्य अपराधों में गई. अगर उन सबको भी शुमार कर लें तो यह संख्या बढ़कर नब्बे हज़ार तक पहुंच  जाती है.

आंकड़े बताते हैं कि कम से कम तीस प्रतिशत अमरीकी ऐसे हैं जो शराब को हाथ तक नहीं लगाते हैं. और लगभग इतने ही अमरीकी ऐसे हैं जिन्होंने इस पदार्थ से एकदम तो तौबा नहीं कर रखी है लेकिन औसतन एक ड्रिंक प्रति सप्ताह की सीमा रेखा को वे पार नहीं करते हैं. और ऐसे लोगों के पक्ष में यह बात भी याद कर ली जानी चाहिए कि चिकित्सा विशेषज्ञों का मत है कि अगर कोई व्यक्ति हर रोज़ एक से दो तक ड्रिंक ले ले तो उसकी  मृत्यु की सम्भावना में काफी कमी आ जाती है, यानि इतनी मदिरा  तो सेहत के लिए मुफीद होती है.

लेकिन इस कम्बख़्त शराब के साथ एक बड़ी मुश्क़िल तो यह है कि इसके सेवन की मात्रा कब सुरक्षित से असुरक्षित के पाले में जाकर प्रणघातक के घेरे में आ जाएगी, नहीं कहा जा सकता. प्रति सप्ताह एक ड्रिंक से घटकर प्रति दिन एक ड्रिंक और फिर दो और फिर तीन...होते होते कब कोई उन मात्र दस प्रतिशत सबसे ज्यादा पियक्कड़ अमरीकियों की जमात में आ जाता है जो औसतन दस ड्रिंक प्रति सप्ताह तक गटक जाते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता नहीं,  बड़ी तेज़ी से परलोक की तरफ भागने लगते हैं. अमरीका के आंकड़ों  पर विश्वास करें तो वहां प्रति व्यक्ति शराब के  सेवन में लगातार वृद्धि हुई है. न केवल प्रति व्यक्ति, बल्कि उसकी आवृत्ति में भी यही प्रवृत्ति दिखाई दी है. रोचक बात यह कि कम मात्रा में या बड़े अंतराल से पीने वालों की संख्या और उनके द्वारा पी गई मदिरा की मात्रा में जहां बहुत मामूली वृद्धि लक्षित की गई वहीं, अधिक मात्रा में या कम अंतराल पर पीने वालों में यह वृद्धि भी अधिक पाई गई.

अमरीका में इस प्रवृत्ति का अध्ययन करने वालों का ध्यान एक और बात की  तरफ गया है और वह यह कि वहां महिलाओं में भी मदिरापान की आदत बढ़ती जा रही है. सन 2002 में जहां माह में एक बार मदिरापान करने वाली महिलाओं का प्रतिशत  47.9 था वहीं 2014 में यह बढ़कर 51.5 तक जा पहुंचा था. लेकिन इस आंकड़े से भी ज़्यादा चिंताजनक आंकड़ा यह था कि इसी  काल खण्ड में ताबड़तोड़ (यानि एक दफा में पाँच या अधिक ड्रिंक्स) पीने वाली महिलाओं की संख्या 15.7 प्रतिशत से बढ़कर 17.4 प्रतिशत तक जा पहुंची है.

इस सारे प्रसंग में जो सबसे अधिक खतरनाक बात सामने आई है वो यह है कि अमरीका में शराब हेरोइन या कोकेन जैसे नशीले पदार्थों से भी अधिक घातक साबित हो रही है. और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि शराब के मामले में लाभप्रद, सुरक्षित और घातक के बीच की सीमा  रेखा बहुत बारीक होती है और उसकी अनदेखी बहुत आसान है. और यही वजह है कि वहां के ज़िम्मेदार लोग अब बहुत ज़ोर-शोर से यह आवाज़ उठाने लगे हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के अधिकारियों को मारिजुआना और एल एस डी जैसी ड्रग्स की अपेक्षा शराब के खतरों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना चाहिए. वहां यह  आवाज़ भी उठने लगी है कि मदिरापान को नियंत्रित करने के लिए उन संघीय करों में इज़ाफा किया जाए जो ऐतिहासिक लिहाज़ से अभी निम्नतम स्तर पर हैं.

तो आइये, हम तो  नए साल का स्वागत दूध से करें!  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 30 दिसम्बर, 1015 को प्रकाशित इसी शीर्षक के आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 22, 2015

मासूम नहीं, जन्मजात क़ातिल होती हैं ये!

पश्चिम के देशों में पालतू जानवर (पेट्स) रखने का चलन बहुत अधिक है. कोई कुत्ता पालता है, कोई बिल्ली तो कोई गिलहरी तो कोई लोमड़ी, तो कोई  कुछ और. अपने अमरीका प्रवास के दौरान जब मैंने इसकी वजह जानने की कोशिश की तो वहां के समाज से परिचित लोगों ने बताया कि वे लोग मनुष्य पर पशु को इसलिए तरजीह देते हैं कि वो कोई अपेक्षा नहीं रखता है. इस सोच पर काफी लम्बी बहस हो सकती है. फिलहाल तो मैं पालतू पशु के सन्दर्भ में न्यूज़ीलैण्ड की बात करना चाहता हूं जहां बिल्ली पालने का चलन इतना अधिक है कि एक मोटे अनुमान के अनुसार वहां की आधी आबादी ने कम से  कम एक बिल्ली तो पाल ही रखी है और न्यूज़ीलैण्ड दुनिया के सबसे ज़्यादा बिल्लियां पालने वालों का देश है.   

लेकिन अब इसी बिल्ली-प्रेमी न्यूज़ीलैण्ड में गारेथ मॉर्गन नाम एक सज्जन ने यह बीड़ा उठाया है कि वे जितना जल्दी सम्भव हुआ, अपने देश को बिल्ली-मुक्त देश बनाकर रहेंगे! ये मॉर्गन महाशय जो एक प्राणी विज्ञानी हैं, अपने देश में कैट्स टू गो नाम से एक प्रोजेक्ट चलाते हैं  और इनका कहना है कि बिल्लियां उतनी मासूम नहीं होती हैं, जितना आप उन्हें समझते हैं! अपनी वेबसाइट पर इन्होंने लिखा है कि रूई के रोंये के गोले जैसे जिस प्राणी को आप पालते हैं वो तो जन्मजात  क़ातिल है! अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए इन्होंने अपनी वेबसाइट पर बिल्ली की फोटोशॉप की हुई भयानक  सींगों वाली एक तस्वीर भी लगा रखी है. मॉर्गन कहते हैं, “सच्चाई तो यह है कि अगर आप अपने पर्यावरण की तनिक भी परवाह करते हैं तो आपको इन बिल्लियों को दफा कर देना चाहिए!”

और अब ज़रा बिल्लियों के इन दुर्वासा की नाराज़गी की वजह भी जान लीजिए! मॉर्गन का मानना है कि बिल्लियां अकेले दम ही उनके देश की अनेक स्थानीय पक्षी प्रजातियों को विलुप्त  करती जा रही हैं. मॉर्गन ने बाकायदा अध्ययन करके बताया है कि औसतन एक बिल्ली साल में तेरह शिकार करके घर लाती है. लेकिन असल में तो वो अपने किये हुए पाँच शिकारों में से एक को ही घर पर लाती  है, इस तरह हर बिल्ली साल में कम से कम पैंसठ शिकार करती है. और क्योंकि बिल्लियां आम तौर पर सुनसान जगहों पर रहती हैं और काफी लम्बी दूरियां तै करने की सामर्थ्य  रखती हैं वे चूहों के अलावा अनेक पक्षियों व अन्य प्राणियों का भी शिकार कर लेती हैं. हालांकि  एक अन्य वन्यजीव विशेषज्ञ जॉन इनस इसी बात के लिए बिल्लियों के प्रशंसक भी हैं कि वे चूहों को मारकर या भगाकर चिड़ियों  की रक्षा करती हैं, ज़्यादातर पर्यावरण प्रेमी बिल्लियों से नाराज़ ही लगते हैं. डेविड विण्टर नाम के एक वन्यजीव ब्लॉगर कहते हैं कि बिल्लियां न्यूज़ीलैण्ड की कम से कम छह पक्षी प्रजातियों का खात्मा कर चुकी हैं. लॉरा हेल्मुट भी उन्हीं की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाते हुए कहती हैं कि बिल्लियां हर जगह घुसपैठ कर लेती हैं और वे उस द्वीप के ऐसे ईकोसिस्टम को नष्ट कर रही हैं जिसमें कुछ ऐसी  प्रजातियां भी मौज़ूद हैं जो दुनिया में अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं. 

और ऐसा नहीं है कि यह सारी चर्चा जंगली या कि भूखी-नंगी बिल्लियों को लेकर ही हो रही है. खूब खाई-पी हुई बिल्लियां भी उतनी ही ख़तनाक  हैं. असल में बिल्लियां शिकार भूख की वजह से ही नहीं शौक की वजह से भी करती हैं. उन्हें इसमें मज़ा आता है. एक मज़ेदार  अध्ययन से इस बात की पुष्टि की गई है. छह बिल्लियों के सामने उस वक्त एक छोटा-सा चूहा लाया गया जब वे अपने  पसन्दीदा भोजन का लुत्फ ले रही थीं. आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इन छह की छह बिल्लियों ने अपना पसन्दीदा खाना छोड़ा, उस बेचारे चूहे पर टूट पड़ीं, उसका शिकार किया, और फिर अपने मनपसन्द खाने की तरफ मुड़ गईं! असल में उन्हें भोजन की पसन्द नापसन्द से कोई फर्क़ नहीं पड़ता न खाली और भरे पेट से पड़ता है. उन्हें तो बस शिकार करने में मज़ा आता है!

ऐसे में वहां के पर्यावरणविदों की फिक्र अनुचित भी नहीं लगती है. लेकिन जब वे कहते हैं कि अगर आप चिड़िया को बचाना चाहते हैं तो बिल्ली को मार डालिये, तो लगता है कि वे कुछ ज़्यादा ही उग्र हो रहे हैं. तब मॉर्गन की यह सलाह काबिले-गौर लगती है कि जिन्होंने बिल्लियां पाल रखी हैं वे कम से कम उनका बन्ध्याकरण तो कर ही दें. वे कहते हैं, ज़रा आप इन घरेलू बिल्लियों की मौज़ूदगी का असर चिड़ियाओं की बिरादरी पर देखिये और फिर यह फैसला कीजिए कि अभी जो बिल्ली आपने पाल रखी है वो आखिरी हो!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 दिसम्बर, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख  का मूल पाठ.  
    

Tuesday, December 15, 2015

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार...कि जीना इसी का नाम है!

आपने शैलेन्द्र का लिखा वो गाना तो ज़रूर सुना होगा – किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार/ किसी का दर्द मिल सके तो,  ले उधार/ किसी के वास्ते  हो तेरे दिल में प्यार/ जीना इसी का नाम है!  मुझे यह गाना याद आया अमरीका की एक स्त्री एमी के बारे में पढ़ते हुए. जब एमी गर्भवती थीं तो उन्हें और उनके पति को पता चला कि उनकी  पन्द्रह सप्ताह की गर्भस्थ  संतान एक विकट  रोग से ग्रस्त है. चिकित्सकों ने दो माह तक रोग के उपचार की हर मुमकिन कोशिश की,  लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली.  शिशु ने गर्भ में ही प्राण त्याग दिये  और उसके दो दिन बाद उस मृत शिशु का प्रसव हुआ.  उस दम्पती के त्रास और अवसाद की सहज ही कल्पना  की जा सकती है. शिशु का जीवित रह पाना या न  रह पाना अपनी जगह और देह धर्म अपनी जगह! एमी  के  स्तनों में दूध आने लगा और चिकित्सकों ने चाहा  कि वे अपनी विधि से दूध का आना बन्द कर दें, लेकिन एमी ने इस बात को स्वीकार नहीं किया.  असल में इस बीच उसने मां  के दूध के लाभों के बारे में काफी कुछ पढ़ लिया था और उसे यह बात भी पता चली थी कि उसके गर्भस्थ शिशु की जिस रोग से मृत्यु हुई है उस रोग को रोकने में भी मां के दूध का विशेष योग रहता है, इसलिए  वो डॉक्टरों  की राय के खिलाफ जाकर भी पम्प की मदद से अपने स्तनों से दूध बाहर निकाल कर फ्रिज में संचित करती रही. यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है आठ माह की अवधि में उसने  अपने स्तनों से लगभग एक सौ पाँच किलोग्राम दूध निकाल कर संचित किया और न केवल उसे संचित किया बल्कि अमरीका के चार राज्यों और कनाडा के एक अस्पताल के दूध बैंक को दान भी किया. उसके इस दान से करीब तीस हज़ार फीडिंग हो पाए.

एमी का कहना है कि ऐसा करते हुए उसने एक ‘विलक्षण प्रकार का अंग दान’  किया है. एमी ने यह भी कहा कि जब भी उसने अपने स्तनों से दूध निकाला, उसे लगा कि वो अपने स्वर्गस्थ शिशु ब्रायसन के और अधिक निकट हुई है. अपने शिशु की स्मृति को इस तरह सजीव रखना उसके लिए दो तरह से महत्वपूर्ण साबित हुआ. एक तो वह अपने भौतिक और मानसिक दर्द से निजात पा सकी और दूसरे  उसे लगा कि वो अपने स्वर्गीय बेटे की स्मृति में कुछ सार्थक और उपयोगी कर सकी. और इसीलिए मुझे याद आया यह गाना.

लेकिन एमी का यह  सराहनीय कृत्य भी निर्विघ्न नहीं रहा. असल में एमी कहीं नौकरी करती है. अमरीका के कानून के अनुसार स्तनपान कराने वाली माताओं को अपने काम के दौरान स्तनपान कराने के लिए समुचित अवकाश का प्रावधान है. जब एमी ने अपने नियोक्ता से इस प्रावधान के तहत  अवकाश की मांग की तो उसे इसी नियम का हवाला देते हुए स्पष्ट कह दिया गया कि क्योंकि उसके पास स्तनपान करने वला कोई शिशु नहीं है इसलिए यह प्रावधान उस पर लागू होता ही नहीं है और इसलिए उसे कोई अवकाश देय नहीं है. एमी का कहना है कि यह बहुत अजीब बात है कि स्त्रियों को सुविधा प्रदान करने वाले कानून का ही इस्तेमाल उस सुविधा को नकारने के लिए किया जा रहा है. उसका कहना है कि यह सही है कि मेरे पास स्तनपान करने वाला शिशु नहीं है, लेकिन अपने स्तनों से दूध निकालना मेरी  शारीरिक ज़रूरत है और यह मेरा वाज़िब हक़ है कि मैं अपनी इस ज़रूरत को पूरा करूं.

एमी ने अपने हक़ के लिए अपना संघर्ष ज़ारी रख और साथ ही नॉर्थईस्ट के मदर्स मिल्क  बैंक के लिए स्वयंसेविका के रूप में अपनी सेवाएं देना भी ज़ारी  रखा. इतना ही नहीं, उन्हें जैसे इसी काम में अपने जीवन की सार्थकता दिखाई देने लगी तो वे एक ब्रेस्ट फीडिंग कंसलटेण्ट बनने के लिए पढ़ाई भी करने लगीं और उम्मीद है कि जल्दी उन्हें इसके लिए सर्टिफिकेट  भी मिल जाएगा. एमी के इन सारे कामों का एक सुपरिणाम यह भी हुआ है कि वहां का एक स्टेट लेजिस्लेटर भी उनके पक्ष में आ खड़ा हुआ है.

लेकिन यह सब करते हुए भी एमी के मन में एक शिकायत ज़रूर है. वे कहती हैं कि मेरे परिवार के सदस्य और मित्रगण बराबर यह कोशिश करते हैं कि वे मेरे सामने ब्रायसन (मृत शिशु) का नाम न लें. जबकि मैं चाहती हूं कि वे उसका नाम लें और जो कुछ मैं कर रही हूं उसके प्रति अपना समर्थन व्यक्त करें. मुझे तो लगता है कि जो  कुछ मैं कर रही हूं उसकी वजह से वो हर रोज़ हमारे सामने आ खड़ा होता है – और यही बात है जो मेरे चेहरे पर मुस्कान  लाती है! 

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 15 दिसम्बर, 2015  को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, December 8, 2015

चाय की प्याली में नहीं, कॉफी के कप में आया तूफ़ान!

चाय की प्याली में तूफ़ान की बात तो आपने सुनी होगी, मैं आज आपको कॉफी के कप में आए तूफ़ान से परिचित कराता हूं. कॉफी प्रेमियों के लिए स्टारबक्स का नाम अनजाना नहीं है. 1971 में सिएटल शहर से शुरु हुआ अमरीका का यह बेहद लोकप्रिय ब्राण्ड भारत सहित दुनिया के पचास देशों के पन्द्रह हज़ार स्टोर्स में उपलब्ध है और इसकी लोकप्रियता का अन्दाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुछ समय पहले जब मुम्बई में इसका पहला आउटलेट खुला तो उसके बाहर मीलों लम्बी कतार थी. 

स्टारबक्स वाले सन  1997 से दिसम्बर के अंत वाले त्योहारों  के सीज़न में अपनी कॉफी के लिए ख़ास तरह के विण्टर थीम वाले कप जारी करते रहे हैं. कभी इन कपों पर बर्फ़ के फाहे नज़र आए हैं तो कभी स्नोमैन और कभी रेण्डियर. कभी क्रिसमस ट्री तो कभी उसे सजाने वाले चमकदार आभूषण आदि. ज़ाहिर है कि इन तमाम छवियों का सीधा नाता ईसाइयों के सबसे बड़े त्योहार क्रिसमस से है.   स्टारबक्स ने हमेशा यह प्रयत्न किया है कि जो कप वो जारी करे उसका डिज़ाइन पिछले बरस वाले कपों से एकदम अलहदा हो. तो इस परम्परा का निर्वाह करते हुए साल 2015 के त्योहारी सीज़न के लिए  स्टारबक्स ने अक्टोबर के आखिर में अपना उत्सवी कप जारी किया. इस कप को जारी करते हुए कम्पनी के वाइस प्रेसिडेण्ट जेफ्री फील्ड्स ने कहा कि “हम इस उत्सवी सीज़न में डिज़ाइन की ऐसी  निर्मलता के साथ प्रवेश करना चाहते हैं जिसमें हमारी तमाम गाथाओं का समावेश हो सके.” इस साल जारी हुए कप में पिछले बरसों से हटकर कोई आकृति नहीं है और यह एक निहायत सादा दो शेड्स वाला लाल रंग का कप है.

और बस इस कप का बाज़ार में आना था कि हंगामा बरपा हो गया! हो भी क्यों न?  सोशल मीडिया का ज़माना जो ठहरा. लगता है जैसे लोग प्रतिक्रिया करने को तैयार ही बैठे हैं! एक हैं जोशुआ फ्युर्स्टाइन जो अमरीका के एरिज़ोना राज्य में रहते हैं और खुद को मीडिया व्यक्तित्व और टेलीविजन तथा रेडियो का भूतपूर्व ईसाई प्रचारक बताते हैं. फेसबुक पर इनके अठारह लाख फॉलोअर्स  हैं. इन्होंने पाँच नवम्बर को फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट किया जो तुरंत वायरल हो गया. इन महाशय ने अपने इस वीडियो में फरमाया कि स्टारबक्स  वालों ने अपने कप से क्रिसमस की छवियों को इस कारण हटाया है कि वे जीसस से घृणा करते हैं! फ्युर्स्टाइन ने अपने फॉलोअर्स से भी अनुरोध कर डाला कि वे भी स्टारबक्स के इस कृत्य का सोशल मीडिया पर विरोध करें. फेसबुक के अपने पेज पर इन्होंने लिखा कि “मुझे ऐसा लगता है कि पॉलिटिकल करेक्टनेस के इस काल  में हम इतना ज़्यादा ओपन माइंडेड हो गए हैं कि हमारी खोपड़ियों से हमारे दिमाग बाहर ही निकल चुके हैं. आप इस बात को समझिये कि स्टारबक्स वाले अपने एकदम इन  कपों से ईसा और क्रिसमस को निकाल बाहर करना चाहते हैं. तभी तो अब उनके कप सादे लाल रंग के हैं.”  जब इनके इस वीडियो को करीब एक करोड़ बार देखा जा चुका तो इन्होंने सीएनएन मनी को एक ई मेल भेजा जिसमें फरमाया कि “मेरा खयाल है कि स्टारबक्स को यह संदेश पहुंच चुका है कि इस देश का ईसाई  बहुमत अब जाग चुका है और चाहता है कि उसकी आवाज़ को सुना जाए.” ताज्जुब इस बात का है कि यह मेल लिखते हुए इन महोदय को यह बात ध्यान में नहीं रही कि स्टारबक्स त्योहारी मौसम में बहुत सारे क्रिसमस उत्पाद जैसे आभूषण, कैलेण्डर्स, क्रिसमस थीम वाले गिफ्ट कार्ड्स, क्रिसमस संगीत के सीडी और क्रिसमस के वास्ते ख़ास तौर पर तैयार की गई कुकीज़ हर साल बेचता है और इस साल भी बेच रहा है.

भले ही स्टारबक्स ने यह कहकर अपना पक्ष सामने रखा कि अपने कपों के डिज़ाइन का सिलसिला बरकरार रखते हुए उसने इस बरस कपों का यह सादा डिज़ाइन इस सोच के साथ बाज़ार में उतारा है कि ग्राहक इन कपों को बतौर कैनवस इस्तेमाल करते हुए इन पर अपनी कथाएं रचें, और भले ही बहुत सारे लोगों ने जोशुआ फ्युर्स्टाइन के आरोप से असहमति भी व्यक्त की, सोशल मीडिया की जिस तरह की रिवायत है, बहुत सारे लोग स्टारबक्स की लानत-मलामत करने में जुट गए हैं. सोशल मीडिया पर लगभग पाँच लाख दफा स्टारबक्स का ज़िक्र हो चुका है. कुछ लोगों ने बाकायदा स्टारबक्स  का बहिष्कार तक करने का आह्वान कर डाला है. और जब इतना सब हो तो इससे व्यावसायिक  लाभ उठाने वालों का सक्रिय हो उठना भी अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता. अमरीका के ही एक अन्य प्रतिस्पर्धी कॉफी ब्राण्ड डंकिंग डोनट्स ने जिस तरह का पवित्र हरी पत्तियों लाल रंग में ‘जॉय’ लिखा हुआ  कॉफी कप बाज़ार में उतारा है उसे सीधे इस ‘कप-गेट’ विवाद से जोड़कर देखा जा रहा है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 08 दिसम्बर, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.   


Tuesday, December 1, 2015

सेज पर रोबोट

हाल ही में एक ख़बर आई कि नवम्बर 2015 में मलेशिया में होने वाली एक कॉंफ्रेंस वहां की पुलिस की आपत्ति के बाद रद्द कर दी गई, तो लगा कि सारी दुनिया में हालात एक से हैं. यह कॉंफ्रेंस थी लव एण्ड सेक्स विद रोबोट्स विषय पर और इसके आयोजकों में प्रमुख थे 2007 में प्रकाशित इसी शीर्षक वाली किताब के लेखक डेविड लेवी और उनके साथी प्रोफेसर  एड्रियन चिओक. पुलिस ने ऐसा कुछ समझ कर कि इस कॉंफ्रेंस में रोबोट्स के साथ यौन सम्बन्ध कायम किया जाएगा, इसे ग़ैर कानूनी मान लिया, जबकि आयोजकों का कहना है कि इस कॉंफ्रेंस में बहुत व्यापक और दूरगामी प्रभाव वाले मुद्दों पर अकादमिक विमर्श होना था. बता दूं कि इसी विषय पर पहली कॉंफ्रेंस  2014 में पुर्तगाल में आयोजित हो चुकी है, और यह दूसरी कॉंफ्रेंस अब कदाचित 2016 में लंदन में आयोजित होगी. 

असल में जब भी हमारे जीवन में नया कुछ आता है, उससे हमारी सुविधाओं में चाहे जितना इज़ाफा हो, बहुत सारे नैतिक, वैचारिक और कानूनी मुद्दे भी स्वाभाविक रूप से उठ खड़े होते हैं. यह याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि महात्मा गांधी के लिए इंजेक्शन भी हिंसा का ही एक प्रकार था और बहुत सारे लोगों के लिए अनेक अंग्रेज़ी दवाइयों  में मौज़ूद अल्कोहल उनके  अस्वीकार की वजह बनता है. लेकिन यहां हम बात रोबोट्स की कर रहे हैं. पिछले कुछ बरसों में कृत्रिम बुद्धि के विकास की वजह से  रोबोट्स की कार्य दक्षता में जो बदलाव और सुधार आए हैं उनकी वजह से अब वे तेज़ी से मनुष्य के स्थानापन्न बनते जा रहे हैं. हॉलीवुड की अनेक लोकप्रिय फिल्मों और किताबों में रोबोट्स और मनुष्यों के अंत: सम्बन्धों का जो चित्रण लगातार बढ़ता जा रहा है उसके यथार्थ रूपांतरण की आहटें अब साफ़ सुनाई देने लगी हैं. इधर हाल ही में हैलो बार्बी नामक एक खिलौना ऐसा आया है जो बच्चों से बातें करता है और उनके साथ खेलता है. इस तरह के खिलौनों का बच्चों की सामाजिकता पर क्या असर पड़ेगा? इसी तरह अगर रोबोट्स सारे मेहनत मज़दूरी वाले काम करने लगे तो क्या उससे लोगों का रोज़गार नहीं छिन जाएगा? चारों तरफ रोबोट्स से घिरा इंसान क्या असामाजिक नहीं हो जाएगा? और यह असामाजिकता वाला ही सवाल उठा है रोबोट्स के साथ प्रेम और सेक्स की सम्भावनाओं को लेकर भी. कैलिफोर्निया की एक कम्पनी की बनाई रियल डॉल तो पहले से मौज़ूद थी जो करीब-करीब इंसानों जैसी हरकत करती थी, अब उपरोक्त श्री लेवी का कहना है कि उनके खयाल से अगर ऐसे रोबोट्स बना लिये जाएं जिनके साथ सेक्स करना सम्भव हो तो यह लाखों-करोड़ों  ऐसे लोगों के लिए एक वरदान होगा जिन्हें या तो अपना मनपसन्द साथी मिल ही नहीं रहा है या जो अपने साथी के साथ अपने रिश्तों से असंतुष्ट हैं. लेवी का मानना है कि इस तरह के रोबोट्स न केवल अकेलेपन को दूर करेंगे, उनकी वजह से बाल यौन अपराधों में भी बहुत कमी आ जाएगी.

लेकिन सारे समझदार लोग लेवी की तरह से नहीं सोचते हैं. अब आप एक रोबोटिक्स एथिसिस्ट (नैतिकविज्ञानी) कैथलीन रिचर्डसन को ही लीजिए जो इस तरह की सम्भावना को एक भीषण दु:स्वप्न की तरह देखती हैं.  उनको लगता है कि ऐसे सेक्स रोबोट्स असल ज़िन्दगी में भयंकर असमानता पैदा कर देंगे. वे इन  सेक्स रोबोट्स को रोबोट वेश्या की तरह देखती हैं और शिकायत करती हैं कि इनके प्रचलन से हमारे पहले से विकृत रिश्तों में जो और विकृति आ जाएगी उसे हम जान बूझकर अनदेखा कर रहे हैं. वे कहती हैं कि भले ही वे इन सेक्स रोबोट्स पर प्रतिबंध की वकालत न करें, लोगों को इनके सम्भावित दुष्परिणामों के बारे में आगाह कर देना अपना दायित्व समझती हैं. कैथलीन यह भी कहती हैं कि अगर सेक्स के लिए रोबोट्स का इस्तेमाल बढ़ गया तो इसका प्रतिकूल असर  मानवीय संवेदनाओं पर तो पड़ेगा ही, समाज का स्त्री के प्रति जो नज़रिया है और अधिक विकृत हो जाएगा.

लेकिन डेवी का कहना है कि हमारी ज़िन्दगी में रोबोट्स की आमद तो बढ़ेगी ही. उसे रोक पाना तो नामुमकिन है. और जब उनकी आमद  बढ़ेगी तो वे न सिर्फ हमारे सेवक और सहायक के रूप में हमारी ज़िन्दगी में आएंगे, वे हमारे दोस्त, सहचर और फिर शैया संगी बनकर भी आएंगे. डेवी बड़ी ईमानदारी से कहते हैं कि बहुत मुमकिन है कि कुछ लोग अपने साथी के रूप में मनुष्य  की बजाय रोबोट को पसन्द करने लगें, लेकिन ऐसे लोग बहुत अधिक नहीं होंगे. मनुष्य का झुकाव तो मनुष्य की ही तरफ रहेगा.

देखते हैं कि डेविड लेवी का यह आशावाद कितना सही साबित होता है!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 01 दिसम्बर, 2015 को सेज पर रोबोट, क्या मनुष्य की ज़रूरतें पूरी करेगा शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.