Sunday, October 5, 2025

मेरे लिखने की मेज

 मैं एक बहुत छोटा कलम घसीट हूं. यह बात मैं महज़ विनम्रता में नहीं कह रहा हूं. लेखकों की इतनी बड़ी दुनिया और उसमें एक से एक बड़े लेखक, उनके सामने मैं क्या हूं? विदेशी भाषाओं में, और ख़ास तौर पर अंग्रेज़ी में लेखकों की निजी ज़िंदगी, उनकी आदतों, उनकी सनकों आदि की खूब चर्चा होती है. (अन्य भाषाओं में होती है या नहीं, मुझे जानकारी नहीं है.)  शायद उसी का असर है कि अब मेरी भाषा हिंदी में भी इस तरह के प्रयास होने लगे हैं. लेकिन अभी हमारे यहां अपने पुरोधा लेखकों के रचना-परिवेश के बारे में भी बहुत ज़्यादा ज्ञात नहीं है.  इसकी एक वजह यह भी है कि हमारे यहां आत्म प्रक्षेपण की प्रवृत्ति बहुत कम रही है. इधर स्थितियां बदली हैं और लेखकों की आदतों, उनके परिवेश आदि के बारे में भी थोड़ी बहुत बातें होने लगी  हैं. ख़ास तौर पर नई कहानी  के दौर में यह प्रवृत्ति अधिक उभरी. सूरज प्रकाश जी जैसे दृष्टि सम्पन्न रचनाकार ने इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उन जैसा काम किसी और ने शायद ही किया हो. ऐसे में जब उन्होंने मुझ अकिंचन से अपने लिखने की मेज के बारे में कुछ कहने का आग्रह किया तो थोड़े संकोच से मैंने इस आग्रह को उनका आदेश मान स्वीकार कर लिया.   

जब लिखने बैठा हूं तो बहुत सारे लेखकों की लिखने की मेज और उनके लेखन की अजीब-ओ-ग़रीब आदतों की बातें मानस पटल पर झिलमिला रही हैं. अपने बारे में ऐसा तो कुछ भी नहीं है. बात को सलीके से कहने के लिए मुझे थोड़ा पीछे जाना होगा. मेरा परिवेश एक व्यापारी परिवार वाला रहा है. पिता एक व्यापारी थे और मां सामान्य गृहिणी. घर में पढ़ने लिखने का कोई माहौल था ही नहीं. यह साठ के दशक की बात है. जैसे-तैसे पढ़ लिया और कॉलेज प्राध्यापक बन गया. मन में रुचि थी और उचित वातावरण भी मिला तो थोड़ा बहुत लिखने लगा. पहले कुछ कविताएं लिखी, कुछ कहानियां भी लिखीं और उसके बाद आलोचना की तरफ मुड़ गया.  कथा साहित्य की आलोचना में मेरी बहुत रुचि रही.  एक ज़माने में पुस्तक समीक्षाएं भी खूब लिखीं. खूब यानी वास्तव में खूब! फिर अनुवाद की तरफ मुड़ा. तरह-तरह के अनुवाद किए. उसके बाद यात्रा वृत्तांत की तरफ मुड़ा और इधर कुछ बरसों से साहित्येतर लेखन कर रहा  हूं. अनेक प्रकाशनों में स्तंभ लिखे हैं और लिखता हूं.  साहित्य पढ़ता खूब हूं लेकिन लिखता अन्यान्य विषयों पर हूं. 

जब 1970 में मैंने लिखना शुरु किया  तो मेरे पास एक छोटी-सी टेबल थी और उस टेबल पर एक पोर्टेबल टाइप राइटर रहता था - जेके का. टेबल पर कुछ ठीक-ठाक से पेन, पेंसिल इरेज़र और उस ज़माने में चलन में रही कोरस के इरेजेक्स की एक शीशी रहती थी.  मुझे अपने लेखन  में सुरुचि का जैसे जुनून था. अच्छे कागज़ पर सलीके से टंकित लेख को बेहतरीन लिफाफे में ठीक से मोड़कर रखकर पोस्ट करना मुझे  रुचता था. यह आदत अभी तक बनी हुई है. अपने सीमित साधनों के बावज़ूद मैं अच्छी स्टेशनरी खरीदता और कोशिश करता कि जो भी टाइप करूं वह त्रुटि रहित हो. अपने लेखन में मदद के लिए शब्द कोश देखना मुझे बहुत प्रिय था जैसे-जैसे सम्भव हुआ मैं अलग-अलग कोश खरीदता गया. यह मेरा सौभाग्य रहा कि मैं जिन भी कॉलेजों में कार्यरत रहा, वहां के पुस्तकालय बहुत समृद्ध थे अत: संदर्भ आदि जुटाने के लिए मुझे पुस्तकों और संदर्भ ग्रंथों का अभाव कभी नहीं रहा. मेरे लिखने की टेबल पर एक टेबल लैम्प ज़रूर रहता, भले ही महंगा टेबल लैम्प मैं कभी नहीं खरीद सका. अपनी सरकारी नौकरी में तबादलों की वजह से कोई लगभग  दस घर तो मैंने बदले ही लेकिन हर घर में टेबल की व्यवस्था करीब-करीब ऐसी ही रही. एक बात और. लाख प्रयत्न करने और पत्नी की नाराज़गी सहने के बावज़ूद मैं अपनी टेबल को साफ़ और व्यवस्थित कभी नहीं रख सका. एक तो बहुत बड़ी टेबल कभी मेरे पास नहीं रही, और दूसरे उस पर किताबें, कागज़-पत्तर और अन्यान्य सामग्री का अंबार हमेशा लगा रहा. बीच में काफी समय मेरे लिखने की टेबल पर एक छोटा ट्रांज़िस्टर रेडियो भी रहता था, जिस पर चलने वाला संगीत मेरे और शेष दुनिया के बीच के पार्टीशन की भूमिका निबाहता था. बाद में इस ट्रांज़िस्टर की ज़रूरत ख़त्म हो गई. 

सन 2000 में कई घाटों का पानी पीकर जब हम लोग जयपुर आ गए और यहां तीन साल नौकरी करने के बाद अंतत: यहीं के होने का फैसला हो गया और इस लम्बी ज़िंदगी में पहली बार अपने घर में रहने का संयोग जुटा तो   लिखने पढ़ने के लिए एक ठीक-ठाक-सी टेबल बनवाई गई. इस समय तक हमारी ज़िंदगी में कम्प्यूटर भी आ गया था और मैं भी अपने पोर्टेबल टाइपराइटर  को छोड़कर लैपटॉप  का इस्तेमाल करने लग गया था, अत: टेबल की शक्ल भी बदल गई. अब मैं जिस टेबल पर यह सब लिख रहा हूं उस पर एक बड़ा मॉनीटर और की बोर्ड है, आइकिया का एक खूबसूरत लैम्प है, एक पेन स्टैण्ड है जिसमें पेन पेंसिल, हाइलाइटर, करेक्शन फ्ल्यूड वगैरह रहते हैं, नीचे एक पुल आउट शेल्फ है जिस पर मेरा लैपटॉप रहता है, उसके साइड में दो छोटी और एक बड़ी दराज़ें हैं. छोटी दराज़ों में लेखन सामग्री-स्टेशनरी, डाक टिकिट  वगैरह रहते हैं और नीचे वाली बड़ी दराज़ में ऊपर एक स्कैनर और नीचे प्रिण्टर रहते हैं.  भले ही डाक का प्रयोग बहुत कम हो गया है, अच्छे लिफाफे, विशेष डाक टिकिट, गोंद, फेविकोल वगैरह सब मेरे पास हमेशा रहते हैं. अब मेरी टेबल पर ट्रांज़िस्टर नहीं रहता क्योंकि संगीत मुझे अपने लैपटॉप या टेबल के कोने पर रखे गूगल के स्मार्ट मिनी स्पीकर से मिल जाता है. जब भी मुझे कुछ लिखना होता है पहले मैं संगीत चलाता हूं ‌खास तौर पर शास्त्रीय वाद्य संगीत, और उसके बाद अपने लेखन को की बोर्ड के माध्यम से अस्तित्व में लाता हूं. अपने कम्प्यूटर पर नए और आकर्षक फॉण्ट्स का इस्तेमाल करना मुझे बहुत रुचता है. अब संदर्भ के लिए, वर्तनी जांच के लिए मुझे बार-बार उठकर अपनी अलमारी तक नहीं जाना होता है. अधिकांश काम लैपटॉप से ही हो जाता है. 

क्योंकि मेरा क्षेत्र सर्जनात्मक लेखन नहीं है, स्वभावत: लिखने के बारे में मेरी कोई ख़ास आदत भी नहीं है. मन में विचार चलते रहते हैं. कभी-कभार उन्हें व्यवस्थित करने के लिए सामने रखे नोट पैड पर कुछ बिंदु टांक लेता हूं और फिर सीधे टाइप करने बैठ जाता हूं. कभी-कभार वॉयस टाइपिंग का भी प्रयोग कर लेता हूं, हालांकि मुझे वह बहुत सहज नहीं लगता है. अपनी नौकरी के दिनों  में भी, जब मुझे बाकायदा स्टेनो की सुविधा सुलभ थी, डिक्टेशन देने की बजाय हाथ से लिखकर टाइप करवाना मुझे ज़्यादा रुचता था. वही आदत  अब भी है. कम्प्यूटर के कारण अपने लिखे में क्रम बदलने, वर्तनी जांच  करने, संदर्भ जोड़ने वगैरह की बहुत सारी सुविधाएं अब मेरे लिखने के काम को आसान  बना रही हैं. मेरे लिखने का कोई निश्चित समय नहीं है. दिन में, रात में, शोर में शांति में किसी भी स्थिति में लिख लेता हूं. 

और हां, मेरी टेबल अब भी उतनी ही अव्यवस्थित और बिखरी हुई रहती है.

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Monday, September 29, 2025

आंधी में भी जलती रहेगी बापू तेरी मशाल


 यह कहना तनिक भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि पूरी दुनिया में भारत की  पहचान गांधी के देश के रूप में है. सच तो यह है कि बहुतों के लिए भारत और महात्मा गांधी एक दूसरे के पर्याय हैं. अल्बर्ट आइंस्टीन ने 1931 में अपने एक पत्र में गांधी जी को लिखा था कि "आपका कार्य मानवता के लिए एक अनमोल उदाहरण है" वे महात्मा गांधी के अहिंसक प्रतिरोध को बाद की पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायी मानते थे. रूस के महान लेखक लियो टॉल्स्टॉय और महात्मा गांधी एक दूसरे से प्रभावित थे. जहां इस महान रूसी लेखक की किताबद किंगडम ऑफ गॉड इज़ विदिन यूको बापू के अहिंसा दर्शन की प्रेरक माना जाता है वहीं यह भी एक तथ्य है कि गांधी के कामों ने टॉल्स्टॉय को प्रभावित किया था. फ्रांस के रोमां रोलां तो गांधी से इतने ज़्यादा प्रभावित थे कि उन्होंने  बापू की जीवनी ही लिख डाली थी. जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने अगर गांधी को 'महान आत्मा' कहा था तो अमरीका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अपनी किताबस्ट्राइड टुवर्ड फ्रीडममें गांधी के दर्शन को अपना मुख्य प्रेरणा स्रोत बताया था. वियतनाम के हो ची मिन्ह और दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला का गांधी जी के प्रति आदर भाव सर्व विदित है. म्यांमार की आंग सान सू की और पोलैंड के लेच वालेंसा ने खुलकर बापू के विचारों को सराहा है. इस बात की गिनती करना भी कठिन है कि दुनिया के कितने देशों ने बापू के सम्मान में डाक टिकिट ज़ारी किए हैं और कितने देशों में उनकी मूर्तियां लगाई गई हैं. सन 2019 में एक आरटीआई के जवाब में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) ने बताया था कि दुनिया के 102 देशों में गांधी जी मूर्तियां लगी हुई हैं. माना जा सकता  है वास्तविक संख्या इससे ज़्यादा ही होगी. मुझे सबसे मार्मिक और ध्यानाकर्षक बात तो यह लगती है कि जिस ब्रिटिश शासन के नियंत्रण से भारत को आज़ाद करने के लिए बापू ने लम्बा संघर्ष किया उसी के शहर लंदन के पार्लियामेंट स्क्वायर पर गांधी जी की मूर्ति स्थापित है. इसके अलावा लंदन के ही टैविस्टॉक स्क्वायर में भी बापू की एक प्रतिमा लगी हुई है. अकेले संयुक्त राज्य अमरीका में उनकी दो दर्ज़न से अधिक मूर्तियां लगी हुई हैं. 

ऐसे में यह उपयुक्त ही लगता है कि स्वयं उनका अपना देश उन्हें बापू के रूप में याद करता है और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता उन्हें 'राष्ट्रपिता' कह और मानकर व्यक्त करता है. वैसे यहां यह याद कर लेना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की यह पदवी उन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने दी थी जिन्हें आज के कुछ राजनीति कर्मी गांधी और उनके विचारों के प्रतिपक्ष के रूप में प्रदर्शित करने के प्रयास अनवरत रूप से करते रहते हैं. तथ्य यह है कि 06 जुलाई  1944 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद रेडियो स्टेशन से प्रसारित अपने एक संदेश में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका की सराहना करते हुए गांधी जी को 'फादर ऑफ द नेशन' कहा था. बाद में यही अभिव्यक्ति राष्ट्रपिता के रूप में लोक प्रचलित और स्वीकृत हुई. लेकिन यह बात कम विडंबनापूर्ण नहीं है कि सारी दुनिया में पूजे जाने वाले और अपने देश के भी अधिकांश लोगों द्वारा समादृत महात्मा गांधी को ख़ुद उनके देश भारत में भी एक छोटे-से समूह द्वारा निरंतर अपमानित किया जाता रहा है. यह सिलसिला अभी भी ज़ारी है. 

वैसे, वैचारिक असहमति न तो कोई नई बात है, न अप्रत्याशित और न ही अस्वीकार्य. गांधी जी के जीवन काल में उनसे सबसे अधिक असहमति तो गरम दल वालों की ही रही, जो गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह वाले तौर तरीकों से असहमत थे. इनके अलावा जाति संरचना और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर अम्बेडकर की उनसे असहमतियां जग ज़ाहिर हैं. लेकिन एक और समूह था जो अल्पसंख्यकों के प्रति उनके सहानुभूतिपूर्ण और समन्वयवादी रुख से बहुत ज़्यादा नाराज़ था. इस नाराज़गी की परिणति हुई 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या से. अफ़सोस की बात यह कि शांति के इस पुजारी की हत्या करके भी इस समूह की नाराज़गी पर विराम नहीं लगा. इन लोगों के उत्तराधिकारियों ने जहां महात्मा गांधी की हत्या को वध कहकर अप्रत्यक्ष रूप से वैध और सम्मानित कृत्य बनाने के प्रयास ज़ारी रखे, अन्य कई मोर्चों पर भी ये लोग महात्मा गांधी के प्रति अपनी नाराज़गी का इज़हार करते रहे. ऐसा ही एक निंदनीय प्रयास किया गया मध्यप्रदेश के अलीराजपुर में एक तथाकथित साध्वी शकुन पाण्डेय के द्वारा. इस महिला ने जनवरी 2019 में एक कार्यक्रम आयोजित कर महात्मा गांधी की हत्या का एक प्रहसन प्रस्तुत किया. इस प्रहसन में गांधी जी के पुतले पर गोली चलाई गई और गांधी जी के हत्यारे नाथू राम गोडसे की तारीफ़ की गई.  बात केवल इतने पर ही नहीं थमी. जब इस कृत्य की निंदा हुई तो हिंदू महासभा ने पूरी बेशर्मी से यह कहते हुए इस कृत्य का बचाव और समर्थन किया कि यह तो गांधी जी की मुस्लिम समर्थक और हिंदू विरोधी नीतियों के प्रति उनका विरोध प्रदर्शन था. यह समझ पाना किसी के लिए भी नामुमकिन होगा कि कितनी भी असहमति क्यों न हो, कोई भी किसी की हत्या और उस हत्या का समर्थन कैसे कर सकता है?  

और जब एक समूह विशेष गांधी जी हत्या तक को ग़लत नहीं मानता है तो यह इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस समूह के समर्थक जगह-जगह गांधी जी की मूर्तियों को तोड़ते या विरूपित करते रहे हैं. इन्हें न सर्वधर्म समभाव अच्छा लगता है न ये गंगा जमुनी तहज़ीब को स्वीकार कर पाते हैं. इन्हें शांति और अहिंसा की बातें पसंद ही नहीं आती हैं.  इस सोच वाले लोग आधुनिक तौर तरीकों का इस्तेमाल कर सोशल मीडिया पर गांधी जी के बारे में अनर्गल, अभद्र और कुत्सित मिथ्या बातें प्रसारित करने के अभियान में जुटे रहते हैं. इसका परिणाम यह हुआ है कि नई पीढ़ी के मन में गांधी जी की एक विकृत और अस्वीकार्य छवि ये लोग स्थापित करने में एक हद तक सफल हुए हैं. यही  समूह कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष  रूप से गांधीजी को राष्ट्रपिता कहने का भी विरोध करता है. यह बात सही है कि भारतीय संविधान में राष्ट्रपिता जैसा कोई पद नहीं है. इसलिए इस पदवी की कोई संवैधानिक अस्मिता नहीं है. लेकिन अगर इस देश का जन मानस महात्मा गांधी को यह मान देता है तो इसमें अनुचित भी कुछ नहीं है. 

महात्मा गांधी का आधुनिक भारत के निर्माण में जो योगदान है और उन्होंने जिस संवेदनशीलता के साथ आधुनिक भारत की छवि को आकृति प्रदान की है वह अनुपम और अतुलनीय है. एक राष्ट्र के रूप में हम उनके चिर ऋणी हैं और इस ऋण के प्रति कृतज्ञता स्वरूप अगर हम उन्हें राष्ट्रपिता कहकर अपनी आदरांजलि प्रस्तुत करते हैं तो इससे किसी को कोई कष्ट नहीं होना चाहिए. यहीं इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि महात्मा गांधी को 'राष्ट्रपिता' कहना और मानना किसी भी तरह से अन्य स्वाधीनता सेनानियों का अपमान या अवमानना नहीं है. हर स्वाधीनता सेनानी  ने, चाहे वह सरदार पटेल हो, सुभाष चंद्र बोस हो, भगत सिंह हो, चंद्रशेखर आज़ाद हो, लोकमान्य तिलक हों- कोई भी हो उसने अपनी-अपनी तरह से स्वाधीनता संग्राम को सफल बनाने में योगदान दिया है. महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कह देने से इनमें से किसी का भी महत्व कम नहीं हो जाता है. और जहां तक इस उपाधि से या महात्मा गांधी के महत्व के स्वीकार से  असहमति की बात है, असहमति तो लोकतंत्र का प्राण है. हममें से हरेक को सहमत  होने का जितना अधिकार है उतना ही अधिकार असहमत  होने का भी है. जो महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता न मानना चाहें वे न मानें, लेकिन जो मानना चाहते हैं उनसे वे यह उम्मीद क्यों करें कि वे भी उनकी  तरह सोचने लगेंगे. जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जो हमें पसंद नहीं होता. लेकिन हम उसके प्रति सहिष्णुता बरतते हैं.  

महात्मा गांधी के जन्म के इस माह में भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उनके महान योगदान के लिएभारतीय जन मानस में नई और समन्वयवादी चेतना का संचार करने के लिए, एक समतामूलक समाज का स्वप्न देने के लिए और पूरी दुनिया के सामने अहिंसा और सत्याग्रह  की  महत्ता को स्थापित करने के लिए महात्मा गांधी की पावन स्मृति को नमन. उनकी जीवन गाथा और उनके आदर्श सदियों तक मानवता का पथ आलोकित करते रहेंगे! उनके द्वारा जलाई गई आदर्शों की मशाल विरोध की हर आंधी को पराजित करती रहेगी.

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(नवनीत हिंदी डाइजेस्ट के अक्टोबर, 2025 अंक में प्रकाशित) 

बात हिंदी लेखक को मिली रॉयल्टी की!


 कुछ दिनों पहले एक ख़बर आई. कहें कि दुबारा आई. ख़बर यह कि भारत के एक प्रकाशकहिंदी युग्मने हिंदी के नामी लेखक विनोद कुमार शुक्ल को उनके एक उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' के लिए एक समारोह में रॉयल्टी के रूप में तीस लाख रुपये का चैक दिया. दुबारा वाली बात इसलिए किहिंदी युग्म’  के शैलेश भारतवासी  कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में इस आशय की घोषणा कर चुके थे. अब बताया गया कि पिछले छह महीनों में इस प्रकाशक ने विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास की 86, 897 प्रतियां बेचीं और इस बिक्री से प्राप्त राशि के अनुरूप यथानियम तीस लाख रुपये की रॉयल्टी का चैक विनोद कुमार शुक्ल जी को  दिया. जिन्हें नहीं पता हो उन्हें बता दूं कि लेखन-प्रकाशन की दुनिया में रॉयल्टी उस राशि को कहा जाता है जो किसी किताब की बिक्री से प्राप्त राशि में लेखक का हिस्सा होती है. यह रॉयल्टी सामान्यत: दस प्रतिशत होती है. कम ज़्यादा भी हो सकती है. 

सामान्य प्रक्रिया यह है कि कोई लेखक कुछ लिखता है और उसे प्रकाशन के लिए प्रकाशक के पास ले जाता है. अगर प्रकाशक को वह लिखा हुआ पसंद आता है तो वह लेखक से एक अनुबंध करता है और फिर उस अनुबंध के अनुरूप आगे के अन्य काम होते हैं. बहुत बार प्रकाशक लेखक को मानदेय राशि अग्रिम भी देता है, और किताब प्रकाशित हो जाने पर यथा अनुबंध उसकी मानार्थ प्रतियां (सामान्यत: पांच या सात) देता है और फिर हर वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर लेखक को उसकी किताब की बिक्री का विवरण भेजता है. इसके बाद इस विवरण के अनुसार वह लेखक को रॉयल्टी की राशि भेजता है. विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास के मामले में यह अतिरिक्त जानकारी भी ले लें कि मूलत: यह उपन्यास सन 1996 में   एक अन्य प्रकाशन गृह से आया था और वहां से यह अब भी प्रकाशित हो रहा है. लेकिन बीच में लेखक और प्रकाशक के बीच कुछ विवाद हुआ और लेखक ने अपना यह उपन्यास प्रकाशित करने के अधिकारहिंदी युग्मको दे दिए.हिंदी युग्मवाला संस्करण अधिक बिका और उससे लेखक को रॉयल्टी के रूप में यह राशि दी गई. हिंदी युग्म का यह भी कहना है कि दिसंबर से मार्च तक अर्थात  पुस्तक मेलों के मौसम में इस उपन्यास की बिक्री दो लाख प्रतियों तक हो सकती है. उस स्थिति में लेखक की रॉयल्टी भी बढ़कर साठ सत्तर लाख तक हो सकती है.   

मैंने कहा कि किताब के प्रकाशन की यह सामान्य प्रक्रिया है. लेकिन यथार्थ यह नहीं है. यथार्थ इससे काफी भिन्न है. आज हिंदी में तीन तरह के लेखक हैं. एक वे जिन्हें हर प्रकाशक छापना चाहता है (क्योंकि उनकी किताबें बिकती हैं), दूसरे वे जिन्हें प्रकाशक जैसे-तैसे प्रकाशित कर देता है, लेकिन मानदेय या / और रॉयल्टी के नाम पर प्रकाशक लेखक को कुछ भी नहीं देता है. और तीसरे प्रकार के वे लेखक हैं जो प्रकाशक के पास जाते हैं और प्रकाशक की बताई, या आपसी सहमति से तय की हुई राशि देकर अपनी किताब छपवा लेते हैं. इन्हें तो प्रकाशक से कोई राशि मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता है. लेखक-प्रकाशक के बीच लिखित अनुबंध प्राय: होता ही नहीं है और अगर होता भी है तो उसका कोई लाभ सामान्यत: लेखक को नहीं मिलता है. आज हिंदी में यह कहने वाले लेखक बहुत कम हैं कि उन्हें अपने प्रकाशक से सम्मानजनक राशि रॉयल्टी के रूप में मिली या मिलती है. ऐसे में  एक प्रचलित मज़ाक याद आता है कि जब किसी ने अपना परिचय लेखक के रूप में दिया तो सामने वाले ने पूछा कि आप लेखक तो हैं, लेकिन करते क्या हैंइस मज़ाक की ध्वनि भी यही है कि हिंदी में कोई केवल लेखन के बल  पर गुज़र बसर नहीं कर सकता. उसके लिए तो उसे कोई नौकरी या व्यवसाय करना होगा. हमारे यहां सामान्य या नया लेखक तो पैसे देकर किताब छपवा कर भी प्रकाशक के प्रति कृतज्ञ ही  होता है. प्रकाशन की यह दुनिया इस मामले में विचित्र है कि प्रकाशक कागज़ पर खर्च  करता है, छपाई  पर खर्च करता है, बाइंडिंग पर खर्च करता है, डिज़ाइनर को भी पैसे देता है लेकिन जिस लेखक के श्रम को वह बेच रहा है उसे पैसे देने की कोई ज़रूरत उसे नहीं लगती. लेखक भी मांगने का साहस नहीं करता है. प्रकाशक का आम तर्क यह होता है कि किताब बिक ही नहीं रही, मानदेय या रॉयल्टी कहां से दी जाए! हाल में ममता कालिया जी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि जब उन्होंने अपने प्रकाशक से अपनी किताबों की रॉयल्टी के बारे में पूछ तो उन्हें बताया गया कि इस साल आपकी कोई रॉयल्टी बनी ही नहीं.  इस बात पर भला कौन विश्वास करेगा कि ममता कालिया जैसी लेखिका की एक भी किताब न बिकी हो. अगर ममता कालिया जी जैसी लेखिका को प्रकाशक का यह जवाब मिला है तो शेष लोग कल्पना कर सकते हैं कि उन्हें क्या जवाब मिलेगा!

इस पूरे परिदृश्य में अगर एक लेखक के एक उपन्यास की लगभग नब्बे हज़ार प्रतियां मात्र छह माह में एक प्रकाशक ने बेच दी और इस बिक्री के अनुसार तीस लाख  रुपये की रॉयल्टी समारोह  पूर्वक  चैक से लेखक को दी तो यह ख़बर पूरे हिंदी समाज के लिए प्रसन्नता की बात होनी चाहिए थी. हिंदी में भी कभी-कभार  लेखकों को अपने प्रकाशकों से बड़ी राशि अग्रिम या रॉयल्टी के रूप में मिलने की ख़बरें आती रही हैं, लेकिन ऐसा  बहुत ही कम होता है. इसलिए विनोद कुमार शुक्ल को इतनी बड़ी राशि का चैक मिलना एक बड़ी ख़बर बना. लेखक पत्रकार प्रियदर्शन ने एक सूची दी है कि अन्य भाषाओं के किन-किन लेखकों  को कब-कब कितनी राशि मिली है. उनकी सूची के अनुसार, सन 2009 में रामचंद्र गुहा को 97 लाख रुपये की अग्रिम राशि मिली थी और उनसे भी पहले अमितव घोष को 55 लाख रुपये की अग्रिम राशि मिली थी. इसी तरह दो खण्डों में महात्मा गांधी की जीवनी और संकलित गद्य की अन्य ज़िल्दों के लिए रामचंद्र गुहा को एक करोड़ रुपये अग्रिम मिल चुके हैं. जब इतनी बड़ी राशि अग्रिम मिली है तो रॉयल्टी भी अच्छी ही मिले होगी. अंग्रेज़ी में, भारत में अनेक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने अपनी अच्छी ख़ासी तनख़्वाह वाली नौकरियां छोड़कर  पूर्णकालिक लेखन को अपनाया और उन्हें इस बात के लिए कोई अफ़सोस नहीं करना पड़ा. लेकिन हिंदी में ऐसे भाग्यशाली बहुत कम हैं. यहां लेखन कोसाहित्य सेवाकहा जाता है और सेवा तो निस्वार्थ ही होती है. हमारे यहां एक लेखक को उसकी किताबों से एक ठीक-सी राशि रॉयल्टी के रूप में मिलना कल्पना से परे वाली बात है. 

हिंदी समाज को जिस बात से  प्रसन्न होना चाहिए, वह उस बात की बाल की खाल निकाल कर आनंदित हो रहा है. बहुतों को इस ख़बर की सत्यता और प्रामाणिकता में (समारोह और चैक से भुगतान के बावज़ूद) संदेह है तो अनेकों का कष्ट यह है कि विनोद कुमार शुक्ल के सम्मान के इस आयोजन में अमुक क्यों आए और अमुक क्यों नहीं आए. मुझे तो यह बात बहुत कष्टप्रद लगती है कि विनोद कुमार शुक्ल जैसे वरिष्ठ और लगभग अशक्त हो चुके लेखक को स्पष्टीकरण देना पड़े कि एक पूर्व मुख्य मंत्री उनके समारोह में क्यों और कैसे आए. क्या कोई किसी समारोह में चला जाए तो इसे मंचस्थ का अपराध माना जाना चाहिए? वैसे यह भी कि आम तौर पर हमारे यहां राजनीति और इतर इलाकों के भी नामी-गिरामी लोग ऐसे आयोजनों में केवल तभी जाते हैं जब उन्हें मंचस्थ होना होता है. एक सामान्य नागरिक के रूप में उनका कहीं प्रकट हो जाना अकल्पनीय ही होता है. वैसे   यह वही हिंदी लेखक समाज है जो किसी घोषित अपराधी के कार्यक्रमों में नंगे पांव दौड़ा चला जाता है और अपनी ही बिरादरी के किसी लेखक के प्रति अपनी  सारी कुंठा  उन्मुक्त और आनंद  भाव से व्यक्त करता है. 

मेरा मानना है कि विनोद कुमार शुक्ल यह रॉयल्टी मिलना हिंदी समाज के लिए स्वागत योग्य बात और एक प्रस्थान बिंदु होना चाहिए. इस बात का प्रस्थान बिंदु कि अन्य प्रकाशक भी ऐसा ही करेंगे. किताबें बिकती हैं, यह बात असंदिग्ध है. अगर बिकती ही नहीं हैं तो प्रकाशन गृह बंद क्यों नहीं हो जाते? पिछले बरसों में कितने प्रकाशन गृह बंद हुए हैं? क्यों नए-नए प्रकाशक बाज़ार में आ रहे हैं? प्रकाशक को लेखक से शिकायत रहती है, लेखक प्रकाशक पर भरोसा नहीं रखता है. क्या यह स्थिति बदल नहीं सकती है? बदलनी नहीं चाहिए? स्वयं विनोद कुमार शुक्ल  ने कहा है कि उनके प्रकाशकों ने कभी उन्हें उनकी किताबों की बिक्री का ठीक विवरण नहीं दिया और न ठीक से रॉयल्टी दी. प्रकाशक और लेखक के बीच सब कुछ साफ़-साफ़ क्यों नहीं हो सकता? उसके बाद न तो लेखक प्रकाशक से कोई अतिरिक्त अपेक्षा करे और न प्रकाशक अपनी बात से पीछे हटे. हर साल बिकने वाली किताबों का ब्यौरा लेखक को समय पर मिले (कम्प्यूटर के ज़माने में यह कोई अव्यावहारिक अपेक्षा नहीं है) और तदनुसार समय पर लेखक को रॉयल्टी मिल जाया करे. लेखक और प्रकाशक के बीच स्वस्थ और पारदर्शी रिश्ते दोनों ही के हित में हैं.  अगर लेखक को अपने श्रम का मानदेय मिलेगा तो वह और बेहतर कर सकेगा, और उसके बेहतर किए का लाभ प्रकाशक के साथ-साथ समाज को भी मिलेगा. लेखक-प्रकाशक रिश्तों पर खुलकर बात होनी चाहिए. इस मामले में लेखक संगठनों और प्रकाशक संगठनों से भी यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे अधिक सक्रिय होकर स्वस्थ वातावरण का निर्माण करने में अपनी भूमिका निबाहेंगे.  

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