मैं एक बहुत छोटा कलम घसीट हूं. यह बात मैं महज़ विनम्रता में नहीं कह रहा हूं. लेखकों की इतनी बड़ी दुनिया और उसमें एक से एक बड़े लेखक, उनके सामने मैं क्या हूं? विदेशी भाषाओं में, और ख़ास तौर पर अंग्रेज़ी में लेखकों की निजी ज़िंदगी, उनकी आदतों, उनकी सनकों आदि की खूब चर्चा होती है. (अन्य भाषाओं में होती है या नहीं, मुझे जानकारी नहीं है.) शायद उसी का असर है कि अब मेरी भाषा हिंदी में भी इस तरह के प्रयास होने लगे हैं. लेकिन अभी हमारे यहां अपने पुरोधा लेखकों के रचना-परिवेश के बारे में भी बहुत ज़्यादा ज्ञात नहीं है. इसकी एक वजह यह भी है कि हमारे यहां आत्म प्रक्षेपण की प्रवृत्ति बहुत कम रही है. इधर स्थितियां बदली हैं और लेखकों की आदतों, उनके परिवेश आदि के बारे में भी थोड़ी बहुत बातें होने लगी हैं. ख़ास तौर पर नई कहानी के दौर में यह प्रवृत्ति अधिक उभरी. सूरज प्रकाश जी जैसे दृष्टि सम्पन्न रचनाकार ने इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उन जैसा काम किसी और ने शायद ही किया हो. ऐसे में जब उन्होंने मुझ अकिंचन से अपने लिखने की मेज के बारे में कुछ कहने का आग्रह किया तो थोड़े संकोच से मैंने इस आग्रह को उनका आदेश मान स्वीकार कर लिया.
जब लिखने बैठा हूं
तो बहुत सारे लेखकों की लिखने की मेज और उनके लेखन की अजीब-ओ-ग़रीब आदतों की बातें
मानस पटल पर झिलमिला रही हैं. अपने बारे में ऐसा तो कुछ भी नहीं है. बात को सलीके
से कहने के लिए मुझे थोड़ा पीछे जाना होगा. मेरा परिवेश एक व्यापारी परिवार वाला रहा
है. पिता एक व्यापारी थे और मां सामान्य गृहिणी. घर में पढ़ने लिखने का कोई माहौल
था ही नहीं. यह साठ के दशक की बात है. जैसे-तैसे पढ़ लिया और कॉलेज प्राध्यापक बन
गया. मन में रुचि थी और उचित वातावरण भी मिला तो थोड़ा बहुत लिखने लगा. पहले कुछ
कविताएं लिखी, कुछ कहानियां भी लिखीं और उसके बाद आलोचना की
तरफ मुड़ गया. कथा साहित्य की आलोचना में मेरी बहुत
रुचि रही. एक ज़माने में पुस्तक समीक्षाएं भी खूब
लिखीं. खूब यानी वास्तव में खूब! फिर अनुवाद की तरफ मुड़ा. तरह-तरह के अनुवाद किए.
उसके बाद यात्रा वृत्तांत की तरफ मुड़ा और इधर कुछ बरसों से साहित्येतर लेखन कर रहा
हूं. अनेक प्रकाशनों में स्तंभ लिखे हैं और लिखता हूं.
साहित्य पढ़ता खूब हूं लेकिन लिखता अन्यान्य विषयों पर हूं.
जब 1970 में मैंने लिखना शुरु किया तो मेरे पास एक
छोटी-सी टेबल थी और उस टेबल पर एक पोर्टेबल टाइप राइटर रहता था - जेके का. टेबल पर
कुछ ठीक-ठाक से पेन, पेंसिल इरेज़र और उस ज़माने में चलन में
रही कोरस के इरेजेक्स की एक शीशी रहती थी. मुझे अपने
लेखन में सुरुचि का जैसे जुनून था. अच्छे कागज़ पर
सलीके से टंकित लेख को बेहतरीन लिफाफे में ठीक से मोड़कर रखकर पोस्ट करना मुझे
रुचता था. यह आदत अभी तक बनी हुई है. अपने सीमित साधनों के बावज़ूद
मैं अच्छी स्टेशनरी खरीदता और कोशिश करता कि जो भी टाइप करूं वह त्रुटि रहित हो.
अपने लेखन में मदद के लिए शब्द कोश देखना मुझे बहुत प्रिय था जैसे-जैसे सम्भव हुआ
मैं अलग-अलग कोश खरीदता गया. यह मेरा सौभाग्य रहा कि मैं जिन भी कॉलेजों में
कार्यरत रहा, वहां के पुस्तकालय बहुत समृद्ध थे अत: संदर्भ
आदि जुटाने के लिए मुझे पुस्तकों और संदर्भ ग्रंथों का अभाव कभी नहीं रहा. मेरे
लिखने की टेबल पर एक टेबल लैम्प ज़रूर रहता, भले ही महंगा
टेबल लैम्प मैं कभी नहीं खरीद सका. अपनी सरकारी नौकरी में तबादलों की वजह से कोई
लगभग दस घर तो मैंने बदले ही लेकिन हर घर में टेबल की
व्यवस्था करीब-करीब ऐसी ही रही. एक बात और. लाख प्रयत्न करने और पत्नी की नाराज़गी
सहने के बावज़ूद मैं अपनी टेबल को साफ़ और व्यवस्थित कभी नहीं रख सका. एक तो बहुत
बड़ी टेबल कभी मेरे पास नहीं रही, और दूसरे उस पर किताबें,
कागज़-पत्तर और अन्यान्य सामग्री का अंबार हमेशा लगा रहा. बीच में
काफी समय मेरे लिखने की टेबल पर एक छोटा ट्रांज़िस्टर रेडियो भी रहता था, जिस पर चलने वाला संगीत मेरे और शेष दुनिया के बीच के पार्टीशन की भूमिका
निबाहता था. बाद में इस ट्रांज़िस्टर की ज़रूरत ख़त्म हो गई.
सन 2000 में कई घाटों का पानी पीकर जब हम लोग जयपुर आ गए और यहां तीन साल नौकरी
करने के बाद अंतत: यहीं के होने का फैसला हो गया और इस लम्बी ज़िंदगी में पहली बार
अपने घर में रहने का संयोग जुटा तो लिखने पढ़ने के लिए
एक ठीक-ठाक-सी टेबल बनवाई गई. इस समय तक हमारी ज़िंदगी में कम्प्यूटर भी आ गया था
और मैं भी अपने पोर्टेबल टाइपराइटर को छोड़कर लैपटॉप
का इस्तेमाल करने लग गया था, अत: टेबल की शक्ल
भी बदल गई. अब मैं जिस टेबल पर यह सब लिख रहा हूं उस पर एक बड़ा मॉनीटर और की बोर्ड
है, आइकिया का एक खूबसूरत लैम्प है, एक
पेन स्टैण्ड है जिसमें पेन पेंसिल, हाइलाइटर, करेक्शन फ्ल्यूड वगैरह रहते हैं, नीचे एक पुल आउट
शेल्फ है जिस पर मेरा लैपटॉप रहता है, उसके साइड में दो छोटी
और एक बड़ी दराज़ें हैं. छोटी दराज़ों में लेखन सामग्री-स्टेशनरी, डाक टिकिट वगैरह रहते हैं और नीचे वाली बड़ी
दराज़ में ऊपर एक स्कैनर और नीचे प्रिण्टर रहते हैं. भले
ही डाक का प्रयोग बहुत कम हो गया है, अच्छे लिफाफे, विशेष डाक टिकिट, गोंद, फेविकोल
वगैरह सब मेरे पास हमेशा रहते हैं. अब मेरी टेबल पर ट्रांज़िस्टर नहीं रहता क्योंकि
संगीत मुझे अपने लैपटॉप या टेबल के कोने पर रखे गूगल के स्मार्ट मिनी स्पीकर से
मिल जाता है. जब भी मुझे कुछ लिखना होता है पहले मैं संगीत चलाता हूं खास तौर पर
शास्त्रीय वाद्य संगीत, और उसके बाद अपने लेखन को की बोर्ड
के माध्यम से अस्तित्व में लाता हूं. अपने कम्प्यूटर पर नए और आकर्षक फॉण्ट्स का
इस्तेमाल करना मुझे बहुत रुचता है. अब संदर्भ के लिए, वर्तनी
जांच के लिए मुझे बार-बार उठकर अपनी अलमारी तक नहीं जाना होता है. अधिकांश काम
लैपटॉप से ही हो जाता है.
क्योंकि मेरा
क्षेत्र सर्जनात्मक लेखन नहीं है, स्वभावत: लिखने के बारे
में मेरी कोई ख़ास आदत भी नहीं है. मन में विचार चलते रहते हैं. कभी-कभार उन्हें
व्यवस्थित करने के लिए सामने रखे नोट पैड पर कुछ बिंदु टांक लेता हूं और फिर सीधे
टाइप करने बैठ जाता हूं. कभी-कभार वॉयस टाइपिंग का भी प्रयोग कर लेता हूं, हालांकि मुझे वह बहुत सहज नहीं लगता है. अपनी नौकरी के दिनों
में भी, जब मुझे बाकायदा स्टेनो की सुविधा
सुलभ थी, डिक्टेशन देने की बजाय हाथ से लिखकर टाइप करवाना
मुझे ज़्यादा रुचता था. वही आदत अब भी है. कम्प्यूटर के
कारण अपने लिखे में क्रम बदलने, वर्तनी जांच करने, संदर्भ जोड़ने वगैरह की बहुत सारी सुविधाएं अब
मेरे लिखने के काम को आसान बना रही हैं. मेरे लिखने का
कोई निश्चित समय नहीं है. दिन में, रात में, शोर में शांति में किसी भी स्थिति में लिख लेता हूं.
और हां, मेरी टेबल अब भी उतनी ही अव्यवस्थित और बिखरी हुई रहती है.
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