यह कहना तनिक भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि पूरी दुनिया में भारत की पहचान गांधी के देश के रूप में है. सच तो यह है कि बहुतों के लिए भारत और महात्मा गांधी एक दूसरे के पर्याय हैं. अल्बर्ट आइंस्टीन ने 1931 में अपने एक पत्र में गांधी जी को लिखा था कि "आपका कार्य मानवता के लिए एक अनमोल उदाहरण है" वे महात्मा गांधी के अहिंसक प्रतिरोध को बाद की पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायी मानते थे. रूस के महान लेखक लियो टॉल्स्टॉय और महात्मा गांधी एक दूसरे से प्रभावित थे. जहां इस महान रूसी लेखक की किताब ‘द किंगडम ऑफ गॉड इज़ विदिन यू’ को बापू के अहिंसा दर्शन की प्रेरक माना जाता है वहीं यह भी एक तथ्य है कि गांधी के कामों ने टॉल्स्टॉय को प्रभावित किया था. फ्रांस के रोमां रोलां तो गांधी से इतने ज़्यादा प्रभावित थे कि उन्होंने बापू की जीवनी ही लिख डाली थी. जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने अगर गांधी को 'महान आत्मा' कहा था तो अमरीका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अपनी किताब ‘स्ट्राइड टुवर्ड फ्रीडम’ में गांधी के दर्शन को अपना मुख्य प्रेरणा स्रोत बताया था. वियतनाम के हो ची मिन्ह और दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला का गांधी जी के प्रति आदर भाव सर्व विदित है. म्यांमार की आंग सान सू की और पोलैंड के लेच वालेंसा ने खुलकर बापू के विचारों को सराहा है. इस बात की गिनती करना भी कठिन है कि दुनिया के कितने देशों ने बापू के सम्मान में डाक टिकिट ज़ारी किए हैं और कितने देशों में उनकी मूर्तियां लगाई गई हैं. सन 2019 में एक आरटीआई के जवाब में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) ने बताया था कि दुनिया के 102 देशों में गांधी जी मूर्तियां लगी हुई हैं. माना जा सकता है वास्तविक संख्या इससे ज़्यादा ही होगी. मुझे सबसे मार्मिक और ध्यानाकर्षक बात तो यह लगती है कि जिस ब्रिटिश शासन के नियंत्रण से भारत को आज़ाद करने के लिए बापू ने लम्बा संघर्ष किया उसी के शहर लंदन के पार्लियामेंट स्क्वायर पर गांधी जी की मूर्ति स्थापित है. इसके अलावा लंदन के ही टैविस्टॉक स्क्वायर में भी बापू की एक प्रतिमा लगी हुई है. अकेले संयुक्त राज्य अमरीका में उनकी दो दर्ज़न से अधिक मूर्तियां लगी हुई हैं.
ऐसे में यह उपयुक्त
ही लगता है कि स्वयं उनका अपना देश उन्हें बापू के रूप में याद करता है और उनके
प्रति अपनी कृतज्ञता उन्हें 'राष्ट्रपिता' कह और मानकर व्यक्त करता है. वैसे यहां यह याद कर लेना भी अप्रासंगिक नहीं
होगा कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की यह पदवी उन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने दी
थी जिन्हें आज के कुछ राजनीति कर्मी गांधी और उनके विचारों के प्रतिपक्ष के रूप
में प्रदर्शित करने के प्रयास अनवरत रूप से करते रहते हैं. तथ्य यह है कि 06
जुलाई 1944 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस
ने आज़ाद हिंद रेडियो स्टेशन से प्रसारित अपने एक संदेश में भारत के स्वतंत्रता
संग्राम में उनकी भूमिका की सराहना करते हुए गांधी जी को 'फादर
ऑफ द नेशन' कहा था. बाद में यही अभिव्यक्ति राष्ट्रपिता के
रूप में लोक प्रचलित और स्वीकृत हुई. लेकिन यह बात कम विडंबनापूर्ण नहीं है कि
सारी दुनिया में पूजे जाने वाले और अपने देश के भी अधिकांश लोगों द्वारा समादृत
महात्मा गांधी को ख़ुद उनके देश भारत में भी एक छोटे-से समूह द्वारा निरंतर अपमानित
किया जाता रहा है. यह सिलसिला अभी भी ज़ारी है.
वैसे, वैचारिक असहमति न तो कोई नई बात है, न अप्रत्याशित
और न ही अस्वीकार्य. गांधी जी के जीवन काल में उनसे सबसे अधिक असहमति तो गरम दल
वालों की ही रही, जो गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह वाले तौर
तरीकों से असहमत थे. इनके अलावा जाति संरचना और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर
अम्बेडकर की उनसे असहमतियां जग ज़ाहिर हैं. लेकिन एक और समूह था जो अल्पसंख्यकों के
प्रति उनके सहानुभूतिपूर्ण और समन्वयवादी रुख से बहुत ज़्यादा नाराज़ था. इस नाराज़गी
की परिणति हुई 30 जनवरी, 1948 को
महात्मा गांधी की हत्या से. अफ़सोस की बात यह कि शांति के इस पुजारी की हत्या करके
भी इस समूह की नाराज़गी पर विराम नहीं लगा. इन लोगों के उत्तराधिकारियों ने जहां
महात्मा गांधी की हत्या को वध कहकर अप्रत्यक्ष रूप से वैध और सम्मानित कृत्य बनाने
के प्रयास ज़ारी रखे, अन्य कई मोर्चों पर भी ये लोग महात्मा
गांधी के प्रति अपनी नाराज़गी का इज़हार करते रहे. ऐसा ही एक निंदनीय प्रयास किया
गया मध्यप्रदेश के अलीराजपुर में एक तथाकथित साध्वी शकुन पाण्डेय के द्वारा. इस
महिला ने जनवरी 2019 में एक कार्यक्रम आयोजित कर महात्मा
गांधी की हत्या का एक प्रहसन प्रस्तुत किया. इस प्रहसन में गांधी जी के पुतले पर
गोली चलाई गई और गांधी जी के हत्यारे नाथू राम गोडसे की तारीफ़ की गई.
बात केवल इतने पर ही नहीं थमी. जब इस कृत्य की निंदा हुई तो हिंदू
महासभा ने पूरी बेशर्मी से यह कहते हुए इस कृत्य का बचाव और समर्थन किया कि यह तो
गांधी जी की मुस्लिम समर्थक और हिंदू विरोधी नीतियों के प्रति उनका विरोध प्रदर्शन
था. यह समझ पाना किसी के लिए भी नामुमकिन होगा कि कितनी भी असहमति क्यों न हो,
कोई भी किसी की हत्या और उस हत्या का समर्थन कैसे कर सकता है?
और जब एक समूह विशेष
गांधी जी हत्या तक को ग़लत नहीं मानता है तो यह इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना
चाहिए कि इस समूह के समर्थक जगह-जगह गांधी जी की मूर्तियों को तोड़ते या विरूपित
करते रहे हैं. इन्हें न सर्वधर्म समभाव अच्छा लगता है न ये गंगा जमुनी तहज़ीब को
स्वीकार कर पाते हैं. इन्हें शांति और अहिंसा की बातें पसंद ही नहीं आती हैं.
इस सोच वाले लोग आधुनिक तौर तरीकों का इस्तेमाल कर सोशल मीडिया पर गांधी
जी के बारे में अनर्गल, अभद्र और कुत्सित मिथ्या बातें
प्रसारित करने के अभियान में जुटे रहते हैं. इसका परिणाम यह हुआ है कि नई पीढ़ी के
मन में गांधी जी की एक विकृत और अस्वीकार्य छवि ये लोग स्थापित करने में एक हद तक
सफल हुए हैं. यही समूह कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष
रूप से गांधीजी को राष्ट्रपिता कहने का भी विरोध करता है. यह बात
सही है कि भारतीय संविधान में राष्ट्रपिता जैसा कोई पद नहीं है. इसलिए इस पदवी की
कोई संवैधानिक अस्मिता नहीं है. लेकिन अगर इस देश का जन मानस महात्मा गांधी को यह
मान देता है तो इसमें अनुचित भी कुछ नहीं है.
महात्मा गांधी का
आधुनिक भारत के निर्माण में जो योगदान है और उन्होंने जिस संवेदनशीलता के साथ
आधुनिक भारत की छवि को आकृति प्रदान की है वह अनुपम और अतुलनीय है. एक राष्ट्र के
रूप में हम उनके चिर ऋणी हैं और इस ऋण के प्रति कृतज्ञता स्वरूप अगर हम उन्हें
राष्ट्रपिता कहकर अपनी आदरांजलि प्रस्तुत करते हैं तो इससे किसी को कोई कष्ट नहीं
होना चाहिए. यहीं इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि महात्मा गांधी को 'राष्ट्रपिता' कहना और मानना किसी भी तरह से अन्य
स्वाधीनता सेनानियों का अपमान या अवमानना नहीं है. हर स्वाधीनता सेनानी
ने, चाहे वह सरदार पटेल हो, सुभाष चंद्र बोस हो, भगत सिंह हो, चंद्रशेखर आज़ाद हो, लोकमान्य तिलक हों- कोई भी हो
उसने अपनी-अपनी तरह से स्वाधीनता संग्राम को सफल बनाने में योगदान दिया है.
महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कह देने से इनमें से किसी का भी महत्व कम नहीं हो
जाता है. और जहां तक इस उपाधि से या महात्मा गांधी के महत्व के स्वीकार से
असहमति की बात है, असहमति तो लोकतंत्र का
प्राण है. हममें से हरेक को सहमत होने का जितना अधिकार
है उतना ही अधिकार असहमत होने का भी है. जो महात्मा
गांधी को राष्ट्रपिता न मानना चाहें वे न मानें, लेकिन जो
मानना चाहते हैं उनसे वे यह उम्मीद क्यों करें कि वे भी उनकी तरह सोचने लगेंगे. जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जो हमें पसंद नहीं होता.
लेकिन हम उसके प्रति सहिष्णुता बरतते हैं.
महात्मा गांधी के
जन्म के इस माह में भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उनके महान योगदान के लिए,
भारतीय जन मानस में नई और समन्वयवादी चेतना का संचार करने के लिए,
एक समतामूलक समाज का स्वप्न देने के लिए और पूरी दुनिया के सामने
अहिंसा और सत्याग्रह की महत्ता
को स्थापित करने के लिए महात्मा गांधी की पावन स्मृति को नमन. उनकी जीवन गाथा और
उनके आदर्श सदियों तक मानवता का पथ आलोकित करते रहेंगे! उनके द्वारा जलाई गई
आदर्शों की मशाल विरोध की हर आंधी को पराजित करती रहेगी.
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(नवनीत हिंदी डाइजेस्ट के अक्टोबर, 2025 अंक में प्रकाशित)
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