कुछ
दिनों पहले एक ख़बर आई. कहें कि दुबारा आई. ख़बर यह कि भारत के एक प्रकाशक ‘हिंदी युग्म’ ने हिंदी के नामी लेखक विनोद कुमार
शुक्ल को उनके एक उपन्यास 'दीवार
में एक खिड़की रहती थी' के लिए एक समारोह में
रॉयल्टी के रूप में तीस लाख रुपये का चैक दिया. दुबारा वाली बात इसलिए कि ‘हिंदी युग्म’ के शैलेश भारतवासी कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में इस आशय की
घोषणा कर चुके थे. अब बताया गया कि पिछले छह महीनों में इस प्रकाशक ने विनोद कुमार
शुक्ल के इस उपन्यास की 86, 897 प्रतियां
बेचीं और इस बिक्री से प्राप्त राशि के अनुरूप यथानियम तीस लाख रुपये की रॉयल्टी
का चैक विनोद कुमार शुक्ल जी को दिया.
जिन्हें नहीं पता हो उन्हें बता दूं कि लेखन-प्रकाशन की दुनिया में रॉयल्टी उस
राशि को कहा जाता है जो किसी किताब की बिक्री से प्राप्त राशि में लेखक का हिस्सा
होती है. यह रॉयल्टी सामान्यत: दस प्रतिशत होती है. कम ज़्यादा भी हो सकती है.
सामान्य
प्रक्रिया यह है कि कोई लेखक कुछ लिखता है और उसे प्रकाशन के लिए प्रकाशक के पास
ले जाता है. अगर प्रकाशक को वह लिखा हुआ पसंद आता है तो वह लेखक से एक अनुबंध करता
है और फिर उस अनुबंध के अनुरूप आगे के अन्य काम होते हैं. बहुत बार प्रकाशक लेखक
को मानदेय राशि अग्रिम भी देता है, और
किताब प्रकाशित हो जाने पर यथा अनुबंध उसकी मानार्थ प्रतियां (सामान्यत: पांच या
सात) देता है और फिर हर वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर लेखक को उसकी किताब की बिक्री
का विवरण भेजता है. इसके बाद इस विवरण के अनुसार वह लेखक को रॉयल्टी की राशि भेजता
है. विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास के मामले में यह अतिरिक्त जानकारी भी ले लें
कि मूलत: यह उपन्यास सन 1996 में
एक अन्य प्रकाशन गृह से आया था और वहां से यह अब
भी प्रकाशित हो रहा है. लेकिन बीच में लेखक और प्रकाशक के बीच कुछ विवाद हुआ और
लेखक ने अपना यह उपन्यास प्रकाशित करने के अधिकार ‘हिंदी
युग्म’
को दे दिए. ‘हिंदी युग्म’ वाला संस्करण अधिक बिका और उससे लेखक को
रॉयल्टी के रूप में यह राशि दी गई. हिंदी युग्म का यह भी कहना है कि दिसंबर से
मार्च तक अर्थात पुस्तक मेलों के मौसम में
इस उपन्यास की बिक्री दो लाख प्रतियों तक हो सकती है. उस स्थिति में लेखक की
रॉयल्टी भी बढ़कर साठ सत्तर लाख तक हो सकती है.
मैंने
कहा कि किताब के प्रकाशन की यह सामान्य प्रक्रिया है. लेकिन यथार्थ यह नहीं है.
यथार्थ इससे काफी भिन्न है. आज हिंदी में तीन तरह के लेखक हैं. एक वे जिन्हें हर
प्रकाशक छापना चाहता है (क्योंकि उनकी किताबें बिकती हैं), दूसरे वे जिन्हें प्रकाशक जैसे-तैसे
प्रकाशित कर देता है, लेकिन मानदेय या / और
रॉयल्टी के नाम पर प्रकाशक लेखक को कुछ भी नहीं देता है. और तीसरे प्रकार के वे
लेखक हैं जो प्रकाशक के पास जाते हैं और प्रकाशक की बताई, या आपसी सहमति से तय की हुई राशि देकर
अपनी किताब छपवा लेते हैं. इन्हें तो प्रकाशक से कोई राशि मिलने का सवाल ही पैदा
नहीं होता है. लेखक-प्रकाशक के बीच लिखित अनुबंध प्राय: होता ही नहीं है और अगर
होता भी है तो उसका कोई लाभ सामान्यत: लेखक को नहीं मिलता है. आज हिंदी में यह
कहने वाले लेखक बहुत कम हैं कि उन्हें अपने प्रकाशक से सम्मानजनक राशि रॉयल्टी के
रूप में मिली या मिलती है. ऐसे में एक
प्रचलित मज़ाक याद आता है कि जब किसी ने अपना परिचय लेखक के रूप में दिया तो सामने
वाले ने पूछा कि आप लेखक तो हैं, लेकिन
करते क्या हैं? इस मज़ाक की ध्वनि भी यही है कि हिंदी में
कोई केवल लेखन के बल पर गुज़र बसर नहीं कर
सकता. उसके लिए तो उसे कोई नौकरी या व्यवसाय करना होगा. हमारे यहां सामान्य या नया लेखक तो पैसे देकर किताब छपवा कर भी प्रकाशक के
प्रति कृतज्ञ ही होता
है. प्रकाशन की यह दुनिया इस मामले में विचित्र है कि प्रकाशक कागज़ पर खर्च करता है, छपाई पर खर्च करता है, बाइंडिंग पर खर्च करता है, डिज़ाइनर को भी पैसे देता है लेकिन जिस
लेखक के श्रम को वह बेच रहा है उसे पैसे देने की कोई ज़रूरत उसे नहीं लगती. लेखक भी
मांगने का साहस नहीं करता है. प्रकाशक का आम तर्क यह होता है कि किताब बिक ही नहीं
रही, मानदेय या रॉयल्टी कहां से दी जाए! हाल में ममता कालिया जी को यह कहते हुए
उद्धृत किया गया है कि जब उन्होंने अपने प्रकाशक से अपनी किताबों की रॉयल्टी के
बारे में पूछ तो उन्हें बताया गया कि इस साल आपकी कोई रॉयल्टी बनी ही नहीं. इस बात पर भला कौन विश्वास करेगा कि ममता कालिया जैसी लेखिका की एक भी
किताब न बिकी हो. अगर ममता कालिया जी जैसी लेखिका को प्रकाशक का यह जवाब मिला है
तो शेष लोग कल्पना कर सकते हैं कि उन्हें क्या जवाब मिलेगा!
इस
पूरे परिदृश्य में अगर एक लेखक के एक उपन्यास की लगभग नब्बे हज़ार प्रतियां मात्र
छह माह में एक प्रकाशक ने बेच दी और इस बिक्री के अनुसार तीस लाख रुपये की रॉयल्टी समारोह पूर्वक चैक से लेखक को दी तो यह ख़बर पूरे हिंदी समाज के लिए प्रसन्नता
की बात होनी चाहिए थी. हिंदी में भी कभी-कभार लेखकों को अपने प्रकाशकों से बड़ी राशि अग्रिम या रॉयल्टी के
रूप में मिलने की ख़बरें आती रही हैं, लेकिन
ऐसा
बहुत ही कम होता है.
इसलिए विनोद कुमार शुक्ल को इतनी बड़ी राशि का चैक मिलना एक बड़ी ख़बर बना. लेखक
पत्रकार प्रियदर्शन ने एक सूची दी है कि अन्य भाषाओं के किन-किन लेखकों को कब-कब कितनी राशि मिली है. उनकी सूची
के अनुसार, सन 2009 में रामचंद्र गुहा को 97 लाख रुपये की अग्रिम राशि मिली थी और
उनसे भी पहले अमितव घोष को 55 लाख
रुपये की अग्रिम राशि मिली थी. इसी तरह दो खण्डों में महात्मा गांधी की जीवनी और
संकलित गद्य की अन्य ज़िल्दों के लिए रामचंद्र गुहा को एक करोड़ रुपये अग्रिम मिल
चुके हैं. जब इतनी बड़ी राशि अग्रिम मिली है तो रॉयल्टी भी अच्छी ही मिले होगी. अंग्रेज़ी
में, भारत में अनेक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने
अपनी अच्छी ख़ासी तनख़्वाह वाली नौकरियां छोड़कर पूर्णकालिक लेखन को अपनाया और उन्हें इस बात के लिए कोई अफ़सोस
नहीं करना पड़ा. लेकिन हिंदी में ऐसे भाग्यशाली बहुत कम हैं. यहां लेखन को ‘साहित्य सेवा’ कहा जाता है और सेवा तो निस्वार्थ ही
होती है. हमारे यहां एक लेखक को उसकी किताबों से एक ठीक-सी राशि रॉयल्टी के रूप
में मिलना कल्पना से परे वाली बात है.
हिंदी
समाज को जिस बात से प्रसन्न
होना चाहिए, वह उस बात की बाल की
खाल निकाल कर आनंदित हो रहा है. बहुतों को इस ख़बर की सत्यता और प्रामाणिकता में
(समारोह और चैक से भुगतान के बावज़ूद) संदेह है तो अनेकों का कष्ट यह है कि विनोद
कुमार शुक्ल के सम्मान के इस आयोजन में अमुक क्यों आए और अमुक क्यों नहीं आए. मुझे
तो यह बात बहुत कष्टप्रद लगती है कि विनोद कुमार शुक्ल जैसे वरिष्ठ और लगभग अशक्त
हो चुके लेखक को स्पष्टीकरण देना पड़े कि एक पूर्व मुख्य मंत्री उनके समारोह में क्यों
और कैसे आए. क्या कोई किसी समारोह में चला जाए तो इसे मंचस्थ का अपराध माना जाना
चाहिए?
वैसे यह भी कि आम तौर
पर हमारे यहां राजनीति और इतर इलाकों के भी नामी-गिरामी लोग ऐसे आयोजनों में केवल
तभी जाते हैं जब उन्हें मंचस्थ होना होता है. एक सामान्य नागरिक के रूप में उनका
कहीं प्रकट हो जाना अकल्पनीय ही होता है. वैसे यह वही हिंदी लेखक समाज है जो किसी घोषित अपराधी के
कार्यक्रमों में नंगे पांव दौड़ा चला जाता है और अपनी ही बिरादरी के किसी लेखक के
प्रति अपनी सारी
कुंठा
उन्मुक्त और आनंद भाव से व्यक्त करता है.
मेरा
मानना है कि विनोद कुमार शुक्ल यह रॉयल्टी मिलना हिंदी समाज के लिए स्वागत योग्य
बात और एक प्रस्थान बिंदु होना चाहिए. इस बात का प्रस्थान बिंदु कि अन्य प्रकाशक
भी ऐसा ही करेंगे. किताबें बिकती हैं, यह
बात असंदिग्ध है. अगर बिकती ही नहीं हैं तो प्रकाशन गृह बंद क्यों नहीं हो जाते? पिछले बरसों में कितने प्रकाशन गृह बंद
हुए हैं?
क्यों नए-नए प्रकाशक
बाज़ार में आ रहे हैं? प्रकाशक को लेखक से
शिकायत रहती है, लेखक प्रकाशक पर
भरोसा नहीं रखता है. क्या यह स्थिति बदल नहीं सकती है? बदलनी नहीं चाहिए? स्वयं विनोद कुमार शुक्ल ने कहा है
कि उनके प्रकाशकों ने कभी उन्हें उनकी किताबों की बिक्री का ठीक विवरण नहीं दिया
और न ठीक से रॉयल्टी दी. प्रकाशक
और लेखक के बीच सब कुछ साफ़-साफ़ क्यों नहीं हो सकता? उसके
बाद न तो लेखक प्रकाशक से कोई अतिरिक्त अपेक्षा करे और न प्रकाशक अपनी बात से पीछे
हटे. हर साल बिकने वाली किताबों का ब्यौरा लेखक को समय पर मिले (कम्प्यूटर के
ज़माने में यह कोई अव्यावहारिक अपेक्षा नहीं है) और तदनुसार समय पर लेखक को रॉयल्टी
मिल जाया करे. लेखक और प्रकाशक के बीच स्वस्थ और पारदर्शी रिश्ते दोनों ही के हित
में हैं.
अगर लेखक को अपने
श्रम का मानदेय मिलेगा तो वह और बेहतर कर सकेगा, और
उसके बेहतर किए का लाभ प्रकाशक के साथ-साथ समाज को भी मिलेगा. लेखक-प्रकाशक
रिश्तों पर खुलकर बात होनी चाहिए. इस मामले में लेखक संगठनों और प्रकाशक संगठनों से
भी यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे अधिक सक्रिय होकर स्वस्थ वातावरण का निर्माण करने
में अपनी भूमिका निबाहेंगे.
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