आज मेरे राजकीय महाविद्यालय, सिरोही में पूर्व छात्र सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है. महाविद्यालय के प्राचार्य डो अजय शर्मा ने इस अवसर पर महाविद्यालय के पूर्व शिक्षकों को भी आमंत्रित किया है. मेरे लिए यह स्वर्णिम अवसर था अपने खूबसूरत अतीत को एक बार फिर से जी लेने का, लेकिन मैं इस अवसर को लपक लेने से वंचित रह गया. डॉ अजय शर्मा ने बहुत आग्रह किया, और अगर वे न भी करते तो मुझे इस आयोजन में होना ही था. लेकिन.... सब कुछ अपने वश में कहां होता है! मैं सिरोही से 400 किलोमीटर दूर, जयपुर में हूं और कल्पना कर रहा हूं कि वहां क्या-क्या हो रहा होगा! इस कॉलेज में और इस कस्बे में मैंने अपनी उम्र के बेशकीमती ढाई दशक गुज़ारे हैं! स्मृतियों का एक पूरा कोठार है मेरे पास. भले ही अब मैं सिरोही में नहीं रहता हूं, सिरोही अब भी मुझ में सांस लेता है! हमेशा लेता रहेगा.
जब भी सिरोही याद आता है, शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ भी साथ-साथ याद आ जाते हैं. उनकी एक बहुत लोकप्रिय ग़ज़ल के मतले की दूसरी पंक्ति (मिसरा-ए-सानी) है: अपनी ख़ुशी न आए न अपनी खुशी चले! मेरे बारे में यह बात सौ फ़ीसदी सही है. 06 अगस्त 1974 को जब चित्तौड़ छोड़कर सिरोही आना पड़ा था तो वह मेरी मज़बूरी थी. अच्छा ख़ासा वहां जमा हुआ था. लेकिन तत्कालीन विधायक (अब स्वर्गीय) प्रो निर्मला सिंह को मुझसे जाने क्या नाराज़गी हुई कि उन्होंने मेरा तबादला वहां से सिरोही करा दिया. मज़े की बात यह कि तबादला कराने के बाद वे मुझे आश्वस्त भी करती रहीं कि मैं आपका ट्रांसफर कैंसल करा दूंगी. निर्मला जी मेरी सहकर्मी थीं और उनसे सघन पारिवारिक आत्मीयता थी. उनके बारे में मैंने विस्तार से अपनी किताब 'गए दिनों का सुराग़ लेकर' में लिखा है. समय और सुविधा हो तो ज़रूर पढ़ें. अच्छा लगेगा. तो अनचाहे सिरोही आया, और आया तो फिर उर्दू के एक और मशहूर शायर को मन में बसा लिया: हज़रते दाग़ जहां बैठ गए, बैठ गए! 1974 में सिरोही आया और 1996 तक तो यहां बना ही रहा, इसके बाद भी कुछ और वक़्त टुकड़ों-टुकड़ों में यहां गुज़ारा. य्हां गुज़ारे वक़्त की चर्चा आगे कर रहा हूं. सिरोही से बाकायदा मेरा रिश्ता ख़त्म हुआ 17 जुलाई, 2000 को और इस बार भी कारण एक राजनेता ही बने. 21 मार्च 2000 को मैं राजकीय महाविद्यालय सिरोही का प्राचार्य बन कर आया और इसके दूसरे ही दिन तत्कालीन स्थानीय विधायक संयम लोढ़ा ने फ़ोन पर मुझे कहा, "अग्रवाल साहब, आप यहां आ तो गए हो, मैं आपको यहां रहने नहीं दूंगा." और उन्होंने नहीं ही रहने दिया. मात्र चार माह बाद 18 जुलाई को मैंने सिरोही को अलविदा कहा. लेकिन इन दोनों प्रसंगों का दूसरा पहलू यह भी है कि ये दोनों अप्रिय प्रसंग अंतत: मेरे लिए वरदान साबित हुए. अनचाहे सिरोही आया, लेकिन यहां लगभग 25 वर्ष रहा और इसने मुझे जितना दिया, उसका वर्णन नामुमकिन है. कुछ बातों की चर्चा आगे करूंगा. सिरोही से अनचाहे धकियाया गया, तो इसकी परिणति इस बात में हुई कि जयपुर पदस्थापित हुआ और अंतत: यहां का निवासी भी बना. कहां तो मेरा सपना यह था कि सिरोही कॉलेज से रिटायर होकर सिरोही में ही बस जाएंगे और कहां यह हुआ कि जयपुर से रिटायर होकर जयपुर में बस गए! लेकिन जयपुर में अपने विभाग के (लगभग) सर्वोच्च पर पर रहना और फिर यहां बस जाना मेरे व्यक्तित्व के विकास के लिए जितना सकारात्मक रहा, उसको बताने के लिए बहुत सारे शब्दों की ज़रूरत पड़ेगी. यहां रहकर साहित्य कला संस्कृति की दुनिया से मेरा रिश्ता और मज़बूत हुआ और अपने बहुत सारे सपने पूरे करने के मौके मिले. तो मुझे इन दोनों राजनेताओं के प्रति कृतज्ञ होना ही चाहिए!
जैसा मैंने कहा, मैं अनचाहे सिरोही आया था. आया क्या, फेंका गया था. यहां का पहला दिन मुझे अब भी याद है. रात तीन बजे सिरोही के बस स्टैण्ड पर उतरना और भौंकते कुत्तों से जैसे-तैसे बचते हुए डाक बंगले पहुंचना. लेकिन कॉलेज में पहुंचने के बाद जैसे बहुत तेज़ी से सब कुछ बदलता गया. हिंदी विभाग के श्री सोहन लाल पटनी (तब वे डॉ नहीं हुए थे) ने अपने स्कूटर, जिसे उन्होंने गरुड़ नाम दे रखा था, पर मुझे शहर का एक चक्कर लगवाया और फिर अपने घर ले जाकर घी में डूबी रोटी खिलाई. तब उनसे जो रिश्ता कायम हुआ वह उनके जीवन पर्यन्त चलता रहा. वे विलक्षण व्यक्ति थे. उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा, और अपरिमित दुलार पाया. कॉलेज में और बहुत ज़बर्दस्त शख्सियतें थी, जैसे प्रो अमरलाल माथुर, प्रो गणपत लाल बोहरा, प्रो एम एल एच शाह, प्रो बीके गौड़ और भी बहुत सारे विद्वान शिक्षक गण. हरेक से अपार स्नेह मिला, और मिला मार्गदर्शन. कॉलेज का ऑफिस - उसके तो कहने ही क्या. श्री मोहम्मद शब्बीर ख़ान, श्री अब्दुल लतीफ - ये तो इंसान के रूप में फरिश्ते थे. काम में एक सौ दस फीसदी दक्ष. पूरे राजस्थान के उच्च शिक्षा जगत में इनकी धाक थी. लाइब्रेरियन मूल चंद सेठ - इनका तो कहना ही क्या! इन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया.
एक से बढ़कर एक प्राचार्य-उपाचार्य यहां रहे. सबको याद करना संभव नहीं होगा, लेकिन प्रो श्याम लाल माथुर, प्रो महेश कुमार भार्गव, प्रो डी सी कृष्णानी, प्रो एचके रावत, डॉ जीसी छाजेड़ हरेक अपनी तरह से अप्रतिम. प्रो एचबी सक्सेना का व्यक्तित्व अलग ही था. उन जैसा रौब दाब वाला प्राचार्य मैंने अपने पूरे सेवा काल में नहीं देखा, हालांकि मैंने कभी वैसा बनना नहीं चाहा. इन सब प्राचार्यों ने मुझे इतना अधिक प्रभावित किया कि जब मुझे प्राचार्य की उसी कुर्सी पर बैठने का मौका मिला तो बैठने से पहले बहुत देर तक सोचता रहा कि जिस कुर्सी पर ऐसे महान लोग बैठ चुके हैं, क्या मैं उस कुर्सी पर बैठने के काबिल भी हूं?
सिरोही में पढ़ाने का बहुत सुख मिला. मैंने अपने अध्यापन को यहां तराशा भी खूब. पुस्तकालय बहुत समृद्ध था, और हमने इसे और अच्छा बनाया. खूब पढ़ा, और कोशिश की कि उसका लाभ विद्यार्थियों तक पहुंचे. विद्यार्थियों से मुझे अपार अपनापन मिला. छोटा कॉलेज था, इसलिए अगर कोई बाकायदा मेरा विद्यार्थी न भी रहा तो उसने गुरु वाला मान दिया. एक से ज़्यादा पीढ़ियां विद्यार्थी के रूप में मुझसे जुड़ीं. अब सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत सारे पूर्व विद्यार्थी मुझसे जुड़े हैं. कॉलेज में खूब गतिविधियां कीं, और कॉलेज से बाहर शहर की गतिविधियों में भी सक्रिय सहभागिता की. बरसों मैंने विभिन्न ज़िला स्तरीय समारोहों का संचालन किया और इस निमित्त ज़िला प्रशासन ने मुझे अनेक बार सम्मानित भी किया.
आज सिरोही कॉलेज में जो आयोजन हो रहा है उसका सबसे बड़ा आकर्षण हैं श्री शैलेश लोढ़ा. शैलेश लोढ़ा ने भारतीय मनोरंजन की दुनिया में जैसी पहचान बनाई है वह हम सबके लिए, विशेष रूप से इस पूरे राजकीय महाविद्यालय, सिरोही परिवार के लिए अत्यधिक गर्व की बात है. शैलेश ने साहित्य और मनोरंजन इन दो दुनिया में समान ख्याति अर्जित की है. जब मैं इस कॉलेज में पढ़ाता था, तभी शैलेश भी यहां के विद्यार्थी थे. शैलेश अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न थे. मुझे याद है कि तब मैं अपने कॉलेज के वार्षिक समारोहों का संचालन किया करता था, और बरस दर बरस मुझे शैलेश की उपलब्धियों की बहुत लम्बी सूची पढ़नी पड़ती थी. वैसे तो वे विज्ञान के विद्यार्थी थे, साहित्य में गहरी रुचि रखने के कारण उनका मुझसे भी नियमित सम्पर्क था. बल्कि इस कॉलेज के वे छात्र बने उससे पहले से, जब वे बालकवि शैलेश के रूप में जाने जाते थे, हमारा पारस्परिक सम्पर्क रहा. सम्पर्क के और भी कारण रहे, मसलन यह कि उनके पिता जी, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, मेरे प्रिय मित्र थे. शैलेश की दो बहनें एमए हिंदी की मेरी प्रिय छात्राएं थीं. शैलेश में जो सबसे बड़ा गुण मैं पाता हूं वह है उनकी अध्ययन वृत्ति. अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे नया से नया पढ़ते हैं और उन्हें उस पर बात करना भी अच्छा लगता है. मैं आज सिरोही में नहीं हूं इसमें मेरा यह मलाल भी शामिल है कि शैलेश से मिलने का एक अवसर मैं खो रहा हूं. उनके लिए मेरी शुभ कामनाएं!
सिरोही कॉलेज के सारे स्टाफ में ग़ज़ब का भाईचारा था. किसी भी एक का सुख या दुख पूरे स्टाफ़ का सुख दुख होता था. होली दिवाली हरेक हरेक के घर जाता था. कोई ईद ऐसी नहीं बीती जब हम लोग शब्बीर साहब और लतीफ़ साहब के यहां न गए हों, और कोई होली दिवाली ऐसी नहीं बीती जब वे हमारे घर न आए हों. तब जो रिश्ते बने वे अब तक बरक़रार हैं. लम्बे समय तक यहां कम ही शिक्षक रहे, अत: सबमें भाई चारा रहा. बाद में जब उनकी संख्या बढ़ी तब भी यही आत्मीयता बनी रही. यह बहुत स्वाभाविक है कि कुछ लोगों से मेरी आत्मीयता ज़्यादा रही और वे मेरे सारे सुख दुखों के साथी रहे, अब भी हैं. व्यक्तिगत चर्चा यहां नहीं करूंगा.
सोहन लाल पटनी के कारण, और इस कारण भी कि उस काल खण्ड में राजस्थान साहित्य अकादमी बहुत सक्रिय थी, सिरोही में खूब सारी साहित्यिक गतिविधियां आयोजित हुईं और इस कारण हम राजस्थान के तो करीब-करीब सारे भी ख्यात साहित्यकारों को अपने कॉलेज में भी ला सके. हिंदी के बड़े कथाकार स्वयं प्रकाश उन दिनों सुमेरपुर में पद स्थापित थे, और मेरे आत्मीय थे. वे मेरे कॉलेज में न जाने कितनी बार आए होंगे. विद्यार्थी भी उनसे घुल मिल गए थे और अगर वे महीना भर कॉलेज में नहीं आते तो विद्यार्थी इसरार करते कि सर, स्वयं प्रकाश जी को बुलाइये ना! और वे आ जाते. स्वयं प्रकाश ने मेरे ही कॉलेज से स्वयं पाठी विद्यार्थी के रूप में हिंदी में एम ए किया, और फिर इसी कॉलेज की लाइब्रेरी का लाभ उठाते हुए मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. भी की. मेरे कॉलेज से अपने लगाव का और यहां के अनुभवों का बहुत रोचक वर्णन उन्होंने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक 'धूप में नंगे पांव' में किया है. अद्भुत किताब है यह.
जब मैं सिरोही आया तब परिवार में हम तीन प्राणी थे- पत्नी बेटा और मैं. यहां मेरा परिवार बड़ा हुआ. बेटी का जन्म यहीं हुआ. यहीं से बेटे ने पीईटी में सफलता प्राप्त कर अपनी जीवन राह चुनी. जब मैं उपाचार्य था, तब यहीं से उसका विवाह हुआ. सिरोही में जन्मी मेरी बेटी ने राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की सैकण्डरी परीक्षा में मेरिट में स्थान पाया और फिर उसने भी अपने भाई वाली ही राह चुनी. बाद में बेटी नौकरी करने अमरीका चली गई और बेटा ऑस्ट्रेलिया. बेटी के जीवन से सिरोही इस तरह भी जुड़ा कि सिरोही का निकटवर्ती गांव वराड़ा उसका ससुराल बना. यहां रहते हुए ही मेरी मां और फिर मौसी ने प्राण त्यागे.
हम लोगों के जीवन में सिरोही ऐसा घुला मिला है कि हमारे बच्चे कहते हैं कि जब भी उन्हं घर का कोई सपना आता है, सपने में वही शांति नगर का किराये वाला घर आता है!
सिरोही कथा अनंत है. अपनी दो किताबों - ‘समाज का आज’ और ‘गए दिनों का सुराग लेकर’ में मैंने सिरोही के बहुत सारे प्रसंग लिखे हैं. लेकिन जितने लिखे हैं उससे अधिक अभी लिखे जाने हैं!
जीवन की इस संध्या वेला में सिरोही में बिताए दिन बहुत याद आते हैं! वे दिन लौट कर नहीं आएंगे, लेकिन उनकी यादें मन को हमेशा प्रफुल्लित करती रहेंगी.
मेरे मन में डॉ अजय शर्मा और उनकी पूरी टीम के प्रति असीम कृतज्ञता का भाव है जिनंने इस आयोजन को कामयाब बनाने के लिए हर मुमकिन कोशिश की है. मेरा सुझाव है कि इसे महाविद्यालय कैलेण्डर का स्थायी हिस्सा बनाया जाना चाहिए. जो मित्र सिरोही कॉलेज के इस आयोजन में भाग ले पा रहे हैं, उन सबको मेरा सप्रीत अभिवादन और हार्दिक शुभ कामनाएं!
मान लें कि मैं भी इस समय आपके साथ हूं.

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