28 जनवरी 2008 को जयपुर में विरासत फाउण्डेशन द्वारा आयोजित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल सम्पन्न हुआ. आखिरी दिन का एक आयोजन दो प्रसिद्ध राजस्थानी लेखकों श्री लाल मोहता और चन्द्रप्रकाश देवल के बीच संवाद भी था.
इसी संवाद को लेकर आज(29 जनवरी) के दैनिक भास्कर में पहले पन्ने पर एक समाचार छपा, जिसका शीर्षक था " राजस्थानी साहित्यकारों को मंच से उतारा". इसी समाचार के बगल में कल्पेश याग़्निक का एक विशेष सम्पादकीय भी था,"मर्यादा तोडता दम्भ". अखबार के खबर के अनुसार हुआ यह कि पिछले सत्र के देर से शुरू होने के कारण राजस्थानी का यह संवाद सत्र बीस मिनिट देर से शुरू हुआ, और जब राजस्थानी लेखकों ने चाहा कि उनका सत्र निर्धारित समय से बीस मिनिट देर तक चले तो आयोजन से जुडी अंग्रेज़ी लेखिका नमिता गोखले ने अशिष्टतापूर्वक इन दोनों साहित्यकारों को जबरन मंच से उतार दिया.
विशेष सम्पादकीय भी इसी मुद्दे पर लिखा गया.
कल रात ही दैनिक भास्कर से किसी पत्रकार ने मुझे भी इस बाबत फोन किया था. उनका नाम मैं ठीक से सुन नहीं पाया. उन्होंने इस घटना पर मेरी टिप्पणी चाही थी. मैंने उनसे कहा कि ऐसी कोई खास बात तो आयोजन के दौरान हुई नहीं. मैं उस पूरे सत्र में मौज़ूद था. उससे पहले भी और बाद में भी. हां, इतना ज़रूर हुआ था कि नमिता गोखले ने एकाधिक बार इन लेखकों से अपनी बात पूरी करने का अनुरोध किया था क्योंकि अगला सत्र शुरू होना था. आखिरी बार वे थोडे गुस्से से, और बिना एक भी शब्द बोले, उस टैण्ट से बाहर निकल गई थी. इसके भी कोई पांच सात मिनिट तक इन लेखकों ने अपनी बात पूरी की, और बाकायदा चर्चा का समापन कर नीचे उतरे. इसके बाद अगला सत्र शुरू हुआ जिसमें चित्रा मुद्गल मुख्य भूमिका में थी. चन्द्र प्रकाश देवल और श्रीलाल मोहता भी उस सत्र में काफी देर तक तो थे. मैंने सम्वाददाता से कहा कि नमिता गोखले ने बोला तो एक भी शब्द नहीं. अलबत्ता वे गुस्से से ज़रूर बाहर गईं. लेकिन यह ऐसी कोई खास बात नहीं थी. वे अपनी आयोजकीय भूमिका का निर्वाह कर रही थीं, और इसे सहजता से लिया जाना चाहिए. इसके बाद सम्वाददाता जे ने पूरे आयोजन में अंग्रेज़ी के वर्चस्व पर मुझसे थोडी चर्चा की. मेरा भी यही खयाल था कि आयोजन में अंग्रेज़ी को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व दिया गया.
लेकिन आज सुबह अखबार में वह खबर पढकर मेरा भी चौंकना स्वाभाविक था. जो हुआ ही नहीं, उसे न केवल खबर बनाया गया, उस को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हुए एक विशेष सम्पादकीय भी लिखा गया. खबर के साथ ही मुझ सहित कुछेक लूगों के बयान भी दिये गये. मज़े की बात यह कि जिनके बयान दिये गए उनमें से दो लेखक मित्र तो आयोजन में उपस्थित ही नहीं थे. माना जा सकता है कि उन्होंने सम्वाददाता के वर्णन के आधार पर अपनी टिप्पणियां दी होंगी.
मेरा आशय यहां नमिता गोखले के पक्ष में कोई टिप्पणी करने का नहीं है. आज के अखबार में उनका जो बयान छपा है, अगर वाकई उन्होंने वैसा कहा है तो वह गलत है. लेकिन, इससे पहले तो यह बात कि अखबार जो लिख रहा है वह कितना सही है!
जैसा मैंने कहा, ऐसी कोई घटना घटित ही नहीं हुई. इस बात की पुष्टि मैंने उन कई मित्रों से भी की जो उस सत्र में मेरे साथ मौज़ूद थे.
हम आयोजन में अंग्रेज़ी के महत्व स्थापन पर आपत्ति करें, यह तो ठीक लेकिन बिना बात का बतंगड खडा करें, यह तो उचित नहीं.
3 comments:
पत्रकारिता से
खबरकारिता की
ओर बढते कदम
कदम दर कदम
पत्रकारिता का
निकलता दम
पत्र बेदम
खबर में दम
पढते हम
लिखते भी हम
और
फूलता दम
दम का
फूटता बम
बम भोले बम.
यदि ये विवाद सिर्फ पत्रकारिता का कमाल होता तो नमिता जी कभी सरेआम माफी नहीं मांगती ना ही ये बात इतना तूल पकडती।
अनुराधा जी, मैं उम्मीद करता हूं कि आपने नमिता जी की तथाकथित क्षमा याचना को शब्दश: पढ होगा. उसमें उन्होंने अपने कृत्य को उचित ठहराया है और अंत में 'यदि' के साथ क्षमा याचना की है, जिसका कोई अर्थ नहीं हुआ करता. यह भी देखिये कि जिन लेखकों को मंच से उतारने की बात की गई, उनमें से कोई कुछ नहीं बोला, और उन में से किसी का कोई बयान आया जो उस आयोजन में उपस्थित थे. सारे बयान उन लोगों के हैं जिन्होंने मात्र एक अखबार में यह सब पढा है. यह भी महत्वपूर्ण है कि जयपुर में ही अन्य अखबारों में इस पर एक भी पंक्ति नहीं है. अगर इतनी बडी घटना हुई थी तो शेष अखबारों के सम्वाददाता क्या सो रहे थे? या उन्हें लेखकों के अपमान से सहमति
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