ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना (जिसका जर्मन
उच्चारण वीन है) जितनी अपनी खूबसूरती के लिए जानी जाती है उतनी ही अपनी सांगीतिक
विरासत के लिए भी जानी जाती है. लुडविग वान बीथोवन, वोल्फ़गांक आमडेयुस मोत्सार्ट और योहानेस
ब्राम्स जैसे शिरोमणि संगीतकारों
की यह धरती इधर एक विलक्षण
ऑरकेस्ट्रा की वजह से चर्चा में है. अपनी विलक्षणता की वजह से यह ऑरकेस्ट्रा न
केवल गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में प्रवेश पा चुका है, इसके अनुकरण भी होने लगे हैं.
निश्चय ही आप यह पढ़कर चौंक उठेंगे कि इस ऑरकेस्ट्रा के वाद्य यंत्र धातु, लकड़ी या चमड़े की बजाय ताज़ा फलों और सब्ज़ियों से बनाए
जाते हैं और इसलिए इसका नाम ही है वेजिटेबल
ऑरकेस्ट्रा. पिछले इक्कीस बरसों से दस वाद्य यंत्रों वाला यह ऑरकेस्ट्रा दुनिया
भर के संगीत रसिकों को अपना सुरीला और ताज़ा सब्ज़ियों की मोहक गंध से भरा संगीत
सुना कर चमत्कृत कर रहा है. अब तक यह ऑरकेस्ट्रा करीब तीन सौ शो कर चुका है और
इसका हर शो हाउस फुल रहा है. ऑरकेस्ट्रा विख्यात रॉयल एलबर्ट हॉल लंदन और शांघई
आर्ट्स सेण्टर में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुका है. हाल में इसने यूक्रेन के महल में पॉल मैकार्टनी के
साठवें जन्म दिन पर भी अपनी स्वर लहरियां बिखेरीं. न सिर्फ़ इतना, इस ऑरकेस्ट्रा ने हाल ही में
अपना चौथा एलबम भी ज़ारी किया है जिसे खूब सराहा जा रहा है.
वेजिटेबल ऑरकेस्ट्रा के संस्थापक सदस्य माथियास मायन्हार्टर बताते हैं कि
इसकी शुरुआत मज़ाक-मज़ाक में हो गई. वे बताते हैं कि इस ऑरकेस्ट्रा के तीन अन्य
सदस्यों के साथ वे वियना विश्वविद्यालय में आयोजित एक परफॉर्मेंस आर्ट फेस्टिवल
में सहभागिता कर रहे थे. गपशप के दौरान एक सवाल यह उभरा कि किस चीज़ पर संगीत रचना
सबसे ज़्यादा मुश्क़िल हो सकता है. यह एक संयोग ही था कि वे लोग उस समह सब्ज़ियों से
बना सूप पी रहे थे. बात में से बात निकलती गई और इस तरह जन्म हुआ इस वेजिटेबल
ऑरकेस्ट्रा का. इसका नाम वेजिटेबल ऑरकेस्ट्रा है तो यह आपने अनुमान लगा ही लिया
होगा कि इसके तमाम वाद्य यंत्र सब्ज़ियों से निर्मित होते हैं. और यह कहना अनावश्यक है कि धातु या लकड़ी की
तुलना में सब्ज़ियों की अपनी बहुत अधिक सीमाएं हैं. पहली बात तो यह कि सब्ज़ियों से
बने वाद्ययंत्रों की उम्र बहुत कम होती है. जैसे ही सब्ज़ी बासी होकर मुरझाने लगती
है उसकी संगीत निर्माण की क्षमता भी ख़त्म होने लगती है. यही कारण है कि हर
प्रस्तुति से पहले सुबह-सुबह इस ऑरकेस्ट्रा के तमाम सदस्य स्थानीय सब्ज़ी बाज़ार
जाते हैं और बड़ी बारीकी से पड़ताल कर अपनी पसन्द व काम की सब्ज़ियां चुनते हैं. कद्दू, प्याज़, कुम्हड़े, बैंगन, खीरा, ककड़ी और भी न जाने क्या-क्या वे चुनते और खरीदते हैं. उनकी
दिक्कत इस बात से और ज़्यादा बढ़ जाती है कि हर सब्ज़ी हर जगह नहीं मिलती. इतना ही
नहीं एक जगह जो सब्ज़ी जैसी मिलती है, यह भी ज़रूरी नहीं कि दूसरी जगह भी वह सब्ज़ी वैसी ही मिले. और इन
विभिन्नताओं की वजह से इन्हें बार-बार अपने वाद्य यंत्रों को लेकर प्रयोग करने
पड़ते हैं. अब तक ये लोग कोई डेढ़ सौ वाद्य यंत्र इन किसम-किसम की सब्ज़ियों से बना
चुके हैं. वाद्य यंत्रों की और उनसे उत्पन्न संगीत की निरंतर बदलती स्वर लहरियों
के कारण ये लोग किसी रूढ़ किस्म के और लिपि बद्ध
संगीत को प्रस्तुत करने की बजाय हर बार नया कुछ रचते और प्रस्तुत करते हैं.
ताज़ा सब्ज़ियां खरीदने के बाद ये उन्हें लेकर वहां आते हैं जहां शाम को इन्हें अपनी
प्रस्तुति देनी होती है. वहां ये लाई गई सब्ज़ियों को विभिन्न चाकुओं और अन्य
उपकरणों की मदद से छील-काट कर या खोखला कर वाद्य यंत्रों में बदलते हैं, उन्हें इस्तेमाल कर रिहर्सल
जैसा कुछ करते हैं और फिर बड़ी सावधानी से उन सब्ज़ी निर्मित अनूठे वाद्य यंत्रों को
गीले कपड़ों में लपेट कर सुरक्षित रखते हैं. इसके बाद शाम को ये उन्हीं वाद्य
यंत्रों से सुरों का जादू जगाते हैं. लोग बड़ी उत्सुकता से इन्हें देखते-सुनने आते हैं. आने की पहली वजह तो इस ऑरकेस्ट्रा का अनूठापन
ही होती है, लेकिन जैसे जैसे
शाम आगे बढ़ती है, इन कलाकारों की साधना अपना जादू जगाने लगती है, लोग इनके सुरों के सम्मोहन में कैद हो जाते हैं.
लेकिन जैसे-जैसे सुरों का यह कारवां आगे बढ़ता जाता है वैसे वैसे सब्ज़ियों से बने
वे वाद्य यंत्र अपनी ताज़गी खोने लगते हैं. और तब एक-एक करके ये कलाकार अपने इन ‘वाद्य यंत्रों’ को श्रोताओं की तरफ उछालते हुए
अपने कंसर्ट का रोचक समापन करने लगते हैं. कंसर्ट का यह आखिरी चरण श्रोताओं को
दिलचस्प भी लगता है और कारुणिक भी. बहुत
सारे भावुक श्रोता तो कलाकारों से मांग-मांग कर इन वाद्य यंत्रों को बतौर स्मृति
चिह्न अपने साथ ले जाते हैं. कभी-कभार
ऑरकेस्ट्रा के ये सदस्य अपने वाद्य यंत्रों को श्रोताओं को उपहार में देने
की बजाय खुद ही उनका उपभोग कर लेते हैं – सूप बनाकर.
है ना रोचक बात!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 30 जुलाई, 2019 को किंचित परिवर्तित शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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