Tuesday, July 23, 2019

ईमानदारी हमारी कल्पना से कहीं ज़्यादा


वर्ष 2013 से 2016 के बीच चालीस देशों के तीन सौं पैंतीस शहरों में एक ख़ास शोध परीक्षण किया गया. हर देश में पांच से आठ बड़े शहर इस परीक्षण के लिए चुने गए थे. शोध कर्ताओं ने अलग-अलग जगहों पर कुल सत्रह हज़ार वॉलेट ग़लतीसे गिरा दिये. इनमें से कुछ वॉलेट्स में लगभग साढ़े तेरह अमरीकी डॉलर की समतुल्य स्थानीय मुद्रा थी. कुछ वॉलेट्स में कोई धन राशि नहीं थी लेकिन उनके स्वामीगण के नाम पते वाले बिज़नेस कार्ड्स या अन्य कुछ दस्तावेज़ थे.

भारत में भी आठ शहरों में यह शोध परीक्षण किया गया था. यहां इसका स्वरूप यह था कि अलग-अलग शोधकर्ताओं ने यह प्रदर्शित किया कि उन्हें बैंक, थिएटर, होटल, पुलिस स्टेशन, डाकघर या अदालत जैसे सार्वजनिक भवनों में कोई चार सौ वॉलेट्स पड़े मिले हैं. इन शोधकर्ताओं ने सम्बद्ध भवनों के स्वागतकर्ताओं या सुरक्षा गार्ड्स को ये वॉलेट्स सौंप दिये. इन वॉलेट्स में से कुछ में हरेक में दो सौ तीस  रुपये की करेंसी थी, तो कुछ में कोई धन राशि नहीं थी. लेकिन इन सभी वॉलेट्स में एक जैसे तीन विज़िटिंग कार्ड्स थे जिन पर सम्बद्ध व्यक्ति का नाम और उसका ईमेल  पता छपा हुआ था. इसके अलावा हर वॉलेट में एक सूची थी जिस पर खरीदी जाने वाली कुछ किराना सामग्री लिखी हुई थी और एक चाबी थी. वॉलेट्स को स्वागतकर्ताओं या सुरक्षा गार्ड्स को सौंप देने के बाद शोध परीक्षण टीम के कुछ सदस्यों ने उन वॉलेट्स के स्वामियों की भूमिका निबाहते हुए यह परखा कि कितने लोग उन वॉलेट्स को लौटाने का प्रयास करते हैं.

यह सारा शोध परीक्षण इस बात की पड़ताल के लिए था कि दुनिया में ईमानदारी किस सीमा तक मौज़ूद है. सामान्यत: तो यही माना जाता है कि लोग थोड़े से फायदे के लिए अपना ईमान धर्म सब भूल जाते हैं. लेकिन इस प्रयोग के जो परिणाम साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं वे खासे चौंकाने वाले हैं. इन परिणामों से पता यह चलता है कि दुनिया में ईमानदारी हमारी कल्पना से कहीं ज़्यादा मात्रा में मौज़ूद है. शोधकर्ताओं का निष्कर्ष यह था कि “जैसे जैसे बेईमानी की वजह से बड़े फायदे नज़र आने लगते हैं, लोगों में ऐसा करने की आकांक्षा तीव्र होती जाती है, लेकिन इसी के साथ यह बात भी है कि लोगों में खुद को चोर के रूप में देखने का मनोवैज्ञानिक भय भी सर उठाने लगता है और बहुत बार यही भय उनकी बेईमानी करने की इच्छा पर भारी पड़ जाता है.”

अब ज़रा इस शोध के परिणामों पर भी एक नज़र डाल लेते हैं. जिन चालीस देशों में यह शोध परीक्षण किया गया उनमें से अड़तीस देशों के लोगों ने उन वॉलेट्स को लौटाने में विशेष रुचि दिखाई जिनमें पैसे थे. भारत में इस प्रयोग के तहत अहमदाबाद ,बेंगलुरु, कोयम्बटूर, हैदराबाद, जयपुर, कोलकाता, मुम्बई और दिल्ली इन आठ शहरों में तीन सौ चौदह पुरुषों और छियासी स्त्रियों ने ये वॉलेट्स विभिन्न सार्वजनिक इमारतों में स्वागतकर्ताओं या सुरक्षा कर्मियों को दिये. पाया गया कि उन लोगों ने पैसों वाले वॉलेट्स में से तियालीस प्रतिशत वॉलेट्स उनके स्वामियों को लौटा दिए, जबकि जिनमें कोई धन राशि नहीं थी उनमें से मात्र बाइस प्रतिशत वॉलेट्स ही लौटाए गए. पैसों वाले वॉलेट्स लौटाने के मामले में बेंगलुरु और हैदराबाद क्रमश: छियासठ और अट्ठाईस प्रतिशत के साथ सबसे ऊपर और सबसे नीचे रहे. बिना पैसों वाले वॉलेट्स लौटाने के मामले में कोयम्बटूर अट्ठावन  प्रतिशत के साथ अव्वल रहा. इस मामले में दिल्ली मात्र बारह प्रतिशत के साथ सबसे फिसड्डी रहा. और हां, वॉलेट्स लौटाने के मामले में स्त्रियां पुरुषों से बहुत आगे रहीं. भारत में यह प्रयोग करने वालों को कुछ रोचक अनुभव भी हुए. एक सार्वजनिक भवन के सुरक्षा प्रभारी ने यह शोध करने वाले से ही भवन में प्रवेश करने देने के लिए रिश्वत मांग ली. उस प्रभारी ने जमा कराया हुआ वॉलेट लौटाने का भी कोई प्रयास नहीं किया.

इसी प्रयोग को एक और प्रयोग से भी जोड़ कर देखा जा सकता है जिसमें एक विख्यात अमरीकी विश्वविद्यालय की डॉरमिट्री में रखे छह रेफ्रिजिरेटरों में कोका कोला के कुछ कैन रख दिये गए और कुछ रेफ्रिजिरेटरों में पेपर प्लेट्स में एक एक डॉलर के नोट रख दिये गए. बहत्तर घण्टों के बाद पाया गया कि कोका कोला की सारी कैन तो इस्तेमाल कर ली गईं लेकिन किसी ने एक भी नोट नहीं उठाया. इन प्रयोगों से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि  लोग पैसों को लेकर अधिक ईमानदार होते हैं. वैसे, यह भी सोचा जा सकता है कि जिन लोगों ने बग़ैर पैसों वाले वॉलेट्स को लौटाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई हो सकता है वे व्यस्त रहे हों, या भूल ही गए हों. फिर भी, कुल मिलाकर यह तो सही है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं है, जितनी हम सोचते हैं!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 23 जुलाई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

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