Tuesday, May 14, 2019

एक अमरीकी की नज़र में भारतीय शिक्षा व्यवस्था

हाल में एक अमरीकी महिला लीसल श्वाबे एक शोध परियोजना के सिलसिले में भारत आईं और क्योंकि उन्हें यहां लम्बे समय तक रहना था, वे अपनी सात वर्षीया बेटी को भी साथ ले आईं. अमरीका में उनकी बेटी ब्रुकलिन के एक सरकारी स्कूल में पढ़ रही थी. यहां कोलकाता में उन्होंने उसे एक अंग्रेज़ी माध्यम के ग़ैर सरकारी स्कूल में प्रवेश  दिलवाया. अपने एक लेख में लीसल ने अमरीकी और भारतीय स्कूलों के अंतर को स्पष्ट करने के बाद जिस बात पर संतोष व्यक्त किया है, उस पर आम तौर पर हमारी नज़र नहीं जाती है. 

लीसल ने अपनी बात बेटी के लिए स्कूल द्वारा तै किये गए जूते खरीदने के अनुभव से शुरु की है. अब तक उनकी बेटी अपने स्कूल में भी फैशनेबल जूते पहन कर जाती थी लेकिन यहां उसे बड़ी नीरस किस्म के जूते खरीदने पड़े, क्योंकि स्कूल ने वे ही निर्धारित कर रखे थे. और यहीं उन्हें महसूस होने लगता  है कि अमरीका में उपभोक्तावाद लोगों को विकल्प देता है जबकि भारत में विकल्पों का अभाव है. विकल्पों के अभाव की यह बात मां-बेटी को बाद में भी बार-बार महसूस होती है. अमरीका में उसे स्कूल सोमवार को जो होमवर्क देता था उसे शुक्रवार तक कभी भी कर लेने की छूट थी. वहां वर्तनी पर अधिक ज़ोर नहीं दिया जाता था यानि शब्दों को मनचाहे तरीके से लिखे  जाने की छूट थी. साल में कुछ दफा थोड़ा  कुछ लिख कर बताना होता था लेकिन क्या और कैसे लिखना है यह विद्यार्थी को ही तै करना होता था. कला की कक्षा में शिक्षक प्रयोगशीलता को प्रोत्साहित करते थे और अभिभावक भी मौलिकता की सराहना करते थे. कक्षाओं में बच्चों को इधर उधर घूमने की और मनचाहे सवाल पूछने की पूरी स्वतन्त्रता  थी.  

लेकिन उसी बच्ची को जब कोलकाता में कक्षा दूसरी डी में भर्ती करवाया गया तो इन लोगों को काफी कुछ बदला हुआ लगा. बच्चों के पास बहुत ही कम विकल्प थे. कक्षाओं में उन्हें आपस में बात करने की छूट नहीं थी. उन्हें हर विषय के लिए अलग-अलग नोटबुक रखनी होती थी और नोटबुकों के लिए भी यूनीफॉर्म जैसी व्यवस्था थी. इन नोटबुकों में सारे बच्चे एक जैसे जवाब लिखा करते थे. सप्ताह में दो बार आर्ट क्लास भी होती थी, लेकिन सारे बच्चे लगभग एक जैसी चीज़ों का निर्माण करते थे. कुछ समय बाद इसी बच्ची ने भारत और अमरीका के स्कूलों के फर्क़ को इन शब्दों में बयान किया: “भारत में हमें अपने दोस्तों के साथ खेलने  के लिए कोई समय नहीं मिलता है जबकि अमरीका में अपने स्कूल में हम सिर्फ अपने दोस्तों के साथ खेलते ही थे.” 
इन बच्ची को यहां गणित समझने में बहुत दिक्कत महसूस हो रही थी. उसे लम्बे लम्बे हिंदी और फ्रेंच शब्दों की वर्तनी भी याद करना बहुत कठिन लग रहा था. कभी वह घर पर इस बात से घबराती कि कल स्कूल में ग़लत नोटबुक ले जाने पर उसे कितनी डांट  सहनी पड़ेगी और एक बार तो किसी शब्द की मुश्क़िल वर्तनी को याद न कर पाने से आतंकित होकर वह अपना सूटकेस पैक कर अमरीका लौटने के लिए ही उतारू हो गई थी. लेकिन सब कुछ ऐसा ही नहीं था. वो बच्ची आहिस्ता आहिस्ता अपने स्कूल को पसंद भी करने लगी थी. उसने खूब दोस्त बना लिये थे और स्कूल की छुट्टी के वक़्त दोस्तों के साथ उछलते कूदते हुए उसका बाहर आना या शनिवार की शाम स्कूल लाइब्रेरी से अपने दोस्तों के साथ प्रसन्न मुद्रा में बाहर निकलना उसकी मां को भी आश्वस्त करने लगा था. पढ़ाई का बोझ था और विकल्प भी बहुत कम थे, लेकिन इस सबके बीच भी उसकी मां बहुत सारी अच्छाइयां देख पा रही थी. 

उसकी मां को लगता है कि भारत के स्कूलों में विकल्पों का न होना भी एक अच्छी  बात है. यहां विकल्प भले ही न हों, ज़िम्मेदारियां हैं और यह सराहनीय है. उसकी मां इस बात को समझती हैं कि गणित जैसे विषय के भारी भरकम पाठ्यक्रम ने उनकी बेटी को वह सब सिखाया है जो वह अमरीका में कभी नहीं सीख पाती. यहां आकर ही उसने सही वर्तनी का महत्व समझा है. यहां आकर उसे ज़्यादा पढ़ना पड़ रहा है और उसकी एकाग्रता बढ़ी  है. अब तक वो खुद को जितना कुछ कर पाने में समर्थ समझती थी उससे कहीं ज़्यादा कर पा रही है. मां ने यह बात भी नोट की है कि भारत में स्कूल व्यवस्था  बच्चों में अपने कर्म के प्रति उत्तरदायित्व का भाव बढ़ाती है. लीसल यह तो मानती हैं कि भारत में बच्चों पर पढ़ाई का बहुत ज़्यादा बोझ व दबाव है और इसे आम तौर पर नुकसानदेह  समझा जाता है, लेकिन इसके बावज़ूद उन्हें यह उम्मीद है कि जब वे अपनी बेटी के साथ अमरीका लौटेंगी तो उसमें अपनी उम्र के अन्य अमरीकी बच्चों से अधिक आत्मविश्वास होगा. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 14 मई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

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