

कितनी यादें, कितनी छवियां! कितने उपकार,
कितनी मीठी चुटकियां! और हों भी तो क्यों नहीं! सम्पर्क और अपनापे की उम्र भी तो
बहुत छोटी नहीं है. ठीक से तो याद नहीं लेकिन शायद 1965 के आसपास की बात होगी जब
अपने गुरुवर प्रो. नवलकिशोर जी से यह नाम सुना था – होतीलाल भारद्वाज! उनके मित्र.
और वो ज़माना ऐसा था जब गुरु का मित्र भी गुरु से कम नहीं हुआ करता था. तभी शायद
पहली मुलाक़ात भी हुई होगी, जिसकी कोई छवि मन में नहीं है. और फिर कुछ बरस बाद मैं
भी उसी जमात में शामिल हो गया. गुरुओं की जमात में. और यह तो मुमकिन था ही नहीं कि
आप राजस्थान की कॉलेज शिक्षा सेवा में हों और भारद्वाज जी से आपका सम्पर्क न हो!
शिक्षकों के संगठन में और विश्वविद्यालय में – हर जगह तो वे सक्रिय थे. कभी कहीं
के और कभी कहीं के चुनाव चलते ही रहते थे और भले ही मुझ जैसों को उनकी ज़रूरत न
पड़ती हो, उनके लिए तो मुझ जैसों की भी उपयोगिता थी. मिलना-जुलना या पत्र सम्पर्क
होता रहा. कई बार मैंने अपने मतलब के लिए भी उनसे सम्पर्क किया. मतलब वाली बात को
भी स्पष्ट कर दूं. वे विश्वविद्यालय में परीक्षा कार्य के दाता की हैसियत रखते थे (तब
परीक्षा कार्य हम प्राध्यापकों की
अतिरिक्त आय का एक महत्वपूर्ण साधन हुआ करता था और मुझ जैसे सामान्य आर्थिक
पृष्ठभूमि वालों के लिए उसकी बहुत अधिक महत्ता होती थी) और हम जैसे लोग उनकी नज़रे
इनायत के तलबग़ार हुआ करते थे. इस तरह रिश्ते आहिस्ता आहिस्ता पुख़्ता हो रहे थे.
तभी 1974 में एक प्रसंग ऐसा बना कि हम लोग
अनायास नज़दीक हो गए. हालांकि इसमें न उनका कोई योगदान था न मेरा. हुआ यह कि
तबादलों की एक ऐसी लम्बी श्रंखला बनी जिसमें हम कई मित्र एक दूसरे से जुड़ गए. होतीलाल
जी तब तक हेतु भारद्वाज हो चुके थे. उनका तबादला नीम का थाना से चित्तौड़ हुआ, मेरा
चित्तौड़ से सिरोही और जीवन सिंह का सिरोही से (शायद) दौसा. हम तीनों ही अपनी-अपनी
तरह से राजनीति पीड़ित थे. हेतु जी चित्तौड़ आए और मुझे वहां से रिलीव होकर सिरोही
जाना पड़ा. तब शायद पहली दफा हेतु जी से खुलकर एक सहकर्मी के रूप में बात हुई. इससे
पहले तो वे मेरे लिए गुरु स्थानीय ही थे. उन्होंने अपने बिन्दास अन्दाज़ में मुझसे
कहा कि मैं यह बात मन से निकाल दूं कि उनके कारण मेरा ट्रांसफर हुआ है. बहरहाल. हम
तीनों ही विस्थापित हुए. यह बात अलग है कि हेतु जी कुछ समय बाद नीम का थाना लौट
गए, मैं सिरोही का हो गया (वहां पूरे 25 बरस मैंने निकाले) और जीवन सिंह बाद में
अलवर चले गए और वहीं के हो गए.
इसके बाद दो-तीन कारणों से उनसे मिलने- जुलने के अधिक मौके आए. अपनी नौकरी में पाँव जमने के बाद मैं भी साहित्य
में थोड़े हाथ पाँव चलाने लगा था इसलिए एक बड़े लेखक से मिलने-जुलने और संवाद के
अधिक मौके आने लगे. वे बरस राजस्थान साहित्य अकादमी की सर्वाधिक
सक्रियता के भी वर्ष थे, इसलिए हेतु जी से मिलने के मौके बढ़े और सिरोही में हम
लोगों की जो टीम थी उसके कारण और वहां के हमारे अग्रज (अब स्वर्गीय) सोहन लाल पटनी
के कारण राजस्थान की साहित्यिक गतिविधियों का एक छोटा-मोटा केन्द्र सिरोही भी बन
गया था इसलिए भी हेतु जी से मिलना-जुलना बढ़ता गया. मेरे गुरु डॉ प्रकाश आतुर
राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे. वे मेरे लिए गुरु से बहुत अधिक, ‘पितु मातु
सहायक स्वामी सखा’ थे, और हेतु जी उनके परम विश्वस्त और आत्मीय थे – इस कारण भी
हमारी निकटता बढ़ी. तब का एक मज़ेदार प्रसंग याद आता है. डॉ आतुर अकादमी के किसी आयोजन के निमित्त सिरोही आए हुए थे.
उनका खान-पान का शौक लीजेण्डरी है. एक शाम उनके आतिथ्य का सौभाग्य मुझे मिला. और
मैंने हेतु जी को भी अपने यहां आमंत्रित कर लिया. गुरु जी की प्रतिष्ठा और तलब के
अनुरूप व्यवस्था मैंने कर रखी थी, और पण्डित हेतु भारद्वाज के लिए कोका कोला की एक
बोतल भी ला रखी थी. जब टेबल पर बैठे तो गुरुजी ने पूछा, यह कोका कोला किसके लिए?
और मैंने जैसे ही हेतु जी की तरफ संकेत किया, वे बेसाख़्ता बोल उठे “अरे! शेर भी कभी घास खाता है!” तुरंत एक ठहाका
लगा, दूरियां नज़दीकियां बन गई, और फिर यह इबारत सदा-सदा के लिए हमारे स्मृति कोष
का हिस्सा बन गई. उसी दौर में जब मेरी पहली किताब छपने का मौका आया तो मैंने उनसे
सम्पर्क किया और आज इस बात को बहुत कृतज्ञता से स्मरण करना ज़रूरी है कि ‘सृजन के
परिप्रेक्ष्य’ हेतु जी के कारण छपी.
डॉ प्रकाश आतुर हेतु जी पर बहुत ज़्यादा
विश्वास करते थे. शायद यह बात हेतु जी के गुण सूत्रों का ही हिस्सा है कि जो भी
उनके सम्पर्क में आता है उन पर विश्वास
करने लगता है. आज जब बहुत तटस्थ और निरपेक्ष होकर उनके इस गुण का विश्लेषण करना
चाहता हूं तो थोड़ा चकित भी होता हूं. चकित इसलिए कि वे मुंह देखी कभी नहीं कहते
हैं. बल्कि सीमा से अधिक ही मुंहफट हैं. वे कभी भी, कहीं भी, किसी की लू उतार सकते हैं. बल्कि
उतारते ही रहते हैं. लेकिन इसके बावज़ूद जो भी उनके सम्पर्क में आता है उनका मुरीद
हो जाता है. कभी-कभी अपने बहुत सारे निहायत शालीन और मृदु भाषी मित्रों से उनके इस
बर्ताव की तुलना करता हूं तो यह आश्चर्य और बढ़ जाता है. ज़्यादा सोचता हूं तो पाता हूं कि उनका यह बेलौस अन्दाज़
उनके मन की पारदर्शिता का परिचायक भी तो है.
क्षण भर को भले ही लगे कि उन्होंने आपके मन के प्रतिकूल कुछ कह दिया है
लेकिन फिर आप पाते हैं कि उन्होंने उसे मन में छिपा कर भी तो नहीं रखा. उनका एक और
गुण है लोगों के काम आना. बहुत बड़ा तो परिचय वृत्त और वे सदा सहायता को सुलभ. जब
भी बात करें, पता चलेगा आज इस दफ़्तर गए
थे, कल उस दफ़्तर. यह रोज़ का सिलसिला है.
जब कोई पुकारे वे बिना किसी झिझक के साथ हो लेते हैं. कोई ना नुकर नहीं, कोई नाज़
नखरा नहीं. मैं खुद कई दफा उनकी इस सदाशयता का लाभ उठा चुका हूं. इससे भी ज़्यादा
मज़े की बात तो यह है कि जिस दफ़्तर में मैं कार्यालयाध्यक्ष रहा वहां भी एक काम के
लिए एकाधिक दफ़ा उन्हें अपने साथ ले गया. यह है उनका रुतबा. इसी के साथ यह बात कहना
भी बहुत ज़रूरी लग रहा है कि जहां वे आपके काम आने में तनिक भी कृपणता नहीं बरतते
हैं वहीं अगर आपने कभी उनके लिए कुछ कर दिया तो उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन में वे ज़रूरत से ज़्यादा उदार और
मुखर रहते हैं. यह बात भी मैं स्वानुभव से कह रहा हूं. मेरे एक बार के छोटे-से
सहयोग का वे इतनी बार ज़िक्र कर चुके हैं कि अब तो मुझे भय लगने लगा है.
हेतु जी बहुत कामयाब शिक्षक रहे हैं, और
एक अर्थ में अब भी हैं. मेरा ऐसा मानना है कि एक कामयाब शिक्षक के लिए जितना ज़रूरी
यह है कि उसे अपने विषय का पूरा ज्ञान हो, उतना ही उसकी अभिव्यक्ति का सशक्त होना
भी ज़रूरी है. हेतु जी के मामले में तो
इसमें और कई चीज़ें जुड़ जाती हैं. मसलन यह कि बावज़ूद इस बात के कि वे हिन्दी के
अध्यापक रहे हैं (और आम तौर पर हिन्दी के
अध्यापक को ‘ऐंवे’ ही माना जाता है) अपने चारों तरफ की नवीनतम चीज़ों और प्रवृत्तियों की जितनी जानकारी और समझ
उन्हें है उसकी बड़ी भूमिका उनकी कामयाबी में है. संगीत और फिल्मों के तो वे जैसे
विश्वकोश ही हैं. अपने संगीत अनुराग का एक प्रसंग तो वे खुद बहुत मज़े लेकर कई बार
सुना चुके हैं. जयपुर में जब प्लेनेट एम संगीत के शौकीनों का सबसे प्रिय ठिकाना
हुआ करता था, एक दफा हेतु जी कुछ खरीदने
जा पहुंचे. वे शायद गज़लों के रैक के पास खड़े थे, तभी वहां की सेल्स गर्ल आई, उनकी
वेशभूषा (धोती कुर्ता) पर ऊपर से नीचे तक एक नज़र डाली, और उनसे बोली, “अंकल, भजन उस तरफ़ हैं!” अब बेचारी वो बालिका क्या जाने
कि ‘अंकल’ भजन सुनने वाली उम्र से अभी काफी दूर हैं! ऐसा ही एक प्रसंग वे किसी
मल्टीप्लेक्स का भी सुनाते हैं जब वे कोई एडल्ट फिल्म देखने जा पहुंचे थे और फिर
वहां मौज़ूद कुछ युवा मनचलों से उनका
दिलचस्प संवाद हुआ था. उस संवाद को मैं अपने सपाट लहजे में बयान करके उसकी
खूबसूरती को आहत नहीं करना चाहता. अगर कभी मौका मिले तो खुद हेतु जी से ही उसे
सुनें. फिल्मों का उनका शौक़ तो अद्भुत है.
‘संस्कृति, शिक्षा और सिनेमा’ किताब के एक खण्ड में फिल्मों के बारे में उनके लेख
उनकी सूक्ष्म समझ और बारीक पकड़ का श्रेष्ठ नमूना हैं. फिल्में देखने के उनके शौक़ का आलम यह है कि शुक्रवार को रिलीज़ हुई
फिल्म अगर वे रविवार तक न देख लें, और फिर फोन करके उसके बारे में न बता दें तो
मैं समझ जाता हूं कि वे शहर से बाहर हैं.
और शहर से बाहर जाना उनका चलता ही रहता
है. जयपुर से नीम का थाना तो वे ऐसे आते-जाते हैं जैसे कोई एक मुहल्ले से दूसरे
मुहल्ले में चला जाए. सुबह यहां तो शाम वहां, और शाम वहां तो रात यहां. लेकिन इस
मुल्ला की दौड़ सिर्फ मस्जिद तक ही नहीं है. या यों कहिये कि इसने तो हर जगह मस्जिद
बना रखी है. तुमने पुकारा और हम चले आए की तर्ज़ पर बस किसी ने आवाज़ दी और हेतु जी
निकल पड़ते हैं. पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण सब जगह तो वे जा पहुंचते हैं. जाते हैं
और अपने झण्डे गाड़ आते हैं. उन्हें सुनने वालों को तो मज़ा आता ही है, मुझ जैसे
आत्मीय जन खुद उनकी जबानी उनकी यात्राओं व्याख्यानों और अन्य प्रसंगों का वृत्तांत
सुनकर जो आनंद प्राप्त करते हैं वह अनिर्वचनीय है. असल में घूमना-फिरना,
मिलना-जुलना और सामाजिक होना हेतु जी की फितरत का अभिन्न अंग है. वे जहां भी जाते
हैं, अपने मुरीदों की फौज खड़ी कर लेते हैं और वे मुरीद उन्हें बार-बार पुकारते
रहते हैं. इस तरह उनकी यात्राओं की ज़रूरतें बढ़ती रहती हैं और वे आनंदपूर्वक प्रवास
करते रहते हैं. सुखद बात यह है कि इन यात्राओं में उनकी उम्र कहीं आड़े नहीं आती
है. बढ़ी उम्र के साथ स्वाभाविक रूप से चली आने वाली अनेक सीमाओं और विवशताओं को वे
बड़े सहज भाव से नज़र अन्दाज़ करते रहते हैं. उम्र के साथ उत्पन्न असुविधाओं का सामना
वे किस मज़े से करते हैं इसका बहुत रोचक वर्णन एक बार उन्होंने किया. इस वर्णन का
ताल्लुक स्लीपर बस में ऊपर वाली बर्थ पर लम्बी यात्रा से है. आवश्यकता आविष्कार की
जननी है का इससे बेहतर उदाहरण शायद ही कोई मिले. मेरी विवशता है कि इस प्रसंग को
मैं बहुत खोलकर नहीं लिख पा रहा हूं. लेकिन उम्मीद करता हूं कि सुधि मित्र इसी से
समझ जाएंगे. यह सब कह चुकने के बाद एक बात आहिस्ता से कह दूं? हेतु जी जो खुद को
इतना ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं, वो मुझे अब अच्छा नहीं लगता है. लगता है कि उन्हें
उम्र की आवाज़ को बहुत ज़्यादा अनसुना नहीं करना चाहिए, और अपनी यात्राओं को थोड़ा
सीमित करना चाहिए.
कुछ चीज़ों के प्रति उनका मोह और अनुराग
हद्द से ज़्यादा है. इनमें से दो का ज़िक्र करना चाहूंगा है. एक है सम्पादन कर्म. जब
वे राजस्थान साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष (और बाद में कार्यकारी अध्यक्ष) रहे तो उन्होंने ‘मधुमती’ का सम्पादन कर अपने
सम्पादन कौशल का लोहा मनवाया. उन अंकों को लोग आज भी बड़े आदर के साथ याद करते हैं.
फिर उन्होंने ‘समय माजरा’ का सम्पादन किया
और उसे प्रांत ही नहीं देश की शीर्षस्थ पत्रिकाओं में स्थान मिला. लेकिन पत्रिका
का प्रकाशन करने वाले संस्थान और उससे सम्बद्ध मित्रों की कुचेष्टाओं की वजह से उस
गौरवशाली प्रकाशन का दुखद अवसान हुआ. इससे हेतु जी बहुत आहत भी हुए. पत्रिका के इस
अकाल-अवसान में जिन मित्रों की जो-जो भूमिकाएं रहीं उनसे हम निकटस्थ लोग भली भांति
परिचित भी हैं, लेकिन आज मैं इस बात को बड़े विस्मय के साथ स्मरण करता हूं कि उन
मित्रों के प्रति भी हेतु जी के मन में कोई कटुता नहीं है, बल्कि उन्हें वे उतने
ही अनुराग के साथ अपने से जोड़े हुए हैं और उनके सुख दुःख में सहभागी बनते
हैं. ‘समय माजरा’ के अवसान के बाद
उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा को पुंजीभूत कर ‘अक्सर’ निकलना शुरु किया और अब तक
प्रकाशित इसके चौंतीस अंक हेतु जी के सम्पादन कौशल के शिलालेख हैं. पत्रिका में
उनके साथ एक सम्पादकीय टीम है, और टीम के सदस्य-मित्र अपनी तरह से सहयोग भी करते
हैं, लेकिन इसका ज़्यादा भार तो हेतु जी ही वहन करते हैं – यह बात जग जाहिर है. इस
त्रैमासिक पत्रिका के साथ-साथ उन्होंने काफी समय तक ‘पंचशील शोध समीक्षा’ का भी सम्पादन किया है और जिन्होंने यह प्रकाशन
देखा है वे जानते हैं कि जहां और लोग इस तरह के प्रकाशन को शुद्ध व्यावसायिक उपक्रम के रूप में देखते हैं, हेतु
जी ने यहां भी अकादमिक शुचिता का पूर्णत:
निर्वहन किया और पत्रिका की सामग्री की गुणवत्ता के साथ कोई समझौता नहीं
किया.
हेतु जी का दूसरा गहरा अनुराग है
प्रगतिशील लेखक संघ के प्रति. इस संगठन ने अनेक उतार चढ़ाव देखे हैं और जैसा कि
अधिकांश संगठनों के साथ होता है, छल छद्म, दुरभिसंधियां, रणनीतियां – सब कुछ चलते
रहते हैं. बीच में एक समय ऐसा भी आया अब
हेतु जी अपने मित्रों के बर्ताव से बहुत आहत हुए. मैंने तो उन्हें दो-टूक सलाह दी
कि अपनी उम्र और सेहत को देखते हुए उन्हें संगठन को अलविदा कह देना चहिए. मेरा
मानना है कि हम लोगों के लिए उन जैसे मित्र का कुशल क्षेम और उसकी उपस्थित किसी भी और बात से ज़्यादा ज़्यादा ज़रूरी
है. लेकिन मुझ जैसों की सलाह को सहानुभूतिपूर्वक सुनने के बाद भी बाबाजी कम्बल को
नहीं छोड़ पाए. अब जबकि यह प्रसंग थोड़ा पुराना हो चुका है, इस पर विचार करते हुए
मैं पाता हूं कि हेतु जी के लिए कोई
रिश्ता अस्थायी नहीं होता है. एक बार जुड़ गया तो फिर वो जुड़ा ही रहता है. यह बात
जितनी दोस्तों के बारे में सच है उतनी ही संस्थाओं के बारे में भी सच है. अब मैं
समझ गया हूं कि प्रगतिशील लेखक संघ जैसे उनके व्यक्तित्व का, उनके वज़ूद का एक
हिस्सा है और चाहे जो हो जाए, वे इससे जुदा हो ही नहीं सकते हैं.
और जब बात संस्था की चल ही निकली है तो थोड़ा-सा
ज़िक्र राजस्थान साहित्य अकादमी का भी कर दूं! आज तो खैर यह संस्था जिस हाल में है
उसका ज़िक्र न ही किया जाए तो बेहतर है, लेकिन मुझ जैसे लोग जानते हैं कि इस संस्था
ने अच्छे दिन भी देखे हैं. बल्कि यह कहूं कि इस संस्था की वजह से हम साहित्यिक
बिरादरी के लोगों ने साहित्य के अच्छे
दिन देखे हैं. ऊपर मैंने एक इतर प्रसंग में राजस्थान साहित्य अकादमी के
यशस्वी अध्यक्ष डॉ प्रकाश आतुर से हेतु जी की निकटता का उल्लेख किया है. आतुर साहब
दिसम्बर 1981 में अकादमी के अध्यक्ष बनाए गए और तब प्रांत की साहित्यिक बिरादरी के
बीच भी आम सोच यही था कि तत्कालीन सत्ता से निकटता के पुरस्कार स्वरूप उन्हें यह
पद प्रदान किया गया है. लेकिन प्रकाश जी ने बहुत अल्प समय में ही यह सिद्ध कर दिया
कि महत्व पद का नहीं उसे धारण करने वाले का होता है और वे हर तरह से इस पद के
काबिल हैं. उनके तीन कार्यकालों में अकादमी में जितनी सार्थक और नवाचारी
गतिविधियां हुईं, जिस तरह प्रांत के हर रचनाकार को लगने लगा कि अकादमी उसकी है, और
जिस तरह प्रांत के दूरस्थ अंचलों में अकादमी के कार्यक्रम होने लगे वह सब हमारी
स्मृतियों का हिस्सा है. इसे मैं अपना सौभाग्य ही कहूंगा कि मैं भी उस काल खण्ड
में अकादमी से सीधे जुड़ा हुआ था, इसकी संचालिका का सदस्य भी था – इसलिए न केवल इन
गतिविधियों का बल्कि पर्दे के पीछे की बहुत सारी हलचलों का भी साक्षी था. और
इसीलिए ऊपर मैंने कहा कि हेतु जी डॉ आतुर के बहुत निकट और विश्वस्त थे. सितम्बर
1989 में जब अचानक प्रकाश आतुर का निधन हुआ तब भी वे अकादमी अध्यक्ष थे, और हेतु
जी उनके उपाध्यक्ष थे. अकादमी के विधानानुसार दिवंगत प्रकाश जी की जगह हेतु जी पर
अकादमी संचालन का दायित्व आन पड़ा. इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि एक बेहद
कामयाब अध्यक्ष के बाद उस पद के दायित्व का निर्वहन कितना कठिन होता है. लेकिन आज
इस बात को मैं बहुत सुखद आश्चर्य के साथ
याद करता हूं कि हेतु जी ने उस दायित्व का
निर्वहन इतने कौशल के साथ किया कि प्रांत की लेखक बिरादरी को एक क्षण के लिए भी
ऐसा नहीं लगा कि अध्यक्ष पद पर जो व्यक्ति आसीन है वो हाल ही में दिवंगत हुए
अध्यक्ष से किसी भी माने में कम है. उस काल खण्ड की बहुत सारी बातें याद की जा
सकती हैं, लेकिन अगर वैसा करूंगा तो मैं अपने मूल विषय से दूर चला जाऊंगा, इसलिए
फिर से हेतु जी पर लौटता हूं. मैं उस काल की सिर्फ कुछ बातें याद करना चाहता हूं. एक तो यह कि हेतु जी
ने बाकायदा यह घोषित कर दिया था कि अकादमी के (कार्यवाहक) अध्यक्ष होने के नाते उन्हें वाहन, कर्मचारी,
भत्ते आदि की जो भी सुविधाएं देय हैं, वे उनका प्रयोग नहीं करेंगे. मेरे लिए इस
घोषणा का अधिक महत्व इस कारण है कि अकादमी
की बैठकों में मैंने अपने ही मित्रों को इन्हीं चीज़ों के लिए कभी झगड़ते और कभी
रिरियाते देखा था. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हालांकि हम सब जानते हैं कि अकादमी
जैसी संस्थाएं सरकार से वित्त पोषण प्राप्त करती हैं इसलिए उन में घोषित-अघोषित
सरकारी हस्तक्षेप भी होता ही है. अकादमी के पुरस्कार वितरण और सम्मान समारोहों में सत्ता प्रतिष्ठान के प्रतिनिधियों
की उपस्थिति को हमने निरपेक्ष भाव से स्वीकार कर लिया है. लेकिन हेतु जी के
कार्यकाल में कदाचित पहली और आखिरी बार ऐसा हुआ कि किसी मंत्री के नहीं वरन एक बड़े
लेखक रघुवीर सहाय के हाथों अकादमी पुरस्कार प्रदान करवाये गए. मैं अपने अभिन्न
मित्र डॉ माधव हाड़ा के घर जब भी रघुवीर सहाय से पुरस्कार लेते हुए उनकी तस्वीर
देखता हूं, मुझे हेतु जी का वो कार्यकाल याद आए बग़ैर नहीं रहता है. इसे मामूली बात नहीं माना जाना चाहिए. बाबा नागार्जुन भी उनके कार्यकाल में
अकादमी में आए. उस दौर में हेतु जी के सम्पादन में मधुमती के जो अंक निकले हैं
उनकी चर्चा मैं कर ही चुका हूं. अपने नातिदीर्घ अध्यक्षीय कार्यकाल में हेतु जी ने
एक बहुत महत्वपूर्ण काम किया ‘काव्यास्वादन संगोष्ठी’ का आयोजन करके. उन्होंने
समकालीन कविता के चार सर्वाधिक महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों – नंद चतुर्वेदी, नन्द
किशोर आचार्य, ऋतुराज और विजेन्द्र को एक साथ बिठाकर उनसे कविता के विभिन्न पहलुओं
पर व्यापक बातचीत की. इस बातचीत को टेप किया गया और बाद में इसे किंचित संपादित
रूप में ‘कविता का व्यापक परिप्रेक्ष्य: एक उपनिषद’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया. इस
चर्चा के महत्व को आप तभी समझ सकेंगे जब इस किताब को पढ़ना शुरु करेंगे. ऐसे बहुत
सारे काम हेतु जी ने किए. बातें और बहुत
सारी हैं, लेकिन कहीं तो विराम लगाना ही होगा.
साहित्य, शिक्षा, समाज, राजनीति, कला
आदि-आदि अनेक अनुशासनों पर गम्भीर विमर्श करने वाले और अपना मौलिक सोच रखने वाले
हेतु जी की बड़ी ख़ासियत मुझे यह लगती है कि वे आम
विद्वानों की तरह मनहूस नहीं हैं. बात कितनी ही गम्भीर हो, उसे सहज स्वाभाविक रूप
में कहना उन्हें आता है और बखूबी आता है. उनकी सोहबत में – चाहे वो रचनाकार हेतु
जी की हो या व्यक्ति हेतु जी की, आप बोर तो हो ही नहीं सकते. और अगर वो सोहबत
अंतरंग हो तो फिर कहना ही क्या! मैं खुद को इस मामले में बहुत खुशनसीब मानता हूं
कि उम्र के अंतराल के बावज़ूद मुझे हेतु जी के साथ इस तरह का बहुत सारा समय
बिताने का मौका मिला है और मिलता रहता है. उस वक़्त उनकी ज़िन्दादिली का क्या कहना! पण्डित
चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने अपनी अमर
कहानी ‘उसने कहा था’ में एक वाक्य लिखा है - कौन जानता था कि दाढ़ियावाले, घरबारी
सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे बस, बारहा वो याद आता रहता है! ग्राम्य जीवन के
जाने कितने बिन्दास प्रसंग उनसे सुने हैं! और उन्हें सुनाने का उनका अन्दाज़! मुझे
तो बेसाख़्ता महाकवि ग़ालिब याद आते रहते हैं: ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां... हेतु जी में यह प्रतिभा भरपूर है कि वे किसी भी
प्रसंग को ऐसा रोचक बना देते हैं कि मनहूस से मनहूस भी ठहाका मारने को मज़बूर हो
जाए! और अगर प्रसंग भी जीवंत हो तो फिर कहना ही क्या!
कभी मैंने जयपुर के अपने एक रचनाकार मित्र
से कहा था कि अपना बुढ़ापा कैसे बिताया जाए इस मामले में हेतु जी मेरे आदर्श हैं!
पता नहीं वे मित्र मेरी बात को कितना समझे और कितना नहीं समझे! लेकिन करीब एक दशक
पहले कही अपनी बात को आज याद करके खुद अपनी पीठ थपथपाने का मन कर रहा है – कि मेरा
आकलन कितना सही था. जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जो हमारे मनोनुकूल नहीं होता है.
और जहां तक उसे बदलने की बात है, हम उसे तो क्या बदलेंगे, जब खुद को ही नहीं बदल
पाते हैं. ऐसे में, जो है उस को आनंद भाव
के साथ स्वीकार करने से बेहतर तरीका जीवन जीने का हो नहीं सकता. और यह बात मैंने
हेतु जी को देखकर सीखी है. रोज़ सीखता हूं. उनकी दोस्ती, उनके स्नेह और उनसे मिली
सीखों के लिए आभार तो क्या व्यक्त करूं? बस यही कि वे जैसे हैं वैसे ही बने रहें!
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मानव मुक्ति को समर्पित त्रैमासिकी 'एक और अंतरीप' के डॉ हेतु भारद्वाज पर एकाग्र विशेषांक 'आदमी जैसा आदमी' (अप्रेल-जून 2017) में सम्मिलित मेरा लेख.