उदयपुर। पारम्परिकता रेत के शिल्प को शिथिल नहीं कर सकी और जरायमपेशा समाज पर लिखे जाने के बावजूद यह अतिरंजना से बचता है। सुपरिचित आलोचक एवं मीडिया विश्लेषक डॉ. माधव हाड़ा ने भगवानदास मोरवाल के चर्चित उपन्यास रेत के संबंध में कहा कि समाजशास्त्रीयता इस उपन्यास का साहित्येतर मूल्य है। उन्होंने कहा कि अस्मितावादी आग्रहों से परे होने पर भी रेत की संवेदना हाशिये के समाज से इस तरह संपृक्त है कि उसे अनदेखा करना अनुचित होगा। डॉ. हाड़ा ने किस्सा गोई को उपन्यास के शैल्पिक विन्यास की बड़ी सफलता बताया। साहित्य संस्कृति की विशिष्ट पत्रिका बनास द्वारा आयोजित इस संगोष्ठी में सुखाड़िया विश्वविद्यालय के डॉ. आशुतोष मोहन ने मोरवाल के तीनों उपन्यासों की चर्चा करते हुए कहा कि हिन्दी उपन्यास अपनी पारम्परिक रूढ़ियों को तोड़कर नया रूप और अर्थवत्ता ग्रहण कर रहा है। डॉ. मोहन ने रेत की तुलना दूसरे अस्मितावादी उपन्यासों से किए जाने को गैर जरूरी बताते हुए इसकी नायिका रुक्मिणी को एक यादगार चरित्र बताया। संगोष्ठी में जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के सह-आचार्य डॉ. मलय पानेरी ने रेत पर पत्र वाचन किया। डॉ. पानेरी ने मोरवाल की लेखन शैली को प्रेमचन्द की कथा धारा का सबाल्टर्न विस्तार बताते हुए कहा कि यह उपन्यास अपने प्रवाह और सन्देश में विशिष्ट है। बनास के सम्पादक डॉ. पल्लव ने कहा कि चटखारा लेने की प्रवृत्ति उपन्यास को कमजोर बनाती है, मोरवाल की प्रशंसा इस बात के लिए भी की जानी चाहिए कि वे ऐसे आकर्षण में नहीं पड़ते। इससे पूर्व संयोजन कर रहे शोध छात्र गजेन्द्र मीणा ने उपन्यास के कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों का वाचन किया। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ समालोचक प्रो. नवलकिशोर ने कहा कि रेत हमारे बीच रहने वाले एक कलंकित समुदाय को मानवीय दृष्टि से समझने की संवेदना हमें देता है। उन्होंने रेत की पठनीयता का कारण उसकी कथावस्तु की नवीनता को बताते हुए कहा कि यह हाशिये के बाहर के एक समाज की जन्मना अभिशापित औरत की जीवनचर्या को सामने लाती है। प्रो. नवल किशोर ने उपन्यास और स्त्री विमर्श के दैहिक पक्ष पर भी विस्तृत टिप्पणी की। चर्चा में जन संस्कृति मंच के संयोजक हिमांशु पण्ड्या, आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी लक्ष्मण व्यास, शोध छात्र नन्दलाल जोशी सहित अन्य पाठकों ने भी भागीदारी की। अन्त में गणेश लाल मीणा ने सभी का आभार व्यक्त किया।
पांच दिवसीय (21 से 25 जनवरी 2009) डी एस सी जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल सम्पन्न हो गया. अपने आयोजन के इस चौथे वर्ष में आ पहुंचे इस फेस्टिवल ने अब साहित्यकारों और साहित्य रसिकों के मन में सम्मान पूर्ण स्थान बना लिया है. राजस्थान की राजधानी -गुलाबी नगरी जयपुर- के बीचो बीच स्थित डिग़ी पैलेस में आयोजित इस फेस्टिवल में दुनिया भर के लगभग 200 लेखकों-प्रकाशकों, अनगिनत कलाकारों और बहुत बड़ी संख्या में साहित्यानुरागियों ने शिरकत की.
पहले ज़रा इस आयोजन में शामिल हुए लेखकों की सूची पर एक नज़र डालें. शशि थरूर, विक्रम सेठ, चेतन भगत, विलियम डालरिम्पल, उर्वशी बुटालिया, तरुण तेजपाल, पवन के. वर्मा, पंकज मिश्रा, विकास स्वरूप, लीला सेठ, नंदन नीलेकनी, तहमीना अनम, मोहम्मद हनीफ, आशीष नंदी, जिलियन राइट, गुरुचरन दास, दानियल मुइनुद्दीन, के सच्चिदानन्दन, यू आर अनंतमूर्ति, गुलज़ार, हरि कुंजुरु, पॉल ज़करिया, पिको अय्यर, निकिता लालवाने, निरुपमा दत्त, तुलसी बद्रीनाथ, अंतरा देव सेन, नबनीता देव सेन, अपूर्व नारायण, आलोक राय, अशोक वाजपेयी, अलका सरावगी, उदयन वाजपेयी, अशोक चक्रधर, नूर ज़हीर, शक्ति दान कविया, माली राम शर्मा, हरि राम मीणा, सत्यनारायण, गोविन्द माथुर आदि. कहना अनावश्यक है कि यह पूरी सूची नहीं है, लेकिन इस सूची से यह साफ ज़ाहिर है कि देश-विदेश के, हिन्दी और हिन्दीतर भाषाओं के अनेक शीर्षस्थ लेखक इस फेस्टिवल में शामिल हुए. गीतकार प्रसून जोशी, फिल्म निर्देशक मुज़फ्फर अली, विधु विनोद चोपड़ा, कलाकार अमिताभ बच्चन, नंदिता दास, दीप्ति नवल, अनुपम खेर, गंभीर फिल्म विश्लेषक नसरीन मुन्नी कबीर ने भी अलग-अलग सत्रों में शिरकत की और आयोजन स्थल पर मुक्त रूप से लोगों से मिलते-जुलते रहे. यह भी कहना ज़रूरी है कि अनुपम खेर, जो शहर में किसी शूटिंग के सिलसिले में थे, बिना निमंत्रण के ही फेस्टिवल में चले आए.
अब, जिस आयोजन में इतने सारे लेखक आए हों, उसकी भव्यता के बारे में तो कुछ भी कहना गैर ज़रूरी है. इस आयोजन ने न केवल लेखकों को आपस में मिलने-जुलने का और विभिन्न विषयों पर औपचारिक-अनौपचारिक विमर्श करने का अवसर उपलब्ध कराया, साहित्यानुरागियों को भी अपने प्रिय लेखकों से रू-ब-रू होने का अविस्मरणीय अनुभव प्रदान किया. पांच दिनों तक सुबह दस बजे से शाम छह बजे तक डिग्गी पैलेस में ही तीन स्थलों पर (और कभी-कभी चार जगहों पर भी) एक-एक घण्टे के सत्र एक के बाद एक चलते रहे. जिसका जहां मन हो जाए. किसी भी सत्र में जाने का मन न हो तो लॉन में, मैदान में कहीं भी बैठ कर गपशप करे. खास बात यह कि तमाम बड़े और स्टार लेखक भी यही करते रहे. इसलिए यह बात बहुत आम रही कि जिस टेबल पर आप बैठें हैं उसके पास वाली टेबल पर चेतन भगत या विक्रम सेठ या तरुण तेजपाल या अशोक वाजपेयी बैठे हैं. कोई औपचारिकता नहीं, कोई रोक-पाबन्दी नहीं. आप का मन हो जिससे बात करें, उसके ऑटोग्राफ लें या उसके साथ फोटो खिंचवाएं. स्कूल कॉलेजों के विद्यार्थी दिन भर लेखकों को घेरे रहते और मुझ जैसे बूढे भी कभी यू आर अनंतमूर्ति तो कभी अशोक वाजपेयी तो कभी गुलज़ार के साथ फोटो खिंचवाते नज़र आते. कार्यक्रम शाम छह बजे बाद भी जारी रहते. एक दिन बाउल गायक थे तो एक दिन फ्यूज़न संगीत. एक शाम प्रसून जोशी और दीप्ति नवल ने अपनी कविताएं भी सुनाईं.
पूरे कार्यक्रम में कहीं भी खास और आम के बीच भेद नहीं था. जहां कुर्सी नज़र आए, बैठ जाएं. कुर्सी न हो तो ज़मीन पर बैठ जाएं, हॉल में न घुस पाएं तो बाहर बड़े-बडे एल सी डी स्क्रीन पर भीतर की कार्यवाही देख लें. एक सत्र में तरुण तेजपाल देर से आए और बिना किसी संकोच के ज़मीन पर बैठ गए. उसी सत्र में तरुण विजय कहीं पीछे ज़मीन पर बैठे थे. न इन लेखकों ने इसे अपना अपमान समझा और न आयोजक इस बात को लेकर अतिरिक्त सजग नज़र आए. यही हाल खाने पीने के दौरान भी रहा. सारे लेखक, चाहे वो विक्रम सेठ हों, गुलज़ार हों, प्रसून जोशी हों, चेतन भगत हो, विलियम डालरिम्पल हों, अशोक वाजपेयी हों, दूसरे तमाम ज्ञात-अज्ञात लोगों के साथ समान भाव से खाते-पीते रहे. आयोजकों की तारीफ इस बात के लिए भी करना ज़रूरी है कि उन्होंने लेखकों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं किया. राजस्थान के किसी छोटे-से कस्बे से आने वाले लेखक को भी उसी होटल (पंच सितारा) में ठहराया जहां विक्रम सेठ, चेतन भगत, गुलज़ार, या प्रसून जोशी को ठहराया.
आयोजन के सत्रों में औपचारिकता न्यूनतम थी. माल्यार्पण वगैरह कुछ नहीं. एक दो वाक्यों में पैनल का परिचय और विमर्श शुरू. सत्र एकदम ठीक समय पर शुरू और ठीक वक़्त पर खतम. अगर ऐसी समय की पाबन्दी हमारी ज़िन्दगी में आ जाए, या कम से कम हमारे आयोजनों में ही आ जाए, तो कितना अच्छा हो. पैनल के विचार विमर्श के बाद श्रोताओं को खुली आज़ादी होती कि वे सवाल पूछें.
कुछ लोगों को लगा कि यह आयोजन अंग्रेज़ी की तरफ अधिक झुका हुआ था. हम लोगों का सम्बन्ध भारतीय भाषाओं से है इसलिए स्वाभाविक है कि हम ऐसे आयोजनों में उनकी अधिक सहभागिता की अपेक्षा करते हैं. अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रकृति की वजह से इस फेस्टिवल में अंग्रेज़ी सहित अंक भारतीय-अभारतीय भाषाओं की मौज़ूदगी थी, इसलिए मुझे तो स्वाभाविक ही लगा कि हिन्दी, बांगला, उर्दू,राजस्थानी वगैरह के हिस्से में एक दो तीन सत्र ही आ पाए. लेकिन अगर भारतीय भाषाओं की सहभागिता और बढाई जाए तो अच्छा ही रहेगा.
आयोजन को सफल बनाने में नमिता गोखले और टीम वर्क के संजॉय रॉय जिस तरह जुटे रहे, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है. कुल मिलाकर, यह फेस्टिवल मुझ जैसे साहित्य प्रेमी के लिए तो किसी बहुत बड़ी दावत की मानिन्द था. एक ऐसी दावत, जिसका ज़ायका बहुत लम्बे समय तक मुंह में बना रहेगा.
आयोजन के कुछ फोटो यहां देखें: http://picasaweb.google.com/dpagrawal24/JaipurLiteratureFestival?authkey=BbkqVwzdw8c#
दिल्ली में जन्मे 24 वर्षीय करण महाजन स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि अर्जित करने के बाद अब उस ब्रुकलिन शहर में रहते हैं, जहां, उन्हीं के शब्दों में, हर कोई या तो लेखक है, या शिशु या दोनों ही. हाल ही में फेमिली प्लानिंग शीर्षक से उनका पहला उपन्यास आया है, जिसकी खूब चर्चा और सराहना से उत्साहित हो अब वे अपनी दूसरी किताब पर काम कर रहे हैं. अपने इस पहले उपन्यास के लिए करण ने एक करोड़ की आबादी वाले दिल्ली शहर को केन्द्र बनाया है. इसके बहुत सारे हाई वे और ओवर पास कथानायक राकेश आहूजा ने बनवाये हैं. राकेश, जो इंजीनियर हैं और शहरी विकास मंत्री भी. जितने उत्पादक वे अपने विभाग में हैं, उससे कम अपने घर में नहीं हैं. उनके तेरह बच्चे हैं और चौदहवां आने वाला है. राकेश की पहली पत्नी का निधन अमरीका में एक वाहन दुर्घटना में हो गया था और दूसरी पत्नी संगीता, हालांकि उनकी मन वांछिता नहीं है, फिर भी उनके तेरह बच्चों की मां है. सबसे बड़ा बेटा सोलह वर्षीय अर्जुन मंत्री जी की पहली पत्नी की संतान है.
उपन्यास की शुरुआत एक रोचक दृश्य से होती है. अर्जुन अपने पिता को गर्भवती मां के साथ प्रणय रत देख लेता है. हालांकि वह उन्हें महज़ 1.67 सेकण्ड के लिए देखता है, लेकिन अब तक प्रणय के बारे में उसने जो भी जाना है, खास तौर पर अमरीका के माध्यम से, वह सब झन्न से टूट-बिखर जाता है. अर्जुन अपने पिता से सीधे पूछता है, “आप और मां लगातार बच्चे क्यों पैदा किए जा रहे हो?” इस सवाल से हतप्रभ पिता राकेश कुछ सोच कर जवाब देते हैं, “बेटा, मैंने तुम्हें योगराज कमीशन की रिपोर्ट के बारे में बताया तो था. फिर? तुम तो जानते ही हो कि मैं धर्मान्ध नहीं हूं लेकिन आयोग ने जो कुछ कहा वह सौ फीसदी स्पष्ट है. हमें देश में ज़्यादा हिन्दुओं की ज़रूरत है.” बेटा तिलमिलाकर सवाल करता है, “तो मैं, बल्कि हम सब, आपके लिए सिर्फ राजनीतिक मोहरे हैं?” बाप सफाई देते हुए कहता है, “ नहीं, बेटा. लेकिन तुम तो जानते ही हो कि ये लोग.... इनके तो एक से ज़्यादा बीबियां होती हैं और इनके परिवार बढते रहते हैं, जबकि.....” अर्जुन तल्खी से पूछता है, “क्या आपको मेरा नाम भी याद है?”
लेकिन यह इस उपन्यास का एक पक्ष है. लेखक बहुत कौशल से अर्जुन के इस सवाल के बहाने राकेश को उसके अतीत में ले जाता है. वह याद करता है कि कैसे उसे चालाकी से वर्तमान पत्नी के साध बांध दिया गया था. इस स्मृति और बेटे के सवाल से व्यथित हो वह अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे देता है. वैसे इस्तीफा उसके लिए कोई नई बात नहीं है, वह पहले भी 62 बार इस्तीफा दे चुका है. जितनी दुश्वारियां उसकी ज़िन्दगी में है, उनसे कम इस उपन्यास के अन्य पात्रों की ज़िन्दगी में नहीं हैं. राकेश की गर्भवती पत्नी संगीता बहुत दुखी है. वजह यह कि उसके प्रिय सीरियल का नायक मर गया है. न केवल संगीता, बल्कि देश भर की औरतें शोक में डूबी हैं और उन्होंने एक राष्ट्र व्यापी हड़ताल की धमकी तक दे रखी है. उधर अर्जुन अपनी स्कूल बस की खूबसूरत सहयात्री आरती को अपने रॉक बैण्ड की कथाएं सुना कर लुभाना चाहता है, लेकिन दिक्कत यह कि उसका कोई रॉक बैण्ड है ही नहीं.
राकेश की घरेलू और राजनीतिक ज़िन्दगी के हास्यास्पद प्रसंग इन सारे किरदारों की ज़िन्दगी की दुश्वारियों की विडम्बना को और गहरा जाते हैं. राकेश आहूजा की सरकार की करतूतें, उसकी पत्नी की टूटी-फूटी अंग्रेज़ी, और बेटे की संगीत विषयक हरकतें उपन्यास में हास्य के गहरे रंग भरती हैं. कथा बहु आयामी है. उपन्यास के ट्रेज़ेडी-कॉमेडी के सुविचारित मेल को इसकी सधी हुई भाषा और ज़्यादा प्रभावोत्पादक बनाती है. एक उदाहरण देखें. लेखक दिल्ली के भीषण ट्रैफिक का वर्णन करते हुए कहता है, “वे लोग कारों के अंतहीन काफिले में शरीक थे, वह काफिला जो फेफड़ों के कैंसर की धीमी तीर्थ यात्रा पर था.” इसी तरह वह युवा अर्जुन की सांगीतिक ‘प्रतिभा’ को इस तरह व्यक्त करता है: “उसकी आवाज़ ठीक वैसी ही थी जैसी कि किसी बड़े बांध से पानी के पहले रिसाव की होती है. वह भयावह थी क्योंकि यह तो शुरुआत थी और उसका भीषण रूप अभी शेष था.”
उपन्यास पढते हुए यह कहीं भी नहीं लगता कि यह एक 24 वर्षीय रचनाकार की कृति है, और वह भी प्रथम कृति. अपने व्यंग्यात्मक लहज़े और जीवन के मार्मिक क्षणों की अचूक पकड़ के कारण इसे भुला पाना कठिन है. यही है इसकी सफलता का राज़. ◙◙◙
Discussed book: Family Planning (A Novel) By Karan Mahajan Published by Harper Collins Publishers 288 pages US $ 13.95
राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 25 ज़नवरी 2009 को प्रकाशित.
तेहरान के एक पूर्व मेयर और शाह के शासन काल में ईरानी संसद की पहली महिला सांसद निज़हत नफीसी की बेटी अज़र नफीसी की संस्मरणात्मक किताब थिंग्ज़ आई हैव बीन साइलेण्ट अबाउट प्रकाशित होते ही चर्चा में आ गई है. इन्हीं अज़र नफीसी की 2003 में आई पिछली किताब रीडिंग लोलिता इन तेहरान की पन्द्रह लाख प्रतियां बिकी थीं और उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समकालीन क्लासिक माना गया था. अपनी इस नई किताब में अज़र ने बदलते हुए ईरान में तनाशाह मां के साथ बड़े होने का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है.
किताब का स्वर साहित्य की विमुक्तकारी भूमिका की प्रशस्ति का है. प्रारम्भिक पन्नों से यह आस जगने लगती है कि लेखिका अपने जीवन के बारे में कुछ सनसनीखेज रहस्योद्घाटन करेगी, लेकिन जैसे-जैसे आगे पढते हैं, हम पाते हैं कि उनकी रुचि सनसनी पैदा करने में नहीं बल्कि अपनी डिफिकल्ट मां के साथ अपने विक्षोभपूर्ण रिश्तों के बयान और उनके विश्लेषण में है. ईरान की सब कुछ को गोपन रखने की संस्कृति का अतिक्रमण करते हुए वे यह कहते हुए सब कुछ खोलती हैं कि “मां के बारे में अब सब कुछ लिखकर और अपनी चुप्पी तोड़कर मैं प्रतिरोध का एक और प्रयास कर रही हूं.” लेखिका यह कहना भी नहीं भूलतीं कि “जिन सच्चाइयों को हम जानते हैं, अब उनके बारे में चुप नहीं रहा जा सकता”.
तानाशाह मां के प्रति अपनी नाखुशी का इज़हार करते हुए अज़र नफीसी निजी इतिहास को राजनीतिक इतिहास के साथ गूंथती चलती है, और यही बात इस किताब को महत्वपूर्ण बनाती है. असल में मां के प्रति उनका क्रुद्ध और उग्र प्रतिरोध उस इस्लामी सर्व सत्तात्मक निज़ाम के प्रति भी प्रतिरोध है जो 1979 में ईरान में स्थापित हुआ था. वे लिखती हैं, “यह समझने से बहुत पहले ही कि एक निर्मम राजनीतिक सत्ता किस तरह अपने नागरिकों पर सवार होती है और उनकी पहचान और निजता छीनती है, मैंने अपने परिवार के भीतर अपने निजी जीवन में यह महसूस कर लिया था.” वे कहती हैं, “इस्लामी क्रांति के बाद मैं तो मज़ाक में यह कहा करती थी कि हमने तो अपनी मां के साथ रहते हुए खुद को पहले ही ऐसे समय के लिए तैयार कर लिया था.”
अज़र नफीसी को बहुत पहले ही यह भनक पड़ गई थी कि एक दम्पती के रूप में उनके मां-बाप सुखी नहीं हैं. मां और बाप दोनों ही अपने जीवन के बारे में गढी हुई बातें बच्चों को बताते रहे. अज़र नफीसी की मां बुद्धिमती किंतु जटिल व्यक्तित्व वाली थी. महत्व भरी और रोमाण्टिक ज़िन्दगी के उनके अपने सपने पूरे नहीं हो पाये तो उन्होंने अपने, अपने परिवार और अपने विगत के बारे में अनेक खुशनुमा वृत्तांत गढ लिए. अज़र इन वृत्तांतों की हक़ीक़त जानती थी. उधर पिता ने एक दूसरी तरह की किस्सगोई में पलायन कर राहत पाने की चेष्टा की. वे अपने बच्चों को शाहनामा जैसे क्लासिक की कथाएं सुन-सुना कर सुकून पाने लगे. पिता का साहित्यिक रुझान बेटी को विरासत में मिला. अज़र की पूरी सहानुभूति अपने पिता के साथ और खुली नाराज़गी अपनी मां के प्रति किताब के हर शब्द से टपकती है.
साठ के दशक में जब उनके पिता को राजनीतिक कारणों से पांच साल जेल में रहना पड़ा तब किशोरी अज़र को मां के दबाव में अनचाही शादी के लिए तैयार होना पड़ा. ओक्लाहोमा यूनिवर्सिटी में पढते हुए उन्होंने इस पति को तलाक दिया और ईरानी छात्र आंदोलन में कूद पड़ीं. वे कहती हैं, “सत्तर के दशक में विदेश में रह रहे किसी भी ईरानी के लिए सरकार विरोधी होना लाजमी था, लेकिन देश के भीतर स्थितियां भिन्न थीं.” 1979 में, क्रांति के बाद वे अपने नए पति के साथ ईरान लौटीं, लेकिन देश का नया शासन भी बेहतर नहीं था. अज़र और उनके दोस्तों को परेशान किया गया और जेल भी भेजा गया. जब वे तेहरान विश्वविद्यालय में पढ़ा रहीं थी तब उन्हें बुर्क़ा न पहनने के ज़ुर्म में नौकरी से हटाया गया. यह अलग बात है कि इसके बावज़ूद उन्होंने निजी अध्ययन समूह बनाकर वैकल्पिक तरीकों से अध्यापन ज़ारी रखा. अंतत: 1997 में उन्होंने देश छोड़ दिया.
अज़र के लिए लेखन प्रतिरोध का एक सशक्त माध्यम है. प्रतिरोध, चाहे दमनकारी शासन के प्रति हो या दमनकारी मां के प्रति.
Discussed book: Things I’ve Been Silent About By Azer Nafisi Published by Random House Publishing Group 368 pages, Hardcover US $ 27.00
राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 11 जनवरी, 2009 को प्रकाशित.