सिरोही
में मैंने कॉलेज में एक गतिविधि में बहुत ज़्यादा रुचि ली और वह गतिविधि थी फिल्म
प्रदर्शन. कॉलेज के पास एक 16 मि. मि. फिल्म प्रोजेक्टर था. महेश कुमार भार्गव जैसे
उत्साही और नवाचारी प्राचार्य का सम्बल मिला तो मैंने कॉलेज में खूब ही फिल्में
दिखाईं. कुछ लोकप्रिय किस्म की हिंदी फिल्में, कुछ विषयों से जुड़ी शैक्षिक
फ़िल्में और कुछ नई लहर की फिल्में, जैसे एम एस सथ्यु की ‘गरम हवा’. इस
गतिविधि में हालांकि मुझे वक़्त खूब देना पड़ा, मज़ा भी बहुत आया.
इस
चर्चा को और आगे बढ़ाऊं उससे पहले प्राचार्य महेश कुमार भार्गव की संवेदनशीलता का
एक प्रसंग काबिले-ज़िक्र लग रहा है. फ़िल्म प्रदर्शन के लिए हम कॉलेज के रसायन
विज्ञान विभाग के प्रयोगशाला सहायक क़मरुद्दीन की सेवाएं लेते थे. क़मरुद्दीन अल्प
वेतन भोगी कर्मचारी था और नौकरी के बाद के समय में रजाई गद्दे सिल कर कुछ अतिरिक्त
कमाई कर लिया करता था. जब फ़िल्म शो ज़्यादा ही होने लगे तो एक दिन क़मरुद्दीन ने
मुझसे कहा कि इस वजह से वह शाम को अतिरिक्त आय के लिए जो काम करता है उसे करना
कठिन होता जा रहा है. मुझे भी उसकी यह व्यथा उचित लगी. मैंने भार्गव साहब से इस
बात की चर्चा की. अब अगर उनकी बजाय कोई और प्राचार्य होता तो वह रौब से कहता कि
सरकारी आदेश है इसलिए काम तो करना ही पड़ेगा. लेकिन भार्गव साहब अलग ही मिट्टी के
बने थे. उन्होंने फौरन उस अल्प वेतनभोगी कर्मचारी की तक़लीफ़ को समझा और मुझे एक
रास्ता बता कर उसकी मुश्क़िल को हल किया. रास्ता यह था कि जिस दिन फिल्म शो होता, मैं
प्राचार्य जी को एक आवेदन लिखता कि आज शाम आयोज्य फिल्म शो में काम करने वाले
कर्मचारियों के जलपान के लिए बीस रुपये तक व्यय करने की अनुमति प्रदान करें.
प्राचार्य जी उस पर अनुमति प्रदान कर देते. मैं वह अनुमति पत्र क़मरुद्दीन को दे
देता. वह उसके साथ चाय का बिल लगाकर कैशियर से भुगतान ले लेता. यह व्यवस्था जब तक
भार्गव साहब प्राचार्य थे, चलती रही.
भार्गव
साहब को एक और प्रसंग के कारण मैं कभी नहीं भूल सकता. कॉलेज में प्रदर्शन के लिए
एम एस सथ्यु की बहु प्रशंसित फ़िल्म ‘गरम हवा’ आई थी. स्टाफ के लिए और आम जन के लिए उसके प्रदर्शन हो
चुके थे. उन दिनों हम कोई लोकप्रिय हिंदी फिल्म कॉलेज के लॉन पर दिखाते तो जैसे
पूरा शहर ही उसे देखने उमड़ पड़ता. तभी सुमेरपुर से स्वयं प्रकाश मेरे यहां आए. जब
उनसे इस फ़िल्म का ज़िक्र हुआ तो वे भी इसे देखने को लालायित हो उठे. मैंने बहुत
संकोच से अपने प्राचार्य भार्गव साहब से यह कहते हुए कि प्रोजेक्टर खुद मैं ही चला
लूंगा, स्टाफ
रूम में स्वयं प्रकाश के लिए इस फ़िल्म का विशेष शो करने की अनुमति मांगी. भार्गव
साहब एक दम गुस्से में आ गए. बोले, “आप प्रोजेक्टर क्यों चलाएंगे? क्या
मुझे नज़र नहीं आता है कि आप अपना कितना समय इस गतिविधि को देते हैं? आप
स्वयं प्रकाश जी को यह फ़िल्म ज़रूर दिखाइये. इसके लिए क़मरुद्दीन को बुला लीजिए.” मेरी
खुशनसीबी है कि मुझे इस तरह के समझदार, संवेदनशील और कद्रदां प्राचार्य मिले. उनसे मैंने बहुत
सीखा, जो
बाद में मेरे काम भी आया.
इस
गतिविधि में मुझे तत्कालीन उपाचार्य डी.सी.कृष्णानी का जो सहयोग मिला, उसकी
चर्चा अलग से करने की ज़रूरत है. तब मैंने ब्रिटिश काउंसिल से शेक्सपियर के बहुत
सारे नाटकों के मंचीय प्रदर्शन की फिल्में एक-एक करके मंगवाई. अब होता यह कि जिस
दिन ऐसी किसी फिल्म का प्रदर्शन होता उसके कई दिन पहले से हम तैयारी शुरु कर देते.
हम लाइब्रेरी में उस नाटक की जितनी भी प्रतियां होतीं वे और अगर उस नाटक का हिंदी
अनुवाद भी उपलब्ध होता तो उसकी प्रतियां लाइब्रेरी के काउण्टर पर रखवा देते और
विद्यार्थियों को यह सूचना दे देते ताकि रुचि हो तो वे फिल्म देखने से पहले उसे पढ़
भी लें. फिर कृष्णानी साहब हर क्लास में जाकर उस फिल्म के प्रदर्शन की भूमिका
तैयार करते. वे शेक्सपियर के महत्त्व और उस नाटक की विषय वस्तु का परिचय देते.
इसके बाद जिस दिन फिल्म का प्रदर्शन होता, खुद कृष्णानी साहब माइक हाथ में लेकर खड़े होते और जैसे
जैसे फिल्म चलती, वे उसके संवादों को म्यूट करके हिंदी में संक्षिप्त
जानकारी देकर उस फिल्म को बोधगम्य बनाते. फिल्मों के इस शौक ने मुझे शहर में
सिरोही फिल्म सोसाइटी जैसी गतिविधि के संचालन के लिए भी प्रेरित किया. जोधपुर के
प्रो (अब दिवंगत) मोहन स्वरूप माहेश्वरी से प्रेरणा व सहयोग लेकर हमने कई बरस
सिरोही में यह गतिविधि चलाई और न्यू वेव और समांतर फिल्म आंदोलन की करीब-करीब सारी
फिल्में सिरोही की जनता को दिखाई. स्वाभाविक है कि ऐसा करके खुद मेरी कलारुचि
तृप्त हुई.
कई बरस यह गतिविधि चली और फिर अचानक एक प्रसंग ऐसा आया
कि मेरा मन उससे उचट गया और सिरोही सोसाइटी बंद हो गई. हुआ यह कि एक दिन एक फिल्म
का शो शहर में किसी सार्वजनिक नोहरे में आयोजित था. उन्हीं दिनों हमारे कॉलेज में
एच. बी. सक्सेना प्राचार्य होकर आए थे. उन्हें किसी ने इस गतिविधि के बारे में बता
दिया तो उन्होंने मुझे तलब किया और किंचित नाराज़गी से यह कहा कि मैं यह कर रहा हूं
इसकी जानकारी मैंने उन्हें क्यों नहीं दी? ख़ैर, मैंने उन्हें शाम के शो के लिए आमंत्रित किया तो
उन्होंने घुमा फिराकर यह इच्छा व्यक्त की कि कोई उन्हें लेने आए, और
ऐसा करना मेरे लिए शो की तैयारियों में व्यस्त होने के कारण सम्भव नहीं था. मैंने
उन्हें यह कह दिया कि कृपया ठीक समय पर आ जाएं क्योंकि हम अपना शो एकदम ठीक समय पर
शुरु कर देते हैं, लेकिन उन्होंने घुमा फिराकर यह जता दिया कि अगर उनके
पहुंचने से पहले हमने शो शुरु कर दिया तो ‘ठीक नहीं होगा.’ उस दिन तो जैसे तैसे वह शो हुआ, लेकिन
उसके बाद मुझे लगा कि बेहतर यही होगा कि मैं इस गतिविधि से खुद को अलग कर लूं.
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2 comments:
नमस्ते,
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 23 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बेहतरीन प्रयोग
सादर
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