Monday, August 23, 2010

सी पी जोशी: साथ काम करने के दिनों की कुछ यादें

अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो सोचता हूं कि उस प्रख्यात अंग्रेज़ी कहावत के राजेन्द्र यादवीय अनुवाद को साकार करने की क्या सूझी थी मुझे? अग्रेज़ी कहावत है fools rush in where angels fear to tread in. राजेंद्र जी ने इसका जो अनुवाद किया, वह शालीन भले ही न हो, उससे सटीक अनुवाद और कोई हो नहीं सकता. उनका किया अनुवाद था, “चू** धंस पड़ते हैं वहां, फरिश्तों की फ*ती है जहां.” कोई 33 साल सरकारी कॉलेजों में नौकरी कर लेने के बाद, और अगर इसे अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना न माना जाए, तो एक उम्दा शिक्षक की प्रतिष्ठा अर्जित कर लेने के बाद, एक छोटे-से कस्बे में सुख-चैन की ज़िन्दगी जीते हुए मुझ नासमझ को क्या सूझी कि तबादले पर जयपुर आने को तैयार हो गया. बात केवल इतनी ही नहीं थी कि करीब-करीब पूरी नौकरी छोटे-छोटे कस्बों में करने के बाद राज्य की राजधानी में एडजस्ट कर पाऊंगा या नहीं. बात इससे कहीं ज्यादा बड़ी थी. हम शिक्षकों का, खास तौर पर कॉलेज शिक्षकों का, ईगो कुछ ज़्यादा ही बड़ा होता है. अपने काम से काम रखते हैं हम लोग, और वो जिसे दुनियादारी कहा जाता है, उस मामले में हम लोग ज़रा कमज़ोर होते हैं. लेकिन यहां जयपुर में मुझे शिक्षक के रूप में नहीं आना था. एक शिक्षक के रूप में आप स्वायत्त होते हैं. फिर प्रिंसिपल हुआ तो यह स्वायत्तता और बढ़ गई. लेकिन यहां जयपुर आकर तो मुझे कई सासों की बहू बन जाना था. यहां की कार्यशैली भी एकदम अलग होती है. इसका मुझे क़तई अभ्यास नहीं था. वहीं फाइल पर नोटिंग वगैरह. यथाप्रस्तावित!

जब तक कॉलेज शिक्षक रहा, अफसरों नेताओं वगैरह से एक सम्मानजनक दूरी बनी रही. मुझे लगता रहा कि उनकी दुनिया अलग है, मेरी अलग. इन लोगों से समानता के स्तर पर मिला नहीं जा सकता, और दास्य भाव मेरे स्वभाव में नहीं है. तो, निहायत ही औपचारिक संबंध रहे. न कभी कोई कटुता हुई और न कभी निकटता. बल्कि, यह और हुआ कि जिन लोगों से पहले आत्मीयता रही, जब वे विधायक मंत्री वगैरह बने तो मेरा उनसे मिलना जुलना ही खत्म हो गया. हमसे आया न गया, तुमसे बुलाया न गया वाली बात.

तो, अपने ऐसे स्वभाव की गठरी लिए जब जयपुर आया तो खुद ही कम आशंकित नहीं था. पद के दायित्व ऐसे कि अफसरों और मंत्री गण से लगातार संपर्क आवश्यक. संयुक्त निदेशक, कॉलेज शिक्षा का पद विभाग और सचिवालय के बीच की ज़रूरी कड़ी होता है. दिन में दसियों बार इनसे संपर्क की ज़रूरत होती है. मन में बहुत सारी आशंकाएं लिए आ तो गया ही था. उन दिनों मेरे विभाग के मंत्री थे डॉ सी पी जोशी. मुझे पता था कि वे भी मेवाड़ी हैं और उसी विश्वविद्यालय से निकले हैं जहां से मैंने अपनी शिक्षा ग्रहण की थी. अलबता वे मुझसे कई वर्ष बाद के अधिस्नातक थे. लेकिन इससे क्या फर्क़ पड़ता है. मन में कहीं यह तो लगता ही था कि कोई सूत्र है जो हमें जोड़ता है. सीपी जी को खासा कड़क मंत्री माना जाता था. सुना था कि खुर्राट अफसर भी उनके पास जाते हुए घबराते हैं.

अब यह तो याद नहीं कर पा रहा हूं कि अपने मंत्री जी से मेरा पहली बार सामना कब हुआ और उस मुलाक़ात में क्या हुआ, लेकिन यह अच्छी तरह याद है कि उनसे मिलकर भय मुझे ज़रा भी नहीं लगा. कुछ बाद में मैंने मन ही मन जब उनका मूल्यांकन किया तो पाया कि यह आदमी काम को समझता है, इसे बेवक़ूफ नहीं बनाया जा सकता, और इस आदमी को साफ सुथरी, नपी तुली बात पसंद है. शायद दो-तीन मुलाक़ातों के ही बाद मेरे लिए यह व्यवस्था हो गई थी कि जब भी मैं उनके दफ्तर जाऊं बिना अनावश्यक प्रतीक्षा के सीधे उनके कक्ष में जा सकता हूं. यहीं यह उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा, कि उसी काल में अपने विभाग के एक उच्चाधिकारी के यहां मेरा अनुभव इसके ठीक विपरीत रहा. उन्हें इस बात में खुशी महसूस होती कि उनके अधिकारी गण उनकी प्रतीक्षा में दो-चार घण्टे बर्बाद करें. उनके बुलावे पर सरकारी काम से आप उनके पास जाएं, और वे अपना दरबार लगाए रहें, ठकुरसुहाती का सुख लेते रहें और आप भकुए की तरह हाथ बांधे खड़े रहें क्योंकि आपको बैठने को कहना उनकी शान के खिलाफ हुआ करता था (यह बात अलग है कि मैं उन विरल लोगों में से एक था जो जाते ही उनके सामने खाली पड़ी किसी कुर्सी पर जम जाया करता था, यह जानते हुए भी कि ऐसा करना ब्यूरोक्रेटिक शिष्टाचार के खिलाफ है. खैर! वह प्रसंग फिर कभी). सीपी जी के चैंबर में जाने के बाद शायद ही कभी अनावश्यक प्रतीक्षा करनी पड़ी हो. नाम से संबोधित करते वे, और तुरत फुरत निर्णय कर या निर्देश देकर मुझे रुखसत कर देते. न कभी वे अनावश्यक आत्मीय हुए और न कभी किंचित भी कटु. एक सम्मानजनक दूरी सदैव बनाये रखी.

आज स्थानांतरणों वगैरह में मंत्रियों की भूमिका को लेकर काफी कुछ कहा जाता है (और कहा ही क्यों जाता है, सीपी जी के उत्तराधिकारी के साथ काम करते हुए मैंने खुद ही अनुभव भी कर लिया था) लेकिन सीपी जी के साथ मेरा अनुभव विलक्षण रहा. कुछ समय मेरे पास प्रिंसिपलों के स्थानांतरण पोस्टिंग वगैरह का भी दायित्व था. सीपी जी हमेशा यह चाहते कि मैं उनके स्थानांतरण के प्रस्ताव बनाकर उनके पास ले जाऊं. शुरू-शुरू में एक-दो बार मैंने उनसे पूछा भी कि अगर उनकी कोई खास आकांक्षा हो तो मुझे बता दें ताकि प्रस्ताव तैयार करते वक़्त ही उसका निर्वाह कर लिया जाए, लेकिन उन्होंने हमेशा यही कहा कि मुझे प्रशासनिक दृष्टि से जो उपयुक्त लगे वही करूं. जब मैं प्रस्ताव बनाकर उनके पास ले जाता तो वे उन प्रस्तावों में से रैंडम तौर पर दो-एक के बारे में पूछते कि मैं इस प्रिंसिपल को यहां क्यों भेजना चाह रहा हूं, और जब मैं उन्हें उस प्रस्ताव का कारण बताता तो वे तुरंत स्वीकार कर लेते. उन्होंने कभी तबादलों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया. न केवल इतना, बल्कि अगर सीधे मेरे पास कोई आग्रह या आदेश आता भी तो मैं उन्हें बताता और वे सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेकर मुझे मुक्त कर देते. यह मामूली बात नहीं है.

सीपी जी के साथ काम करने के छोटे बड़े अनेक संस्मरण मेरी स्मृति में हैं. एक बार एक निकटवर्ती राज्य के शिक्षा मंत्री जी जयपुर के दौरे पर आए. उनके साथ मेरी प्रोटोकॉल ड्यूटी थी. मंत्री जी बेहद सज्जन. उन्होंने चाहा कि मैं राज्य के शिक्षा मंत्री जी यानि सीपी जी से उनकी मुलाक़ात तै कर दूं. मैंने फोन करके समय निर्धारित कर दिया और अतिथि मंत्री जी को लेकर सीपी जी के बंगले पर पहुंच गया. यह सोचकर कि दो राजनीतिज्ञों की गुफ्तगू के वक़्त मेरा उपस्थित रहना उचित नहीं होगा, मैं बाहर ही बैठ गया. सीपी जी ने तुरंत किसी को भेज कर मुझे भीतर बुलाया और अपनी सहज मेवाड़ी में मुझे मीठा उलाहना दिया कि मैं अंदर क्यों नहीं आ गया. घर पर उनका बर्ताव दफ्तर से अलग हुआ करता था. नाथद्वारा का प्रसाद उन्होंने बहुत आत्मीयता से हमें खिलाया.

आज मुझे सबसे ज़्यादा यह आता है सीपी जी का संसदीय कौशल. विधान सभा में प्रतिपक्ष को कैसे फेस किया जाए, और अपनी बौद्धिकता का इस्तेमाल कर कैसे सामने वाले को हक्का-बक्का करके साफ बचके निकल जाया जाए, यह कोई सीपी जी से सीखे. विधानसभा में उनका कौशल देखते ही बनता था. आज जब विधान सभाओं में हल्ला-ब्रिगेड को देखता हूं तो मुझे सीपी जी की प्रखर बौद्धिक शैली की बहुत याद आती है.

मंत्री मण्डल में हुए फेर बदल के बाद जब सीपी जी मेरे विभाग के मंत्री नहीं रहे, तो मुझे यह बेहद ज़रूरी लगा कि मैं उनकी सदाशयता, सज्जनता और तमाम अच्छी बातों के लिए उनके पास जाकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करूं. मैं उनके दफ्तर गया और अपनी कृतज्ञता गिने-चुने शब्दों में व्यक्त की. उस दिन मुझे सीपी जी एक नया ही रूप देखने को मिला. मेवाड़ी में मुझसे बोले, “यार आप तो मनैं कदी क्यो ई नीं के आप कॉलेज में म्हारा सीनियर हा! (यार! आपने तो मुझे कभी कहा ही नहीं कि आप कॉलेज में मेरे सीनियर थे!)” अब भला मैं क्या बोलता?

तब से अब तक सीपी जी के कद में खूब इज़ाफा हुआ है. अब वे प्रादेशिक नेता न रहकर राष्ट्रीय स्तर के नेता हो गए हैं. ऊपर उल्लिखित कृतज्ञता ज्ञापन वाली भेंट के बाद प्रत्यक्ष उनसे कभी मुलाक़ात नहीं हुई. सयानों ने मुझे सुझाव भी दिया कि मुझे ‘बड़े’ लोगों से मेल जोल बनाये रखना चाहिए. उनका कहना भी सही है, लेकिन क्या करूं. अपने कैफियत तो वो राजकपूर वाली है कि सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी. सीपी जी से प्रत्यक्ष मुलाक़ात नहीं हुई, लेकिन मीडिया की बदौलत उनसे मिलना होता ही रहता है. जब भी उनकी किसी उपलब्धि के बारे में जानने को मिलता है, मैं भी यह याद करके खुश हो लेता हूं कि कभी इनके साथ मुझे भी काम करने का सौभाग्य मिला था. यही कामना है कि सीपी जी स्वस्थ रहें और दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करें.
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केंद्रीय पंचायती राज मंत्री डॉ सीपी जोशी की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर उदयपुर से प्रकाशित स्मारिका में प्रकाशित आलेख.



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2 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

अच्छा संस्मरण। राजेंद्र जी का अनुवाद भी पसंद आया.... आखिर उनसे तो सब की फ़*ती है :)

Unknown said...

c p joshi ji par itane sadhe hue andaaj mai aapke kalam se likhaa yaado kaa vritt chitra padhkar anand a gaya.