Monday, September 13, 2010

हिंदी दिवस: कुछ खरी-खरी बातें


Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

हिंदी दिवस फिर आ गया है. हर साल आ जाता है. विभिन्न सरकारी संस्थानों के  हिंदी अधिकारियों के लिए अपनी दक्षता के दिखावे का  वार्षिक महोत्सव. (दिखावे शब्द का प्रयोग मैंने जान-बूझकर किया है. यह मानते हुए कि वे वर्ष भर काफी कुछ सार्थक भी करते रहते हैं, लेकिन हिंदी दिवस या हिंदी सप्ताह या हिंदी पखवाड़ा उनकी कारगुज़ारियों के प्रदर्शन का मौका होता है.)  हिंदी लेखकों-कवियों के लिए इस बात पर गर्व करने का एक अवसर कि वे एक महान भाषा के रचनाकार हैं, मंचीय किस्म के कवियों के लिए सूर कबीर मीरा तुलसी की भाषा को दुनिया की सबसे महान भाषा घोषित करने और कुछ भावुकता भरे जुमले उछलने के वार्षिक  कर्मकाण्ड का मौसम,  और  अपनी सामग्री में अंग्रेज़ी शब्दों की मात्रा लगातार बढ़ाते  जाने वाले हिंदी अखबारों के लिए यह प्रदर्शित करने का एक और मौका कि वे हिंदी से गहरा अनुराग रखते हैं. लेकिन इन सबसे हटकर उन लोगों के लिए, जिनकी रोजी-रोटी से तो सीधे  इस दिन का कोई सम्बन्ध नहीं है लेकिन जो दिन-रात इसी भाषा को बरतते  हैं, यह दिन भी साल के बाकी दूसरे 364 दिनों जैसा ही एक और दिन होता है.
      
आइये देखें, क्या है हक़ीक़त इस दिन की!

भारत की संविधान सभा ने 14 सितम्बर,  1949 को हिन्दी को राजभाषा बनाने का फैसला किया था, उसी को याद करते हुए हिन्दी दिवस मनाया जाता है. कहने को हिन्दी हमारे देश की राजभाषा है भी सही, लेकिन इससे अधिक मिथ्या कथन और कोई शायद हो नहीं सकता. हिन्दी कितनी राजभाषा है, बताने की ज़रूरत नहीं. फिर भी, इस दिन हिन्दी प्रेमी इकट्ठा होते हैं, हिन्दी की शान में कसीदे पढते हैं, हिन्दी के लिए जीने-मरने की कसमें खाते हैं, और शाम होते-होते ये पर उपदेश कुशल वीर फिर से अपनी उस दुनिया में लौट जाते हैं जहां हिन्दी या तो होती नहीं, या बहुत ही कम होती है. घर में अंग्रेज़ी के अखबार, अंग्रेज़ी की पत्र-पत्रिकाएं, बातचीत और अगर वह किसी ‘बडे’ आदमी से हो तो अनिवार्यत: अंग्रेज़ी में, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेज़ी में. यानि हिन्दी के प्रयोग का उपदेश दूसरों को. उपदेश देने वाला भी इस हक़ीक़त से वाक़िफ, लेने वाला भी. इतना ही नहीं, हिन्दी के प्रति दिखावटी अनुराग का यह भाव भी क्रमश: फीका पडता जा रहा है. आज़ादी के बाद के कुछ सालों में हिन्दी के प्रति जिस तरह का लगाव नज़र आता था और लोग जिस उत्साह और भावना से हिन्दी के लिए खून-पसीना बहाने की बातें किया करते थे, अब धीरे-धीरे उसका भी लोप होता जा रहा है. अब हिन्दी दिवस महज़ एक गैर-ज़रूरी रस्म अदायगी बन कर रह गया है. राजभाषा  विभाग या उसके अधिकारी  को एक दिन यह ढोल बजाना   है सो जैसे-तैसे बजा दिया जाता है.  स्कूल कॉलेजों में तो शायद अब इस दिन को मनाने की भी कोई खास ज़रूरत महसूस नहीं की जाती. बाज़ार की भी इस दिवस में कोई दिलचस्पी नहीं है. न इस दिन के लिए कोई ग्रीटिंग कार्ड, क्षमा कीजिए, शुभकामना पत्र बेचे जाते हैं, और न लोग ई मेल या एस एम एस से एक दूसरे को इस दिवस की बधाई देते हैं. अगर भूले से कोई बधाई-वधाई दे भी देता है तो उसमें व्यंग्य का भाव ही अधिक होता है.  

निश्चय ही यह स्थिति लाने में सबसे बडी भूमिका हिन्दी वालों की रही है. मुझे लगता है कि हिन्दी का सबसे बडा अहित उसके राजभाषा बन जाने से हुआ. इसे गलत न समझा जाए. राजभाषा किसी न किसी भाषा को बनना ही था. हिन्दी का राजभाषा बनना उचित था. लेकिन गलत यह हुआ कि इसे हिन्दी वालों ने दादागिरी के भाव से ग्रहण किया: सारे देश को अब हिन्दी में काम करना पडेगा. अगर हम लोगों  ने अन्य भाषाओं के प्रति अपनत्व रखा होता, अगर दूसरी भाषाओं को सीखने में ज़रा भी रुचि दिखाई होती तो हिन्दी के प्रति अन्य भाषा-भाषियों में वैसी अरुचि न होती जैसी गाहे-बगाहे प्रकट हो जाती है. आखिर कितने हिन्दी भाषी होंगे जो दक्षिण की भी, बल्कि किसी भी हिन्दीतर प्रदेश की कोई भाषा जानते हैं? प्रभाष जोशी ने ठीक ही कहा है अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों को हिन्दी से तभी ऐतराज़ होता है जब हिन्दी भाषी, भाषा द्वारा सत्ता को संचालित करना चाहते हैं. यानि सत्ता पर सिर्फ हिन्दी का  एकाधिकार देखना अन्य भारतीय भाषी लोग पसन्द नहीं करते. और यहीं यह बात भी याद कर लूं कि पिछले दिनों इंटरनेट  पर इस बात को लेकर बहुत बहस हुई और उत्तेजना का माहौल रहा कि कानून  की निगाह में हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा है. उत्तेजित लोग यह मानने-समझने को  तैयार ही नहीं थे और हैं कि हमारे देश में राष्ट्रभाषा जैसी कोई वैधानिक व्यवस्था है ही नहीं. ठीक उसी तरह जिस तरह राष्ट्रपिता की कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है, या राष्ट्रकवि की कोई आधिकारिक स्थिति नहीं है. वैसे भी ज़्यादातर लोग राष्ट्रभाषा और राष्ट्रभाषा के बीच के अंतर को या तो समझते नहीं या समझना नहीं चाहते. बहुत सारे लोग नासमझी में भी इनका प्रयोग पर्यायवाची के रूप में कर लेते हैं.

दूसरी बात, हिन्दी समर्थक ‘निज भाषा उन्नति’ की केवल बात ही करते हैं, उसे क्रिया रूप में परिणत करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते. आज हिन्दी में अधिकांश  किताबें  300 के संस्करण से आगे नहीं जा पाती, इससे अधिक क्रूर टिप्पणी हमारे भाषा प्रेम पर क्या होगी? बडे-से-बडे शहर में हिन्दी किताबों की दुकान का होना अपवाद ही होगा. यह कहना अर्ध सत्य है कि प्रकाशक या पुस्तक विक्रेता की रुचि किताब बेचने में नहीं है. आखिर वह तो बेचने को बैठा है, आप खरीदने को निकलिये तो सही. लेकिन दस हज़ार का मोबाइल, दो हज़ार का जूता और दो सौ का पिज़्ज़ा खरीदने वाले को दो सौ रुपये की किताब महंगी लगती है. न केवल अधिसंख्य हिन्दी प्रेमी खरीदते नहीं, पढते भी नहीं. वे अपनी कूपमण्डूकता में ही मगन रहते हैं. हिन्दी लेखकों  की स्थिति भी, जो अपने आप को हिन्दी का सबसे बडा पैरोकार मानते हैं, कोई बेहतर नहीं है. हिन्दी का बडा (बल्कि छोटा भी) लेखक किताब खरीदकर पढना अपमान की बात मानता है. अगर आप चाहते हैं कि वह आपकी किताब पढ़े  तो आप उसे भेंट कीजिए. फुरसत होगी तो पढ़ लेंगे. और फुरसत होगी, इसकी ज़्यादउम्मीद कीजिये मत. हिन्दी लेखक अपना लिखा ही नहीं पढता औरों पर क्या कृपा करेगा! कभी कोई इस बात की पड़ताल करे कि हिंदी के लेखक लोग कितनी और कौन-सी किताबें खरीदते हैं, और सामान्यत: वे किताबों पर प्रतिमाह कितना व्यय करते हैं, तो बहुत रोचक नतीज़े सामने आ सकते हैं.

भाषा के प्रति उसका रवैया भी कम अधिनायकवादी नहीं है. वह चाहता है कि सब उससे पूछ कर, जैसी वह कहे वैसी भाषा का प्रयोग करें. इसीलिए कभी वह अखबारों की भाषा पर कुढता है, कभी टी वी की भाषा पर नाक-भौं सिकोडता है. वह खुद चाहे अपने जीवन में चाहे जैसी मिश्रित भाषा बोलता हो, आपसे चाहता है कि आप अपनी भाषा निहायत शुद्ध, परिष्कृत, प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ वगैरह रखें. उसके लिए भाषा पण्डित का चौका है जहां काफी कुछ वर्जित रहता है. मज़े की बात कि यही भाषाविद इस बात पर खूब गर्व करता है कि ऑक्सफॉर्ड डिक्शनरी में इस साल इतने हिन्दी शब्द शामिल हो गए. हां, उसकी भाषा के चौके में अगर एक भी शब्द अंग्रेज़ी का आ गया तो चौका अपवित्र! इस संकुचित-संकीर्ण भाव को रखते हुए बात की जाती है हिन्दी को विश्व भाषा बनाने की. घर में नहीं दाने, अम्मां चली भुनाने!

हम हिन्दी अपनाने की बात तो बहुत करते हैं पर हिन्दी कैसी हो, इस पर कोविमर्श नहीं करते. यह समझा जाना चाहिए कि जब हमारे दैनिक जीवन की भाषा बदली है, यह बदलाव सब जगह दिखाई देगा. जिस भाषा में साहित्य रचा जाता है, वह भाषा आम आदमी की नहीं हो सकती. किसी भी काल में नहीं रही, हालांकि भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा था, ‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख’. वैसे, नई तकनीक के आने से साहित्य की दुनिया में भी आम आदमी और उसकी भाषा की आमद-रफ्त बढी है, इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. कम्प्यूटर और इण्टरनेट के लगातार सुलभ और लोकप्रिय होने से आज हममें से बहुत सारे लोग अपने लिखे के खुद ही प्रकाशक भी हो गए हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है. अब साहित्य कुछ खास लोगों तक सीमित नहीं रह गया है. आज हिन्दी में ही लगभग 3000  ब्लॉग चल रहे हैं. इनमें से अधिकतर की भाषा उस भाषा से बहुत अलग है जिसे आदर्श भाषा के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है. यहां दूसरी भाषाओं से शब्दों की खुली आवाजाही है और व्याकरण के नियमों में भारी शिथिलता है. सारा बल अपनी बात को सीधे-सादे तरीके से कहकर सामने वाले तक पहुंचाने पर, यानि अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण   पर है. दलित साहित्य ने भी भाषा को एक हद तक आज़ाद किया है. इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए.

इधर तकनीक ने भाषा के प्रचार-प्रसार में बहुत बडी भूमिका अदा की है. कम्प्यूटर पर  सारा काम हिन्दी में करना सम्भव हुआ है और बहुत सारे हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को तकनीक के लिए स्वीकार्य बनाने में वह काम किया है जो सरकारों को करना चाहिये था. बालेन्दु दाधीच और रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी ऐसे लोगों में अग्रगण्य हैं.  लेकिन आम हिन्दी लेखक ने तकनीक से एक दूरी ही बना रखी है. नई तकनीक के विरोध में उनके पास अनगिनत तर्क हैं.  ‘मैं कम्प्यूटर नहीं जानता’ इस बात को संकोच से नहीं, गर्व से कहने वाले ‘एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं.’ इस परहेज़ से न उनका भला है न हिन्दी का. सुखद आश्चर्य तो यह कि ऐसे लोगों के बावज़ूद तकनीक की दुनिया में हिन्दी फल-फूल रही है. जैसा मैंने अभी  कहा, कम्प्यूटर पर सारा काम हिंदी  में संभव हो गया है और फेसबुक या ऑर्कुट जैसे मेल-जोल  के ठिकानों पर लोग हिंदी में खूब और धड़ल्ले से संवाद करते हैं.   दर असल पारम्परिक साहित्यकारों से अलग एक नई पीढी इण्टरनेट के माध्यम से साहित्य द्वार पर ज़ोरदार दस्तक दे रही है. इनके भाषा संस्कार भिन्न हैं और अलग है साहित्य को लेकर इनका नज़रिया. नेट पत्रिकाओं और ब्लॉग्ज़ में इनके तेवर अलग से देखे-जाने जा सकते हैं. कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अगले कुछ सालों में ये ही साहित्य की मुख्यधारा का रूप ले लें. आखिर कहां हिन्दी की एक किताब का 300  का संस्करण और कहां नेट की असीमित दुनिया! नेट पर हिंदी प्रेमियों की बढ़ती  जा रही सक्रियता का एक प्रमाण  पिछले दिनों देखने को मिला. नया ज्ञानोदय में छपे विभूतिनारायण राय के साक्षात्कार में प्रयुक्त छिनाल शब्द को लेकर जो भारी शोर-शराबा और विरोध हुआ उसका बहुलांश इंटरनेट पर ही था. मेरे देखे यह हिंदी का पहला बड़ा आंदोलन था जो लगभग पूरी तरह नेट पर चला था.  अपने आप में भले ही यह कोई खुशी की बात न हो कि नेट पर एक आंदोलन चला, इस बात पर तो खुश हुआ ही जाना चाहिए कि हिंदी समाज नेट पर सक्रिय होता जा रहा है.  

हिन्दी फल-फूल बाज़ार में भी रही है. यह वैश्वीकरण का युग है. सबको अपना-अपना माल बेचने की पडी है. शहरों में बेच चुके तो अब कस्बों का रुख किया जा रहा है. और कस्बों की जनता को, बल्कि कहें उपभोक्ता को, तो हिन्दी में ही सम्बोधित किया जा सकता है, सो बाज़ार दौड कर हिन्दी को गले लगा रहा है. यह बात अगर गर्व करने की नहीं है तो स्यापा करने की भी नहीं है. आखिर हिन्दी का प्रसार तो हो ही रहा है. वैसे वैश्वीकरण की भाषा, एक बडे भू भाग में अंग्रेज़ी है, लेकिन भारत में उसने बाज़ार के दबाव में आकर हिन्दी के आगे घुटने टिकाये  हैं. इसी प्रक्रिया में हिन्दी और अंग्रेज़ी के रिश्ते भी पहले की तुलना में अधिक सद्भावपूर्ण बने हैं. ज़रूरत इस बात की है कि आज इन नए बने रिश्तों को समझा जाए और पुरानी शत्रुताओं को भुलाया जाए. आज जो अंग्रेज़ी हमारे चारों तरफ है उसे ब्रिटिश साम्राज्य से जोड कर देखना उचित नहीं. हमें इस नई अंग्रेज़ी के साथ रहना है, इसे स्वीकार कर अपनी भाषा के विकास की रणनीति तैयार की जानी  चाहिए.

आज भाषा और हिन्दी भाषा के प्रश्न पर न तो भावुकता के साथ सही विचार हो सकता है और न अपने अतीत के प्रति अन्ध भक्ति भाव रखते हुए. ऐसा हमने बहुत कर लिया. अब तो ज़रूरत इस बात की है कि बदलते समय की आहटों को सुना जाए और भाषा को तदनुरूप विकसित होने दिया जाए. इसी में हिन्दी का भला है, और हमारा भी.
◙◙◙

6 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

"आज हिन्दी में अधिकांश किताबें 300 के संस्करण से आगे नहीं जा पाती,"

इसके लिए ज़िम्मेदार शायद लेखक ही हैं... अब न कोई निराला है,न पंत, न बच्चन, ... न यशपाल है, न चतुरसेन, न प्रेमचंद... :(

Sunil Kumar said...

कुछ तो काम हुआ है चलिए इसे भी किसी तरह निभा लेते है

Dr. Sanjay Purohit said...

A thought provoking article....Great.
Very true. Aapne Hindi ko lekar ek nayee bahas ki shuruaat ki hai. HINDI Diwas ki shubhkaamnaaye.

Rahul Singh said...

हम में से अधिकतर, बच्‍चों के सिर्फ अंगरेजी ज्ञान से संतुष्‍ट नहीं होते बल्कि उसकी फर्राटा अंगरेजी पर पहले चमत्‍कृत फिर गौरवान्वित होते हैं. चैत-बैसाख की कौन कहे हफ्ते के सात दिनों के नाम और 1 से 100 तक की क्‍या 20 तक की गिनती पूछने पर बच्‍चा कहता है, क्‍या पापा..., पत्‍नी कहती है आप भी तो... और हम अपनी 'दकियानूसी' पर झेंप जाते हैं. आगे क्‍या कहूं.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बिल्कुल खरी खरी बातें सामने रखी हैं आपने......
हिंदी की यह स्थिति किसी एक कारण से नहीं है.....
जानकारी परक विश्लेषण ....

Manish Kumar said...

बहुत बढ़िया लेख लिखा है आपने।
साहित्यिक भाषा आम भाषा नहीं हो सकती सही कहा आपने पर मेरी ये सोच है कि हिंदी का विकास ना तो हिंगलिश से हो सकता है ना ही साहित्यिक हिंदी से। अगर हिंगलिश लेखन जैसे INext को ही आज की भाषा मान लिया गया तो जो रहे शब्द आम बोल चाल में हम प्रयोग करते हैं वो भी भूलते जाएँगे और एक तरह से इस भाषा की आत्मा में ही सेंध लगा देंगे।
हिंदी के विकास के लिए वैसे लेखन की आवश्यकता है जो सहज सरल हो और शुद्ध भी हो। अब इसी लेख में देखिए आपने कितनी सहज भाषा में अपनी बातें रखी हैं। इस तरह का अनवरत लेखन आवश्यक है।