Sunday, September 21, 2008

व्यवस्था का सच

कल्पना कीजिए एक ऐसे देश की जहां यह सोचना तक अपराध माना जाए कि कोई अपराध हुआ है. और फिर भी अगर आप ऐसा सोच लें तो उसे देश के प्रति काबिले-सज़ा अपराध मान लिया जाए और आपको या तो किसी दूरस्थ दुर्गम प्रदेश में सश्रम कारावास दे दिया जाए या फिर बिना सुनवाई के ही खत्म कर दिया जाए. एक ऐसा देश जहां आपके पडौसी ही आपको देशद्रोही घोषित कर सकते हों या पुलिस बिना किसी वजह के आपके घर की तलाशी ले सकती हो. ऐसा देश जहां कोई भी, आपका अपना परिवार तक, भरोसे के काबिल न हो. कहां है ऐसा देश? ऐसा देश है 28 वर्षीय लन्दन निवासी लेखक टॉम रॉब स्मिथ के हाल ही में प्रकाशित और बहुचर्चित उपन्यास चाइल्ड 44 में.

विज्ञान कथा लेखक जेफ नून की एक कहानी का रूपांतर करते हुए 28 वर्षीय टॉम रॉब स्मिथ का सामना एक रूसी सीरियल किलर आन्द्रेई चिकातिलो के वृत्तांत से हुआ. चिकातिलो ने 50 से ज़्यादा औरतों और बच्चों की हत्या की थी. 1944 में उसे फांसी हुई. इस वृत्तांत ने स्मिथ को पचास के दशक के स्टालिन कालीन सोवियत रूस के जीवन पर आधारित यह उपन्यास लिखने को प्रेरित किया. बकौल स्मिथ, यह उपन्यास उनके तीन उपन्यासों की श्रंखला में पहला है. इन दिनों वे इस श्रंखला के दूसरे उपन्यास पर काम कर रहे हैं.

उपन्यास चाइल्ड 44 की कथा का केन्द्रीय चरित्र है एम जी बी (रूसी गुप्तचर संस्था) का एक अफसर लियो स्टेपानोविच. लियो अपनी सरकार और उसकी नीतियों में शत प्रतिशत विश्वास रखता है. सरकार जिस किस्म की अन्धी वफादारी अपने नागरिकों से चाहती है, उसमें उसे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन, स्टालिन कालीन रूस में होता यह है कि शिकारी खुद ही शिकार हो जाता है. अफसर लियो को इन अफवाहों का खात्मा करने का आदेश मिलता है कि उसके एक जूनियर सहकर्मी फ्योदोर के चार वर्षीय बेटे की हत्या हुई है. इस मृत्यु के बारे में सरकारी रिपोर्ट में कहा गया था कि यह रेल की पटरियों पर हुई एक सामान्य दुर्घटना है, जबकि इस रिपोर्ट पर न फ्योदोर को भरोसा था न उनके पडौसियों को. उनका मानना था कि बालक के शव को रेल की पटरियों पर डालने से पहले उस पर नृशंस प्रहार किए गए थे. अफसर लियो, तत्कालीन सरकार की ही तरह, मानता है कि श्रमिकों के उस स्वर्णिम स्वर्ग में, जहां कि हर नागरिक को उसकी ज़रूरत की हर चीज़ सुलभ है, अपराध जैसी कोई चीज़ बची ही नहीं है. अगर कुछ बचा है तो वह है बाहर की दुनिया के भ्रष्टों के हमले. तो, सरकार का वफादार लियो अपनी ड्यूटी निबाहता हुआ फ्योदोर को सरकारी रिपोर्ट पर सन्देह करने के खतरों से आगाह करता है. जैसा उस समय का माहौल था, फ्योदोर चुप हो जाता है, लेकिन उसके मन में लियो के प्रति एक गांठ ज़रूर पड़ जाती है. एक दूसरे प्रकरण में, जब लियो की की हुई जांच और उसका निर्णय सन्देह के घेरे में आता है तो फ्योदोर को बदला लेने का मौका मिल जाता है.
कथा आगे बढती है. वह तर्क जो अब तक लियो दूसरों पर लागू करता रहा है, कि जो व्यक्ति किसी भी बात पर सन्देह करता है, वह स्वयं सन्दिग्ध होता है, दमनकारी शासन द्वारा खुद उस पर चस्पां कर दिया जाता है. उसकी निष्ठा की परख के लिए उसे आदेश दिया जाता है कि वह वह अपनी ही पत्नी रईसा की जासूसी करे. जांच की उलझन को भला लियो से ज़्यादा कौन समझ सकता है! अगर उसने यह कहा कि रईसा देश की वफादार नागरिक है तो वह खुद सन्देह के घेरे में आ जाएगा. उलझन का अंत होता है, स्टालिन की मौत से. उसके अनुचरों की अनिश्चित स्थिति इस दम्पती को बहुत हलके-से दण्ड के साथ भाग छूटने का मौका देती है. लियो को पदावनत करके एक उजाड शहर में भेज दिया जाता है. यह क्या कम है कि उसे अपने प्राणों से हाथ न धोना पड़ा. लेकिन जो ज़िन्दगी उसे और उसकी पत्नी को मिलती है वह भी कम त्रासद नहीं है. अब धीरे-धीरे उस पर यह राज़ खुलता है कि अब तक वो जो मानता रहा है वह मिथ्या था. उसका काम कानून का निर्वाह कराने का था ही नहीं. वहीं उसे अनेक अपराधों और अपराधियों का पता चलता है. लेकिन तब भी, यह कहना कि अपराधी विद्यमान हैं, मुमकिन नहीं क्योंकि तब भी यही माना जाता था कि अपराधी तो पतनशील पूंजीवादी व्यवस्था में ही होते हैं, श्रमिकों के स्वर्ग में नहीं.
इसके बाद कथाकार इस दम्पती को असल हत्यारे की तलाश में लगा देता है और यहीं से उपन्यास एक थ्रिलर की गति पकड़ता है.
पूरा उपन्यास उस व्यवस्था की विसंगतियां उभारता है जिसका मानना है कि सन्दिग्ध को इतना सताओ कि वह अपना अपराध कुबूल कर ले. यह इसी व्यवस्था की विसंगति है कि असल अपराधी बच निकलते हैं. कथानायक लियो इस विसंगति से वाक़िफ होने के बाद जैसे प्रायश्चित स्वरूप कुछ बेहतर करना चाहता है, और इसमें बेशक उसे पाठकों की पूरी हमदर्दी हासिल होती है.
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Discussed book:
Child 44
A novel by Tom Rob Smith
Published by: Grand Central Publishing
448 pages Hardcove.
US $ 24.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' में 21 सितम्बर, 2008 को प्रकाशित आलेख का असम्पादित रूप.









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2 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

निष्‍कर्ष तो प्रत्‍येक राष्‍ट्र में घटित घटनाओं के तो यही निकल कर आते हैं, पर हम क्‍या कोई भी कहां इनसे बच पाता है।

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा विश्लेषण!!