Friday, December 7, 2007

शरद देवडा नहीं रहे.

हम कैसे स्मृति विहीन समय में रह रहे हैं. जो लोग कुछ समय पहले तक हमारी ज़िन्दगी के केन्द्र में थे, आज वे हाशिये पर भी नहीं हैं.
मुझे अच्छे तरह याद है कि जब साठ के दशक में मैं कॉलेज का विद्यार्थी था, शरद देवडा का नाम मन में कितना उद्वेलन पैदा करता था. उनके उपन्यास कॉलेज स्ट्रीट के नए मसीहा के माध्यम से मैंने और मेरी पीढी ने बीटनीक जनरेशन का ककहरा पढा था. उन्हीं के एक और उपन्यास 'टूटती इकाइयां' को पढा तो यह समझा कि कथा में प्रयोग करना किसे कहते हैं. वे ज्ञानोदय के सम्पादक रहे, और आज की पीढी को यह बताना ज़रूरी है कि उस ज़माने में ज्ञानोदय का मतलब था साहित्य का शीर्ष. फिर अणिमा निकाली और खूब धूम धाम से निकाली.
प्रयोग करने की उनकी लालसा कभी चुकी नहीं. आकाश एक आपबीती और प्रेमी प्रेमिका सम्वाद में भी उन्होंने भरपूर प्रयोग किए. कभी कभी लगता है कि वे अपने समय से कुछ आगे के रचनाकार थे. आगे होते- होते वे आज 7 दिसम्बर 07 को जयपुर में इस दुनिया से ही कूच कर गए.

हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि.

7 comments:

manglam said...

धन्यवाद डॉक्टर साहब, बहुत ही कम शब्दों में महान साहित्यकार शरद देवड़ा के व्यक्तित्व व कृतित्व से परिचित कराने के लिए। जयपुर सहित सभी ब्लॉगर बंधुओं की ओर से स्व. देवड़ा को सादर श्रद्धांजलि।

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

दुर्गाप्रसाद जी,
शरद जी सचमुच साहित्य के ही उपासक थे, जितनी जिन्दगी जी, साहित्य के नाम ही जी। उनसे बहुत कम मुलाकातें थीं, लेकिन जितनी थीं वो उनको और उनकी पुस्तकों को जानने के लिए बहुत थीं। पर जितना एक्सपोजर उनकी लेखनी को मिलना चाहिए था वो मिल नहीं सका। इसका दुख हमेशा रहेगा।
नीलिमा

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

नीलिमा जी, आपने ठीक ही लिखा है कि शरद देवडा ने जितनी भी ज़िन्दगी जी, साहित्य के नाम जी. मुझे ऐसा लगता है कि वह पीढी जो अपने प्रिय किसी कर्म के लिए एक जुनूनी भाव रखती थी, अब लुप्त हो चली है. राजस्थान के ही एक अन्य कवि-पत्रकार स्वर्गीय प्रकाश जैन (लहर -अजमेर) भी ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे. एक और नाम याद आता है, और जो सौभाग्य से हमारे बीच है - हरीश भादानी. अन्य विधाओं में भी ऐसे लोग रहे हैं. विचारणीय यहाँ है कि बाद की पीढी ऐसे जुनूनी लोगों से विहीन क्यों होती जा रही है?

abhishek said...

स्व. शरद जी को मेरी भी श्रद्धांजलि, पर जो बात नीलिमा जी ने कही और आपने उसी को आगे बढ़ाया कि क्यों साहित्य की इस पीढ़ी को पर्याप्त सम्मान नहीं मिल पाया तो मेरा तो इतना ही कहना है कि, साहित्य की इस पीढ़ी में कुछ लोग ऐसे भी घुस पैठ कर गए हैं जो केवल जोड़तोड़ से काम चलाना जानते हैं। जोड़तोड़ ही उनका साहित्य है। और इसके चक्कर में वे गुटबंदी को प्रश्रय दे बैठते हैं, या यूं कहें कि गुटबंदी का सहारा लेते हैं, हम तीनों ही ऐसी गुटबंदियों को भलीभांति जानते हैं। शायद इसी कारण साहित्य गुटों की सीमा बंध कर सच्चा सम्मान पाने की बजाय गुट विशेष का सम्मान पा कर रह जाता है।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...
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himanshu said...

aadarniya sir,
aapaka blog dekha aur patrika bhee.taazaa ank nahin dekh paya,kuchh purane ank dekhe.
roman script ke liye maafee chaahataa hoon,hindi toolkit ka istamaal nahin aataa,jaldee hee seekh loongaa.

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

धन्यवाद हिमांशु जी.
आप कृपय़ा समय निकाल कर इन्द्रधनुष इण्डिया का नया अंक भी देखें और अपनी बेबाक प्रतिक्रिया से मुझे उपकृत करें. लिपि को लेकर संकोच महसूस न करें. यह तो अपनी अपनी सुविधा का मामला है.