Sunday, May 19, 2024

कितने कमरे!


 जब मुझसे यह आग्रह किया गया कि मैं अपने पढ़ने लिखने के कमरे में बारे में कुछ लिखूं तो मैं सोच में पड़ गया. लगभग 35 साल की सरकारी नौकरी में अनेक घर बदले और स्वाभाविक ही है कि घर बदलने के साथ पढ़ने-लिखने के कमरे भी बदले. बेशक अब लगभग दो दशक से अपने घर में हूं और मानता हूं कि स्थायी रूप से हूं, लेकिन इससे पहले तो थोड़े-थोड़े अंतराल पर कमरे बदलते ही रहे हैं, तो मुझे किस कमरे की बात करनी चाहिए, या क्या सारे कमरों की बातें करनी चाहिएं? लेकिन इन सब कमरों की बात करूं भी तो शुरुआत तो वहीं से करनी होगी, जहां से वाकई पढ़ने-लिखने की शुरुआत हुई! और रोचक बात यह कि जहां से यह शुरुआत हुई वहां कमरा जैसी कोई चीज़ थी ही नहीं.

 

मुझे बात  को थोड़ा और खोल कर कहना चाहिए. 


मेरा  जन्म और किशोरावस्था बल्कि युवावस्था के आरम्भ तक का सारा जीवन उदयपुर में बीता है. मेरा संबंध एक व्यापारी परिवार से था अत: घर में पढ़ने-लिखने का कोई माहौल नहीं था. शहर के बीचों बीच एक तिमंज़िला मकान में मैं अपने मां-बाप के साथ रहता था. मैं उनकी एकमात्र जीवित संतान था. मकान किराए  का था और मुझे अब भी यह बात स्मरण है कि उसका किराया ` 35/- माहवार था. जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था तब लम्बी बीमारी के बाद मेरे पिता का निधन हो गया. उसके बाद मां ने अपने कुछ ज़ेवर वगैरह बेच कर और कुछ कर्ज़ा लेकर उस घर को ग्यारह हज़ार रुपये में खरीदा - ताकि सर पर एक छत तो रहे. उस मकान की रजिस्ट्री मेरे नाम पर हुई और इस तरह अल्प वय में ही मैं उस मकान का विधिवत स्वामी बन गया. उस तिमंज़िला इमारत के भूतल पर हमारी दुकान थी, पहले तल पर दो कमरे और उनके सामने एक बरामदा था. इस तल  का कोई ख़ास उपयोग नहीं होता था. दूसरे तल पर फिर दो कमरे और एक बरामदा और आगे एक बालकनी थी. असल में यही हमारा लिविंग एरिया था. एक कमरा हमारा शयन कक्ष था, दूसरे कमरे में एक कोना मुझे मिला हुआ था जिसमें एक टेबल कुर्सी थी और दो आले जिनमें मेरी कुछ किताबें  रहती थीं. यह एक अंधेरा-सा कमरा था. कोई खिड़की या वेण्टीलेशन इसमें नहीं था. यहीं एक रेडियो भी हुआ करता था जिसे सुनते हुए मैं पढ़ाई जैसा कुछ करने की कोशिश  करता था. पुराने ज़माने का वाल्व वाला रेडियो था, जिसे मैं कभी बाहर बरामदे में रख कर सुनता, कभी छत पर ले जाता....इसी तल पर एक खुली-खुली सी बालकनी भी थी जिसमें खूब बड़े तीन झरोखे जैसे थे और जिनसे खूब प्रकाश मिलता था. वहां से नीचे  के बाज़ार की सारी हलचल नज़र आती थी.  इसी बालकनी का एक कोना लम्बे समय तक मेरा पढ़ाई का 'कमरा' रहा. यह चर्चा आगे चलकर करूंगा. मकान की तीसरी मंज़िल एक खुली छत थी और उसी छत पर एक टिन शेड वाला कमरा था जिसे मेरी  मां बतौर रसोई काम में लेती थी. वही हमारा डाइनिंग रूम भी था. तब खड़े होकर खाना बनाने का या डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाने का चलन नहीं हुआ था. तब तक स्टोव भी अधिक चलन में नहीं आए थे,  कोयले या लकड़ी जलाकर खाना बनाया जाता था और रसोई में ज़मीन  पर बैठकर ही खा लिया जाता था.

 

तो स्कूली शिक्षा के दौरान यही अंधेरा-सा कमरा मेरा पढ़ाई का कमरा भी रहा. इस कमरे में बड़ा पुराना एक पलंग रखा रहता था, घर के बिस्तर भी इसी   कमरे में जमा कर रखे जाते थे और रात को सोते समय उन्हें बिछा लिया जाता था. पलंग पर कोई बिस्तर बिछा नहीं रहता था. असल में वह ज़माना आज से अलहदा था. तब बेडरूम जैसी कोई परिकल्पना चलन में नहीं थी, कम से कम हम जैसों के यहां तो नहीं थी. मैं पढ़ाई में बस सामान्य-सा ही था, इसलिए ऐसी कोई ख़ास बात याद नहीं आ रही जिसका ज़िक्र करूं. हां, एक बात ज़रूर बताने काबिल है. उन दिनों मुझे एक अजीब शौक लगा था. शौक यह था कि बड़े लोगों को खासकर राजनेताओं को उनके जन्म दिन, निर्वाचन, पद ग्रहण आदि के अवसर पर बधाई के पत्र लिखा करता था. मैं पत्र लिख कर डाक में डालता और  कुछ दिनों बाद मेरे घर के पते पर 'भारत सरकार की सेवार्थवाला सर्विस स्टाम्प लगा लिफाफा आता, जिसमें वे बड़े लोग मेरे प्रति आभार व्यक्त करते. पत्र सामान्यत: टंकित होता लेकिन उस पर हस्ताक्षर वास्तविक होते. औरों की तो छोड़िये, प्रधानमंत्री के यहां से भी उनके हस्ताक्षर वाले पत्र आते. अलबत्ता राष्ट्रपति के यहां से जो पत्र आते उनमें उनके सचिव के हस्ताक्षर होते. उसी दौर में जब अमरीका में जॉन एफ कैनेडी राष्ट्रपति बने तो एक बधाई पत्र उन्हें भी भेज दिया  और उनके यहां से भी उनकी तस्वीर वाला धन्यवाद पत्र आया. कभी-कभार किसी फिल्मी कलाकार को भी ऐसा ही पत्र लिख देता और उनके यहां से उनके हस्ताक्षर वाले पत्र की बजाय उनका एक फोटो आता जिस पर उनके हस्ताक्षर होते. ऐसे कोई चार पांच सौ पत्रों का पुलिंदा मेरे पास था, जो बाद में कहीं इधर उधर हो गया. अब उनमें से एक भी पत्र मेरे पास नहीं है. लेकिन क्या तो वह ज़माना था जब नेतागण पत्रों के जवाब दिया करते थे, और क्या ज़माना था जब मुझ जैसा सामान्य स्कूली विद्यार्थी उन्हें पत्र लिखता था. क्या आज के विद्यार्थी भी ऐसा कोई शौक पालते हैं

 

जब मैं स्कूली शिक्षा पूरी करके  कॉलेज में आया तो कुछ ज़्यादा पढ़ाई की ज़रूरत होने लगी और वह अंधेरा-सा कमरा मुझे पढ़ाई के लिए अनुपयुक्त लगने लगा. तब मैंने उस बालकनी के एक कोने को अपना पढ़ाई का 'कमरा' बनाया. असल में वह कमरा था ही नहीं. लेकिन उस कोने में मैंने अपनी वही पुरानी टेबल कुर्सी लगा ली और वहीं बैठ कर बाज़ार की रौनक देखते हुए, बाज़ार की आवाज़ें सुनते हुए पढ़ाई करने लगा. वह सुरक्षा के ताम-झाम से बहुत पहले का समय था अत: अपनी उसी बालकनी से मैंने पण्डित जवाहर लाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी को भी गुज़रते हुए देखा है. असल में मेरा वह घर राजमहल को जाने वाली सड़क पर स्थित था और जो भी बड़ा व्यक्ति उदयपुर में आता वह राजमहल भी ज़रूर जाता. इसलिए मुझे इन महान शख्सियतों  को अपनी बालकनी से देखने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा.  बाद मैं जैसे-तैसे पैसों का जुगाड़ कर एक सस्ता-सा टेबल लैम्प भी खरीदकर भी मैंने उस टेबल पर रख लिया. इस बालकनी वाले तथाकथित कमरे में ही बैठकर मैंने अपनी बीए और एमए की पढ़ाई की. किताबें खरीदने की अपनी हैसियत थी नहीं, शहर की दो लाइब्रेरियों और अपने कॉलेज की लाइब्रेरी  और ख़ास तौर पर एमए की पढ़ाई के दिनों में अपने गुरुजन के घरों से जो किताबें लाता उन्हें कमरे में आलों में रखता और ज़रूरत के मुताबिक एक या दो किताबें टेबल पर रखकर उन्हें पढ़ता.  एमए की परीक्षा देने के बाद मैंने अपने एक ही गुरू जी को उनकी लगभग छह सात सौ किताबें लौटाई थीं. 

 

एमए पास करते ही 1967 में मुझे राजस्थान सरकार के कॉलेज शिक्षा विभाग में प्राध्यापक हिंदी की नौकरी मिल गई और मेरा गृह नगर मुझसे छूट  गया. लगभग 35 बरसों की नौकरी में मुझे कभी भी उदयपुर में पदस्थापित होने का अवसर नहीं मिला और संयोग कुछ ऐसा बना कि नौकरी से रिटायर होने के बाद भी मैं उदयपुर नहीं जाकर जयपुर में बस गया. तो उदयपुर का वह तथाकथित पढ़ाई का कमरा मुझसे छूट गया (बरसों बाद वह घर भी मैंने बेच दिया, और उसके कुछ बरस बाद उसके नए खरीददार ने उसे भूमिगत करवा कर नई तरह से बनवा लिया. और इस तरह मेरा वह कमरा सदा-सदा के लिए लुप्त हो गया! इति प्रथम कमरा कथा! 

 

नौकरी के शुरुआती बरसों में, जब तक मेरा विवाह नहीं हुआ, प्राय: एक कमरा लेकर रहा, अत: वही कमरा ड्राइंग रूम-बेडरूम स्टडी रूम सब कुछ रहा. भीनमाल और चित्तौड़गढ़ में कुल मिलाकर ऐसे तीन कमरे मेरा निवास स्थान बने. पहली बार अलग से पढ़ाई का कमरा मुझे मयस्सर हुआ चित्तौड़गढ़ में जहां मुझे एक बहुत बड़ा सरकारी बंगला अलॉट हुआ. वहां जगह खूब थी, सामान कम था. किताबें और भी कम. लेकिन नौकरी लग जाने से इतनी सुविधा हो गई थी कि हर माह एक दो किताबें खरीद लेता था. वहां किताबों कोई दुकान तो नहीं थी और न तब तक ई कॉमर्स  साइट्स चलन में आई थीं. मैंने वहां ज़्यादा किताबें रेल्वे स्टेशन के बुक स्टॉल से खरीदीं.  उन्हीं दिनो सीमोन द बुवा की द सेकण्ड सेक्स भी खरीदी, जो अब तक मेरे पास है. तो ये किताबें मेरे कमरे की शोभा बढ़ातीं. और हां, जब मैंने एमए पास किया और उसमें मुझे स्वर्ण पदक मिला तो उस समय के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की एक नीति की वजह से हमें स्वर्ण पदक की बजाय (शायद) छह सौ रुपये की किताबें दी गई थीं और उन किताबों में से हरेक पर इस आशय की एक चिप्पी लगी हुई थी कि स्वर्ण पदक के बदले यह किताब अमुक को दी गई है. अच्छी बात यह थी कि किताबों की सूची हमसे मांगी गई थी और मुझे अपनी मनचाही किताबें मिली थीं. वे किताबें भी मेरे कमरे में रहती थीं, और मेरे खूब काम भी आती थीं. इस तरह किताबें ही मेरा स्वर्ण पदक बनीं, और उनमें से अधिकांश अब भी मेरे पास हैं.  उस ज़माने में अमरीकी दूतावास भी बहुत सारी किताबें निशुल्क भेजा करता था. मैं जब जयपुर आता तो पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से रूसी किताबें भी ज़रूर खरीद कर ले जाता. तब तक वैचारिक रूप से मैं बहुत सजग नहीं था. उन किताबों को खरीदने का एक बड़ा कारण उनका सस्ता और आकर्षक होना भी हुआ करता था. 

 

अपनी नौकरी के प्रारम्भ से ही मेरे पास  जेके का एक पोर्टेबल टाइपराइटर था और मैंने अपनी पूरी नौकरी के साढ़े तीन दशकों में उसका भरपूर इस्तेमाल किया है. अपने लेख समीक्षा आदि तो मैं स्वयं उस पर टाइप करता ही था, व्यक्तिगत पत्र, यहां तक की पोस्टकार्ड भी उसी पर टाइप करके भेजता. असल में मुझे लिखने में सुरुचि का जुनून-सा रहा है. अच्छी स्टेशनरी पर सुरुचिपूर्वक लिखना-टाइप करना मुझे बहुत प्रिय रहा है और इस बात को लेकर कई दोस्तों ने मेरी सराहना भी की है. जहां-जहां भी रहा, यह टाइपराइटर मेरा लेखन-सहयोगी रहा. मेरे पास अपने लिखने-पढ़ने का बहुत समृद्ध कमरा कभी भी नहीं रहा, लेकिन ज़रूरी सुविधाएं हमेशा मेरे पास रही. एक टेबल, एक ठीक-ठाक  कुर्सी, एक टेबल लैम्प, टाइपराइटर, स्टेशनरी का खूब सारा सामान, बढ़िया कागज़, अच्छा लैटरहेड, बढ़िया लिफ़ाफे, पर्याप्त डाक टिकिट ये सब मेरे पास खूब रहे. एक बार मेरे एक मित्र ने जो दूसरे शहर में रहते थे, टिप्पणी की थी कि आपके पत्रों को देखकर लगता है कि आपकी राइटिंग टेबल खूब सजी-धजी और भरपूर होगी. 

 

अपनी नौकरी के दौरान मैं क्रमश: भीनमाल, चित्तौड़गढ़, सिरोही, कोटपूतली, आबू रोड और जालोर में रहा. ये सभी राजस्थान के छोटे कस्बे  हैं. भले ही मेरे पास स्वतंत्र लिखने-पढ़ने का कमरा इनमें से किसी भी जगह नहीं रहा, इतना अभाव भी नहीं रहा कि लिखने-पढ़ने में कोई असुविधा हो. सबसे ज़्यादा समय, लगभग 25 बरस मैंने सिरोही में बिताया और वहां मेरे पास मात्र दो कमरों का एक छोटा-सा किराए का घर था. उसमें से एक कमरे में मैंने अपनी लिखने-पढ़ने की टेबल लगा रखी थी. यह टेबल एक बड़ी खिड़की से सटी हुई थी अत: वहां स्वाभाविक उजाला रहता था.  टेबल के पास बांस की बनी एक पुस्तक रैक थी और जब किताबें उस रैक में नहीं समातीं तो उसी कमरे में लगी  एक अलमारी में रख देता. मेरे सिरोही कॉलेज की लाइब्रेरी बहुत बढ़िया थी और वहां के ज़िला पुस्तकालय- सारणेश्वर लाइब्रेरी से भी मुझे खूब किताबें मिल जाती थीं, अत: वहां पढ़ने का खूब बढ़िया मौका मुझे मिला. इस कमरे की चर्चा का समापन करते हुए दो-तीन छोटी-छोटी बातें और. एक तो यह कि यह कमरा एक्सलूसिवली मेरे पढ़ने लिखने का कमरा नहीं था. जब बाहर  पढ़ने चले गए बच्चे घर आते तो यह उनका शयन  कक्ष बन जाता, जब कोई मेहमान आता तो यह कमरा उनके  सोने-बैठने के काम आने लगता, जब किसी को औपचारिक रूप से खाना खिलाना होता तो इसी कमरे को डाइनिंग रूम की हैसियत बख़्श दी जाती और सबसे बड़ी बात यह कि जब बाहर से कोई लेखक सिरोही आता तो उसके सम्मान में छोटी मोटी गोष्ठी भी इसी कमरे में कर दी जाती.  यह इस कमरे का सौभाग्य रहा कि कम से कम राजस्थान के तो लगभग सारे ही नामी लेखकों की चरण धूलि यहां पड़ी. स्वयं प्रकाश, जिनसे मेरी बहुत गहरी दोस्ती रही, ने न जाने कितनी बार इस कमरे में  अपनी रचनाएं मेरे दोस्तों को सुनाईं! 

 

सिरोही के बाद मैं जिन भी जगहों पर रहा, ज़्यादा समय के लिए नहीं रहा. एक अपवाद आबू रोड है जहां मैं करीब दो बरस रहा और संयोग से मुझे बहुत सुंदर घर भी वहां मिल गया. वहां मेरे पास पढ़ने-लिखने का कमरा तो रहा, लेकिन क्योंकि तब तक मैं प्राचार्य बन गया था, पढ़ने-लिखने का समय मुझे कम मिलने लगा, इसलिए कमरा तो रहा, उसका अधिक उपयोग नहीं हुआ. प्राचार्य के रूप में मुझे जालोर में और उससे पहले सिरोही में खूब अच्छे सरकारी बंगले मिले, लेकिन दोनों जगहों पर भी मैं  अधिक समय नहीं रह सका, इसलिए उन बंगलों के पढ़ने-लिखने के कमरों की कोई खास स्मृतियां नहीं हैं. 

 

अपनी नौकरी के आखिरी चरण में जब मैं जयपुर आया तो यहां मुझे सरकारी ट्रांज़िट हॉस्टल में रहना पड़ा. वह एक छोटा-सा, काम चलाऊ आवास था. मैं अपना सामान भी सिरोही से लेकर नहीं आया था और मेरी नौकरी बहुत व्यस्तता वाली थी अत: यहां पढ़ने-लिखने का कोई ख़ास अवसर मुझे नहीं मिला. इसके बावज़ूद मैंने पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह की एक किताब का अनुवाद इसी हॉस्टल में रहते हुए किया, और अब आश्चर्य होता है कि कैसे किया! सेवा निवृत्त होने के बाद हम इस हॉस्टल से सीधे अपने घर में आए और यहां मुझे बाकायदा एक पढ़ने का कमरा मयस्सर हुआ. घर हमारा ज़्यादा बड़ा नहीं है, लेकिन दो जन के लिए छोटा भी नहीं है.  एक कमरा बाकायदा मेरा अध्ययन कक्ष है जिसमें दो स्टील की अलमारियां किताबों से ठसाठस भरी हैं और बहुत सारी किताबें कमरे में इधर उधर रखी हैं. इसी कमरे से जुटा एक छोटा-सा स्टोर रूम है, उसमें भी मैं अपनी किताबें ठूंसता रहता हूं. जितनी  किताबें हैं उनकी तुलना में जगह कम है. किताबें हैं कि उनका कुनबा बढ़ता ही जाता है. दोस्तों से किताबें मिलती रहती हैं, समीक्षार्थ किताबें आती रहती हैं और हर बार यह संकल्प करने के बावज़ूद कि अब और किताबें नहीं खरीदूंगा हर माह चार पांच किताबें तो खरीद ही लेता हूं. ई कॉमर्स ने किताबें खरीदना बहुत आसान कर दिया है. उनके लिए जगह बनाने के लिए समय-समय पर किताबों की  छंटनी करके किसी  न किसी सार्वजनिक पुस्तकालय को भेंट करता रहता हूं. उम्र के इस मुकाम पर पहुंच कर बहुत ज़्यादा  किताबें इकट्ठी करने का भी मोह नहीं है. बल्कि कोशिश करता हूं कि उनकी छंटनी  होती रहे और केवल वे ही किताबें घर में रहें जिनका रहना बहुत ज़रूरी है. बहुत सारी किताबों को अलविदा इसलिए भी कह दिया है कि उनके ई संस्करण अब मेरे किण्डल पर मौज़ूद हैं. हज़ारों किताबों की पीडीएफ मेरे कम्प्यूटर में हैं. बल्कि उनके लिए एक अलग हार्ड डिस्क खरीद रखी है. एक अच्छी टेबल  और कुर्सी है, पुराने मैन्युअल टाइपराइटर को कभी का अलविदा कह चुका हूं. लिखने का सारा काम अपने कम्प्यूटर पर करता हूं. हालांकि चिट्ठियां अब बहुत कम लिखता हूं, स्टेशनरी का मेरा शौक बरकरार है. हां, इस टेबल पर मेरा साथ गूगल का एआई  आधारित उपकरण एको डॉट देता है जिस पर मैं पढ़ने लिखने के पूरे समय शास्त्रीय वाद्य संगीत चलाकर रखता हूं. असल में मुझे पढ़ते लिखते समय संगीत का साथ बहुत ज़रूरी लगता है. इसके बग़ैर मैं एकाग्र हो ही नहीं पाता हूं.

 

मेरा यही कमरा कोरोना काल में मेरे बहुत सारे सजीव प्रसारण आदि के लिए स्टूडियो भी बना और अब भी यू ट्यूब के अपने पाक्षिक कार्यक्रम डियर साहित्यकार के लिए मैं यही से अपने अतिथि साहित्यकारों से संवाद करता हूं. अगर मन होता है तो इसी कमरे की अपनी पढ़ने-लिखने की टेबल पर मैं लैपटॉप पर कोई फ़िल्म वगैरह भी देख लेता हूं. मेरा लैपटॉप एक बड़े स्क्रीन से जुडा हुआ है अत: उस पर फिल्म देखना सुविधाजनक व सुखद रहता है.

 

तो यह था मेरा कमरा पुराण!

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