Monday, June 20, 2011

दान सिंह जी: स्मृति उस दोपहर की



कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई एक रचना रचनाकार के समस्त कृतित्व पर छा जाती है. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी से पहले ‘उसने कहा था’ याद आने लगती है और भगवतीचरण वर्मा से पहले ‘चित्रलेखा’. हरिवंश राय बच्चन से पहले ‘मधुशाला’ कानों में गूंजने लगती हैं तो भीमसेन जोशी से पहले ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ का ध्यान आने लगता है. और यह क़तई ज़रूरी नहीं कि जो एक रचना हमें बेसाख्ता याद आती है वह उस कृतिकार की श्रेष्ठतम रचना ही हो. लेकिन तमाम समझ के बावज़ूद ऐसा होता है. और ऐसा ही हुआ दान सिंह के साथ भी. अपनी तरह के अनूठे और खुद्दार इस संगीतकार ने बहुत सारी उम्दा धुनें बनाईं लेकिन फिल्म माई लव का मुकेश का गाया गाना ‘ज़िक्र होता है जब कयामत का/तेरे जलवों की बात होती है’ उनके नाम का पर्याय ही बन बैठा. निस्संदेह यह एक बेहतरीन कम्पोजीशन है लेकिन संगीत के पारखियों का ऐसा मानना है कि दान सिंह जी ने इससे बेहतर बहुत सारी धुनें बनाई हैं.

मेरे मन में भी दान सिंह ‘ज़िक्र होता है’ के अप्रतिम संगीतकार के रूप में ही स्थापित थे. जब जयपुर आ बसा और यह पता चला कि वे भी जयपुर में ही रहते हैं तो स्वाभाविक है कि उनसे मिलने और बतियाने की इच्छा मन में अंगड़ाई लेने लगी. लेकिन न तो कभी किसी आयोजन में उनके दर्शन हुए और न ही कभी किसी से यह पता चला कि वे कहां रहते हैं. ज़ाहिर है कि दान सिंह जी आज के बहुत सारे हाई प्रोफाइल और कुशल मीडिया प्रबंधक लोगों में से नहीं थे. यह बताने की ज़रूरत नहीं कि आजकल तो लोग बहुत सामान्य प्रतिभा के धनी होते हुए भी कुशल मीडिया प्रबंधन के दम पर अपनी महान छवि निर्मित करवा लेते हैं. उनसे मिलने का कोई जुगाड़ बैठा नहीं.

फिर यकायक एक दिन यह पता चला कि हमारे पत्रकार मित्र ईश मधु तलवार की उनसे गहरी आत्मीयता है, तो मैं बिना संकोच उनसे यह अनुरोध कर बैठा कि वे कभी मुझे भी दान सिंह जी से मिलवाएं. और फिर जल्दी ही यह संयोग बन भी गया. यह तै हुआ कि 1 नवंबर 2009 को दोपहर में मैं श्रमजीवी पत्रकार संघ के कार्यालय में पहुंच जाऊं वहीं से तलवार जी मुझे दान सिंह जी यहां ले जाएंगे. और तै कार्यक्रम के अनुसार उस दोपहर तलवार जी के साथ भाई फारूक आफरीदी, कवि ओमेंद्र और मैं दान सिंह जी के घर पहुंचे. फारूक़ साहब हमेशा की तरह अपने साजो-सामान से लैस थे. कुछ तैयारी मैं भी करके गया था उन विरल क्षणों को संजो लेने की. मेरे अलावा बाकी सभी मित्रों से दान सिंह जी पूर्व परिचित थे. तलवार जी के प्रति उनके मन में कितनी गहरी आत्मीयता थी, यह कुछ ही क्षणों में ज़ाहिर हो गया था.

हम लोग कोई योजनाब्द्ध इंटरव्यू का इरादा लेकर नहीं गए थे. बल्कि मेरे मन में तो बस इतनी-सी बात थी कि इस महान संगीतकार के सान्निध्य में कुछ क्षण बिताने का जो सौभाग्य मिला है उसका छक कर पान करना है. और आज जब दान सिंह जी स्मृति शेष हैं, मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अपने सान्निध्य का रस-पान कराने में उन्होंने तनिक भी कृपणता नहीं बरती. आज जब उन क्षणों को मन में रिवाइण्ड करता हूं तो पाता हूं कि उनकी सबसे बड़ी महानता तो यही थी कि उन्होंने किसी भी तरह की महानता नहीं दर्शाई. अपने जीवन में बहुत सारे लेखकों-कलाकारों के साथ वक़्त गुज़ारने के जो अगणित मौके मुझे मिले हैं जब उन पर एक नज़र दौड़ाता हूं तो पाता हूं कि बहुत ही कम लोग ऐसे थे जो अपनी तमाम उपलब्धियों के बावज़ूद इतने सहज थे जैसे कि उनकी कोई उपलब्धि ही ना हो. प्रसंगांतर के बावज़ूद कहना चाहूंगा कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब से मिलकर भी ऐसी ही प्रतीति हुई थी. कोई दो-एक घण्टे उनसे बातचीत करके जब विदा लेने लगा तो जाने क्यों खान साहब ने पूछ लिया कि ‘तुम सिगरेट पीते हो?’ उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि मुझसे झूठ नहीं बोला गया. खान साहब ने अपना विल्स का पैकेट मेरी तरफ बढ़ाते हुए आग्रह किया कि मैं भी एक सिगरेट पी लूं, और मैंने उनसे कहा कि मेरे संस्कार मुझे इस बात की अनुमति नहीं देते हैं कि अपने पिता तुल्य के सामने धूम्रपान करूं! खान साहब ने जो कहा, वह मेरे मन पर जैसे खुद चुका है. बोले, “बेटा! ले लो! हमारा हुक्म है. हम फिर कभी ऐसा नहीं कर पाएंगे.’ आज भी उनका वह बड़प्पन याद आता है तो मन ही मन नतशिर हो जाता हूं. लेकिन यहां तो बात मैं दान सिंह जी की कर रहा था. दान सिंह जी उस दोपहर हम चारों से ऐसी सहजता से बतिया रहे थे जैसे हमारी बरसों की पहचान हो. बातों के बीच उन्होंने अपना हारमोनियम भी मंगवा लिया था और बातें करते हुए मौज में आकर वे हमें अपने सृजन का प्रसाद भी देते जाते थे. उनकी जीवन संगिनी डॉ उमा याग़्निक जी भी इस गपशप में शरीक थीं. उस दोपहर हमने न जाने कितनी बातें कीं. संगीत की, संगीत की दुनिया के छल-प्रपंचों की, गायक-गायिकाओं की, फिल्मों की, मुंबई की और भी न जाने कहां-कहां की. उस दोपहर की वो लगभग पूरी बातचीत मैंने रिकॉर्ड कर रखी है. मुझे जो बात सबसे ज्यादा रेखांकनीय लगी वो यह कि दान सिंह जी में कहीं किसी के प्रति लेशमात्र भी नाराज़गी या कटुता का भाव नहीं था. जब उन्होंने यह प्रसंग सुनाया कि कैसे उनकी बनाई धुन पर किसी और ने गाना बनाकर मुकेश से गवा लिया, तो मुझे लगा कि जैसे वे अपनी बनाई हुई नहीं किसी और की बनाई धुन की बात कर रहे हैं. यह बहुत गैर मामूली बात है. मुझे आज भी इस बात को यादकर आश्चर्य होता है कि इतने प्रतिभाशाली होने के बावज़ूद संगीत की दुनिया की राजनीति की वजह से हाशिये पर डाल दिए गए दानसिंह जी के मन में इस बात को लेकर ज़रा भी मलाल नहीं था. वे अपने हाल में परम सुखी-संतुष्ट थे. अगर उस दोपहर उनके सान्निध्य में कुछ वक़्त न गुज़ारा होता और किसी और ने मुझसे उनके बारे में यह बात कही होती तो मैं विश्वास नहीं करता.

आज जब दान सिंह जी इस दुनिया में नहीं हैं, उनसे हुई सिर्फ इस एक मुलाक़ात के कारण मुझे लग रहा है कि मेरे अस्तित्व का एक हिस्सा मुझसे ज़ुदा हो गया है और मैं अधूरा रह गया हूं. मन में बहुत सारी बातें घुमड़ रही हैं लेकिन अस्त-व्यस्त मन:स्थिति में उन्हें शब्द बद्ध नहीं कर पा रहा हूं. लेकिन बार-बार वह एक दोपहर मुझे याद आ रही है जो हमने दान सिंह जी के सान्निध्य में बिताई थी और उसी के साथ याद आ रहा है फिराक़ गोरखपुरी का यह मशहूर शे’र:

आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअस्रों
जब ये ध्यान आयेगा उनको तुमने फ़िराक़ को देखा था!
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5 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सुंदर संस्मरण ..... ऐसे महान व्यक्तित्व के विषय में पढ़कर जानकर अच्छा लगा....उन्हें नमन

'अपनी माटी' मासिक ई-पत्रिका (www.ApniMaati.com) said...

संस्मरण पढ़कर आनंद आया. बिस्मिल्लाह खान साहेब की नई बात चली

Vishu Singh Disodia said...

accha ssmarn main inhe prnam karta hu

HemantShesh said...

डॉ. साहब बेहतर हो दान सिंह जी से जो बातें हो सकीं उन्हें भी जगह दे दें, ये तो सिर्फ उनसे हो गयी भेंट का भावनाप्रवण संस्मरणात्मक आलेख है, बातें इसमें नहीं हैं जो हुईं ...

sajjan singh said...

संस्मरण अच्छा लगा ।

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