Wednesday, August 18, 2010

पूरे देश का गीत

कभी-कभी एक अकेला गीत ही सिर्फ साढ़े सात मिनिट में पूरे देश को अपने आगोश में समेट लेता है. 15 अगस्त, 1988 की सुबह भारत के टीवी दर्शकों ने देखा एक केशरिया सूरज, समुद्र और उसकी उत्ताल तरंगों की छवियों में से उभरते अधमुंदी आंखों वाले भीमसेन जोशी को, जो अधमुंदी आंखों के साथ गा रहे थे, मिले...सुर मेरा तुम्हारा. राग थी शाही भैरवी – बहुतों को इस राग का नाम ज्ञात नहीं था लेकिन जैसे-जैसे पंडित जी की आवाज़ टीवी सेट्स से बाहर निकल रही थी -और करीब एक मिनिट तक वे एक अकेले तबले की ताल के साथ गा रहे थे- इसकी जादुई स्वर लहरी लोगों को मंत्र मुग्ध करती जा रही थी. धीरे-धीरे संगीत ने गति पकड़ी और दृश्य डल झील में तब्दील हुआ, और फिर पंजाब के खेतों में चलता हुआ ट्रैक्टर, आकाश से ली हुई ताजमहल की एक छवि, उसके पार्श्व में बहती हुई यमुना की जलधारा... यह था देशभक्ति के मुलायम रंगों में रंगा हुआ भारत. और कई अनेक लोगों के साथ-साथ हेमा मालिनी और एक अनाम महावत, अमिताभ बच्चन और एम बाला मुरली कृष्णन, शर्मिला टैगोर और तमस की पूरी कास्ट, जिन्होंने पंजाबी और उड़िया में, कन्नड़ और मराठी में, तमिळ और मलयालम में, असमी और तेलुगु में गाया. बहुत जल्दी ही कश्मीरी लोगों ने तमिळ पंक्ति एंते स्वरवुम निंगलुडे स्वरवुम को गुनगुनाना सीख लिया और मराठी बोलने वालों ने बांगला पंक्ति तोमार शोनार मोदेर शुर गाना सीख लिया. और मिले सुर बहुत ही उम्दा तरह से गाया जा सकने वाला टी वी गान बन गया और बन गया राष्ट्रीयता की एक झांकी.

उस स्वाधीनता दिवस पर बहुत घबराया हुआ एक आदमी -विज्ञापन पुरुष सुरेश मलिक- अपने चौकोर बीपीएल टी वी के सामने इंतज़ार कर रहा था कि कब प्रधान मंत्री राजीव गांधी का भाषण खत्म हो और कब मिले सुर मेरा का पहला प्रसारण शुरू हो. “यह वीडियो उन्हीं के दिमाग की उपज था.” कैलाश सुरेंद्रनाथ, जो उस कार्यक्रम के सहायक निदेशक थे, याद करते हैं. “हमने सोचा भी नहीं था कि यह एक कल्ट एंथम बन जायेगा.”

स्वर्गीय मलिक (मार्च, 2003 में उनका निधन हो गया था) ओगिल्वी एण्ड मेथर के नेशनल डाइरेक्टर थे. इससे पहले, 1988 में उन्होंने ही आज़ादी की मशाल वीडियो की भी परिकल्पना की थी जिसमें खेल की दुनिया के सितारों को लिया गया था. “राजीव जी, जिन्होंने यह आज़ादी की मशाल वीडियो देखा था, ने ही हमें मिले सुर वीडियो का विचार दिया था”, सुरेंद्रनाथ बताते हैं. उनका विचार यह था कि एक ही अंश में हिंदुस्तानी, कर्नाटक, पॉप्युलर, लोक और कंटेमपररी संगीत लीजिये, देश के कई प्रदेशों को लीजिए और उसे चाक्षुष और सांगीतिक दृष्टि से आकर्षक बना दीजिए.

सुरेंद्रनाथ बताते हैं, “हमने कलाकारों को लिखा कि वे इस कार्यक्रम का हिस्सा बनें और वे तुरंत तैयार हो गए.” मलिक साहब ने जैज़ संगीतकार लुइ बैंक्स, कम्पोज़र पी. वैद्यनाथन और सिनेमेटोग्राफर आर के राव को शामिल कर लिया. अब समस्या थी गीत के बोलों की. मलिक साहब को मंजे हुए गीतकारों, और यहां तक कि उनकी कंपनी के वरिष्ठ कॉपी राइटर्स का कोई भी गीत पसंद नहीं आया. इसके बाद उन्होंने अपनी टीम के एक युवा सदस्य को कोशिश कर देखने को कहा. और उसकी कोशिश कामयाब रही - अठारहवें प्रयास में. यह सदस्य था पीयूष पांडे. “मलिक साहब मेरे बॉस थे और उन्होंने मुझे कहा था कि मैं झण्डा, देश जैसे अगणित बार प्रयुक्त कर लिए गए शब्द इस्तेमाल न करूं. वे चाहते थे कि मैं लोगों को जोड़ने के लिए सरल शब्दों का इस्तेमाल करूं,” पाण्डे बताते हैं जो अब ओगिल्वी एण्ड मेथर के सी ई ओ हैं.

मलिक साहब के इस देशभक्ति पूर्ण प्रोजेक्ट का दूसरा ज़रूरी तत्व था राग भैरवी. यह एक संपूर्ण राग है जिसमें 12 स्वर (आधारभूत सात स्वरों में से कुछ के तीव्र और मध्यम स्वरूपों सहित) होते हैं, और जो हिंदुस्तानी और कर्नाटक दोनों शैलियों में प्रयुक्त होता है. लेकिन, पूरे देश को सम्मोहित कर लेने वाले इस गीत की धुन के कम्पोज़र के बारे में बहुत कम जानकारी है. “अधिकांश लोग इस गीत की धुन का श्रेय बैंक्स और वैद्यनाथन को देते हैं, लेकिन उनका काम तो काफी बाद में शुरू हुआ,” पांडे बताते हैं. इसके कम्पोज़र थे पण्डित भीमसेन जोशी. “हमने उन्हें इस गीत की शुरुआती छह पंक्तियां दीं और कहा कि हमारी इच्छा है कि यह राग भैरवी में हो. एक दिन पंडितजी स्टूडियो में आए और उन्होंने आधे घण्टे तक इस गीत को गाया. हमें तुरंत वह पसंद आ गया”, सुरेंद्रनाथ बताते हैं. वैद्यनाथन और बैंक्स ने विभिन्न भाषाओं के लिए संगीत अरेंज किया, अलग-अलग राज्यों के संगीतकारों की मदद से एक से दूसरी भाषा में अंतरण की व्यवस्था की और राष्ट्र गान को समाहित करते हुए इसके अंतिम उत्कर्ष का सृजन किया.

“हमारा राष्ट्रगान के अंतिम अंश को समाहित करना दूरदर्शन को पसंद नहीं आया. उन्हें लगा कि अपूर्ण राष्ट्रगान को प्रयुक्त करना उपयुक्त नहीं होगा. लेकिन राजीव जी ने इसे देखा और बेहद पसंद किया. उन्हें इसमें किसी भी बदलाव की ज़रूरत महसूस नहीं हुई,” बैंक्स कहते हैं.

सिनेमेटोग्राफर राव ने इस फिल्म को शूट करने के लिए पूरे देश की यात्रा की. “वीडियो की सादगी, सामान्य लोगों की मौज़ूदगी और ज़बान पर चढ़ जाने वाली धुन ने हमारे लिए जादू का काम किया,” वे कहते हैं. “इसमें कोई ज़ोरदार कैमरा मूमेंट्स नहीं थे. ज़्यादातर तो एक बार में ही ले लिए गए शॉट्स थे और उन सभी को मैंने ही लिया था. इससे फिल्म में एकरूपता बनी रह सकी.” कुल 20 लोकेशनों पर इसे महज़ 31 दिनों में शूट कर लिया गया था.”

ऐसा नहीं है कि शूटिंग में कोई दिक्कतें नहीं आईं. लता मंगेशकर उन दिनों रूस में एक कंसर्ट कर रही थीं अत: अंतिम अंश कविता कृष्णमूर्ति ने गाया. कृष्णमूर्ति को सुनते हुए लता जी को उस हिस्से को डब करना था लेकिन उन्हें यह बात पसंद नहीं आई.” वे खुश तो नहीं थीं, लेकिन अंतत: उन्होंने यह भी किया,” हंसते हुए राव बताते हैं.

जनवरी 2010 में इसी टीम ने, अलबता इस बार मलिक और वैद्यनाथन इसमें नहीं थे, फिर मिले सुर की रचना की. लेकिन यह पुनर्सृजन दुखद था. फिर मिले सुर पर बॉलीवुड और उसके नखरे हावी थे. यह मूल की मासूमियत समाहित कर पाने में नाकामयाब था,” राव कहते हैं.

वैसे उस मासूमियत का ताल्लुक 1988 से भी था, जब रंगीन दूरदर्शन महज़ छह बरस पुराना था और अपने रंगों से हमें सम्मोहित करने की काबिलियत रखता था. तब कमल हासन और कलकत्ता मेट्रो शायद पहली बार एक साथ हमारे टेलीविज़न सेट्स पर आए थे, और यह वह वक़्त था जब राष्ट्रवाद को कुल जमा इतने नखरे की ज़रूरत थी कि एक अदद लता मंगेशकर गाना गाए और उनके दांये कंधे पर केसरिया, श्वेत और हरा वस्त्र हो!
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15 अगस्त 2010 के इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित सुआंशु खुराना के लेख द वन ट्यून का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा मुक्त अनुवाद.






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3 comments:

abhishek said...

सारगर्भित लेख को हिन्दी पाठकों तक पहुंचाने के लिए साधुवाद। अनुवाद सदैव की तरह सहज और मौलिक।

माधव हाड़ा said...

बधाई! हिन्दी पाठकों के लिए अच्छी सामग्री। अनुवाद बहुत प्रभावशाली है।

सम्पादक, अपनी माटी said...

DP Ji.aap ko aaj padhakar bahut gyaanwaan samajhane lagaa hu. aapki post se gyaan badhataa hai. cinemaa se jude aur bhee anubhav likhiegaa.