Monday, December 7, 2009

टेढ़ी नज़र वाला अर्थशास्त्र


सन 2005 में प्रकाशित एक छोटी-सी किताब फ्रीकोनोमिक्स ने अर्थशास्त्र और दुनिया के प्रति लोगों का नज़रिया बदलने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की. न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्ट सेलर सूची में रही स्टीवेन डी. लेविट्ट और स्टीफ़ेन जे. ड्युबनेर कृत इस किताब की दुनिया की 35 भाषाओं में 40 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं. और अब हाल ही में इस जोड़ी की नई किताब आई है सुपर फ्रीकोनोमिक्स. किताब का शीर्षक ही संकेत कर देता है कि यह पिछली किताब के विचार को ही आगे बढ़ाने का उपक्रम है. चार साल की मेहनत से तैयार यह किताब पहले वाली किताब से अधिक साहसिक, अधिक मज़ेदार और अधिक चौंकाने वाली है.

2005 से अब तक दुनिया के आर्थिक परिदृश में क्रांतिकारी बदलाव हुए हैं और वर्तमान आर्थिक संकट के दौर में तो अर्थशास्त्रियों की उपादेयता तक पर सवाल उठाये जाने लगे हैं. तो क्या इस अर्थशास्त्री जोड़ी के पास है कोई समाधान वर्तमान आर्थिक संकट से उबरने का? लेखक द्वय तो कहते हैं कि उन्हें हमारे आर्थिक संकटमोचक होने की कोई ग़लतफहमी नहीं है. वे यह भी कहते हैं कि इस किताब में वर्तमान आर्थिक संकट, ऋण संकट, सी ई ओ की तनख्वाहों या हेल्थकेयर सुधारों के बारे में कोई समाधान नहीं दिए गए हैं. तो फिर? क्यों पढ़ी जाए यह किताब? असल में किताब की उपादेयता एक व्यापक संदर्भ में है.

लेखक स्टीवेन कहते हैं कि हम खुद अपनी स्थितियों को आधारभूत आर्थिक तत्वों के साथ रखकर देख पाने में असफल रहते हैं. वे तीन बड़े सुझाव देते हैं. एक: हमें वैयक्तिक बढ़ावा देने वाले कारणों (इनसेंटिव्ज़) को और इस बात को समझना चाहिए कि वे किस तरह हमारे व्यवहार को प्रभावित करते हैं, दो: हमें बाज़ार के व्यवहार को समझना चाहिए और इस बात को भी समझना चाहिए कि किस तरह सरकारी नीतियों और सामाजिक संस्कृति में आए बदलाव हमारे वैयक्तिक बढ़ावा देने वाले कारकों को प्रभावित करते हैं, और तीन: आंकड़ों और उनके सूझबूझपूर्ण विश्लेषण के बग़ैर बहुत कम समझा जा सकता है. किताब का मूल मंत्र यह है कि नीतियों द्वारा रचे गए वैयक्तिक बढ़ावा देने वाले कारकों की समुचित समझ के बिना अनपेक्षित परिणामों का नियम (लॉ ऑफ अनइनटेण्डेड कॉंसिक्वेंसेस) तमाम सुधारों का सत्यानाश कर सकता है.
इन महत्वपूर्ण आर्थिक बातों के साथ ही यह किताब इर्द-गिर्द की बहुत सारी बातों की भी दिलचस्प चर्चा करती है.

लेखकगण अच्छे और बुरे की अवधारणाओं पर विचार करते हुए बताते हैं कि जो टेलीविज़न भारत में स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के कारण अच्छा सिद्ध हुआ है वही टी वी अमरीका में संपत्ति विषयक और हिंसक अपराधों को बढावा देने वाला साबित हो रहा है. स्टीवेन मानते हैं कि भारत में टीवी देखने वाली महिलाएं घरेलू हिंसा का प्रतिरोध करने लगी हैं, उनका नर संतान के प्रति मोह घटा है और वे अधिक निजी स्वायत्तता का प्रयोग करने लगी हैं. लोगों के संबंध में इस अच्छे और बुरे की अवधारणा पर विचार करते हुए वे कहते हैं कि लोग न अच्छे होते हैं न बुरे. वे तो बढावा देने वाले कारकों की तरफ आकृष्ट होते हैं और इसका इस्तेमाल अच्छी या बुरी किसी भी तरह किया जा सकता है. अपनी बात की पुष्टि में वे ईरान का उदाहरण देते हैं जहां इंसेंटिव का इस्तेमाल करके किडनी डोनर्स की संख्या बढाई गई है. इसका उलट उदाहरण भी इस किताब में है. डॉक्टर लोग जानते हैं कि कीमोथैरेपी जान बचाने में कारगर साबित नहीं होती है, फिर भी आर्थिक लाभ के लालच में वे इसका भरपूर इस्तेमाल करते हैं.

इस लेखक जोड़ी की ख्याति अर्थशास्त्र जैसे नीरस विषय को दिलचस्प बनाकर पेश करने के लिए है. इस मामले में ये लोग इस किताब में भी निराश नहीं करते. वेश्यावृत्ति, आतंकवाद और किन्हीं भी दो या अधिक असम्बद्ध प्रतीत होने वाली चीज़ों की अंतरनिर्भरता का विश्लेषण इस किताब को रोचक और विचारोत्तेजक बनाता है. अगर आप किसी एक किताब में आतंकवादी को पकड़ने का सबसे अच्छा तरीका क्या है, आंधी, हार्ट अटैक और हाइवे पर होने वाली दुर्घटना मौतों में समान बात क्या है, मनुष्य मूलभूत रूप से स्वार्थी होता है या परमार्थी, जैसी अजीबोगरीब बातों के माध्यम से कुछ आधारभूत महत्व के सिद्धांतो तक पहुंचना पसंद करते हों, तो यह किताब आपको ज़रूर अच्छी लगेगी.
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Discussed book:
Super Freakonomics: Global Cooling, Patriotic Prostitutes, and Why Suicide Bombers Should Buy Life Insurance
By Steven D. Levitt, Stephen J. Dubner
Published by William Morrow
Hardcover 288 Pages
US $ 29.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 13 दिसंबर, 2009 को प्रकाशित.








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2 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

इकोनोमिक्स फ़्रीक ही तो है वर्ना इन्फ़्लेशन दर गिर रही है और बाज़ार के दाम बढ़ रहे है :)

Anonymous said...

बस भारतीय पेपरबैक संस्करण आ जाए तो हम भी खरीद लें. क्या आपने ब्रिटिश अर्थशास्त्री टिम हरफोर्ड की अंडरकवर ईकोनोमिस्ट (2006) पढ़ी है? कंटेंट, और कवरेज के मामले में हरफोर्ड लेविट से बीस हैं, बस लेखन शैली में मार खा जाते हैं. पर अगर हरफोर्ड की रुखी लेखन शैली को किसी तरह सहते हुए उनकी पुस्तक समझते हुए पूरी कर ली जाए तो यही एक पुस्तक सामान्य पाठक की समझ कम से कम एक अर्थशास्त्र पोस्ट ग्रेजुएट जितनी कर सकती है.

मैं भी गंभीरता से अपना समीक्षा ब्लॉग शुरू करने की सोच रहा हूँ.