Thursday, October 22, 2009
एक गायिका की ज़िन्दगी के बहाने भारतीय शास्त्रीय संगीत का वृत्तांत
टाइम्स ऑफ इण्डिया की पत्रकार नमिता देवीदयाल की पहली किताब द म्यूज़िक रूम: अ मेमोयर एक तरह से शिष्या की क़लम से लिखी अपने गुरु की जीवनी है. नमिता लगभग 20 वर्ष तक जयपुर घराने की सुविख्यात गायिका ढोंढुताई कुलकर्णी की शिष्या रही थीं. लेकिन असल में तो यह किताब ढोंढुताई के बहाने से भारतीय शास्त्रीय संगीत की ही जीवनी है. नमिता की यह किताब 1920 के दशक के मुंबई से शुरू होती है जब उनकी मां उन्हें भावी गुरु ढोंढुताई से मिलाने ले जाती हैं. नमिता तब महज़ 10-11 बरस की थीं. तभी हमारा पहला परिचय उस्ताद अल्लादिया खां साहब और केसरबाई केरकर से भी होता है जिनकी तस्वीरें ढोंढुताई के घर की दीवार पर लगी हैं. नमिता कहती हैं कि जैसे ही वे अपनी गुरु से मिलीं उन्हें एक नई दुनिया ही मिल गई. और नमिता की यह किताब भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया की एक अलग और अंतरंग छवि से हमारा साक्षात्कार कराती है.
शास्त्रीय संगीत सीखने से भी ज़्यादा नमिता की दिलचस्पी ढोंढुताई से बतियाने में रहती. जैसे जैसे किताब आगे बढती है, घटनाएं और प्रसंग एक-एक करके खुलते हैं. नमिता कहती हैं, “इन लोगों की ज़िन्दगी के बारे में अचरज की बात यह है कि हक़ीक़त किस्सों से भी ज़्यादा चौंकाने वाली है. अल्लादिया खां साहब की कथा, और यह बात कि उन्होंने किस तरह एक हिंदू ब्राह्मण लड़की ढोंढुताई को अंगीकार किया, बेहद मार्मिक है. विडम्बना की बात यह कि खां साहब के संगीत की विरासत को ग्रहण करने के लिए ताई को उनके खानदान से बाहर जन्म लेना पड़ा क्योंकि खान साहब के परिवार में तो औरतों को गाने बजाने की इजाज़त थी नहीं.” इसी तरह केसरबाई की विलक्षण कथा ज़ाहिर करती है कि गाने वाली औरतों के प्रति दोगले व्यवहार से लबरेज़ समाज में ऐसी किसी औरत को जगह बनाने के लिए कितना कड़ा संघर्ष करना पड़ता था. और ये वे लोग थे जिन्होंने भारतीय संगीत की एक खास शैली की नींव रखी थी. दुर्भाग्य की बात यह भी है कि खान साहब की या केसरबाई की कोई रिकॉर्डिंग भी उपलब्ध नहीं है. खान साहब तो उस ज़माने के गायक थे जब आधुनिक रिकॉर्डिंग तकनीक प्रचलन में ही नहीं आई थी, जबकि केसरबाई किसी को रिकॉर्ड ही नहीं करने देती थीं. उनका खयाल था कि उनका संगीत इतना सस्ता नहीं है कि उसकी एल पी संगीत की दुकानों में कुछ रुपयों में बेची जाने लगें.
किताब में अल्लादिया खां साहब और केसरबाई के बारे में अनेक मार्मिक प्रसंग हैं. खां साहब सदा आर्थिक अभावों से जूझते रहे तो केसरबाई महारानी की-सी ज़िन्दगी जीती थीं. नमिता लिखती हैं, “अल्लादिया खां चैन से नहीं मर पाए. उनको सबसे बड़ा अफ़सोस तो इस बात का था कि उनके बच्चे उनके संगीत की विरासत को पूरी तरह से ग्रहण नहीं कर सके. उनकी शव यात्रा में महज़ 10-12 लोग थे.” केसरबाई के लिए नमिता लिखती हैं कि एक कंसर्ट के बाद उनकी आवाज़ जाती रही थी और जब संगीत ने उनकी ज़िन्दगी को छोड़ दिया तो सेहत भी उनका साथ छोड़ने लगी. उनके निधन से कुछ महीने पहले जब नमिता उनसे मिली तो उन्हें लगा कि ताई अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं. वह स्त्री जो सदा बेहतरीन शिफॉन और सिल्क में सजी धजी नज़र आती थी, उस समय एक पतली-सी सूती साड़ी लपेटे थी.
अपनी गुरु के साथ अपने रिश्तों का वर्णन करते हुए नमिता कहती हैं, “संगीत ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो सारी दीवारों के पार जा पाती है. मेरे खयाल से यह संगीत ही था जिसके कारण अविश्वसनीय रूप से अलग-अलग स्पेस में रहने वाले हम दोनों एक दूसरे से इतने वर्षों तक जुड़े रह सके. जब मैं ढोंढुताई के साथ होती हूं तो जैसे एक मंदिर के भीतर होती हूं. ...... मेरे खयाल से मैंने ढोंढुताई से यह सीखा है कि बिना पुरस्कार की परवाह किए किसी लक्ष्य के प्रति निर्भीक रूप से और बिना किसी शर्त के कैसे समर्पित हुआ जाए.”
नमिता भारतीय संगीत परंपरा के भविष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हैं. वे कहती हैं कि “भारतीय परंपरा कभी खत्म नहीं होगी. हो सकता है कि यह बदलते श्रोताओं और उनकी रुचियों के अनुरूप खुद को किंचित बदल ले, और यह अच्छा भी है क्योंकि परंपरा और संस्कृति कभी जड़ हो भी नहीं सकते. असल में तो ऐसा तभी होता है जब वे मरते हैं.”
किताब की एक विशेषता यह है कि लेखिका ने अपने बारे में बात करने में बहुत संयम बरता है. अपनी ज़िन्दगी की घटनाओं की उन्होंने मात्र सूचना दी है. इसी तरह वे अपनी गुरु के जीवन की घटनाओं को सिलसिलेवार पेश नहीं करतीं, बल्कि अतीत और वर्तमान के बीच सहज रूप से आवाजाही करती रहती हैं और उसी के बीच अपनी बात कहने का भी अवकाश निकाल लेती हैं.
नमिता देवीदयाल की इस किताब को भारत का सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुस्तक सम्मान वोडाफोन क्रॉसवर्ड पॉप्युलर बुक अवार्ड मिल चुका है और पण्डित रविशंकर ने कहा है कि यह किताब हर संगीतकार और संगीत प्रेमी के लिए ज़रूरी है.
Discussed book:
The Music Room
By Namita Devidayal
Random House Publishers India Pvt Lts.,
301-A, World Trade Tower, Barakhamba lane,
New Delhi-110001.
316Pages, Hardcover.
Rs 395.00
राजस्थान पत्रिका के रविवारीय संस्करण में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 11 अक्टोबर, 2009 को प्रकाशित.
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4 comments:
नमिता देवी दयाल जी की इस किताब की जानकारी और समीक्षा का शुक्रिया । आपकी समीक्षा ने इसे पढने की ललक पैदा कर दी ।
बधाई!हिन्दीभाषी संगीत प्रेमियों के लिए यह जानकरी उपलब्धि की तरह है। इस तरह की पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद होने चाहिए।
achcha laga padhkar...wakai kitaben bshut kuch kahti hain.
बेहद ही खुशी हुई समीक्षा को पढ कर, पूरी किताब तो खज़ाने जैसी होगी.
धन्यवाद,
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