Tuesday, August 11, 2009

अब वह सपने भी हिंदी में देखने लगी है


पुरस्कृत संस्मरण पुस्तक द रेड डेविल: टू हेल विथ कैंसर – एण्ड बैक की लेखिका कैथरीन रसेल रिच जो न्यूयॉर्क टाइम्स मैगज़ीन, वाशिगटन पोस्ट, नेशनल पब्लिक रेडियो और सलोन डॉट कॉम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के लिए लिखती रही हैं, की नवीनतम पुस्तक ड्रीमिंग इन हिंदी का सम्बन्ध हमारे अपने देश और अपनी भाषा से है.

कैथरीन लिखती हैं, “मुझे कैंसर था और यह भीतर ही भीतर मेरी हड्डियों को नष्ट कर रहा था. एक रात मैंने सपना देखा कि मैं एक छोटे-से कपड़े के लिए एक औरत से जूझ रही हूं. कपड़ा मुलायम और नीला है. वह औरत उसे मुझसे छीन लेना चह रही है. मैं चिल्लाती हूं, ‘यह तो मेरा है, मैंने ही तो इसे बुना है.’ वह औरत थोड़ी शांत होती है और कहती है, ‘हो सकता है तुमने इसे बनाया हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम इसे अपने पास रख भी सकती हो.’ बाद में मेरी एक दोस्त मुझे समझाती है कि यह कपड़ा मेरी ज़िन्दगी का प्रतीक था.” तो, इस तरह अपनी ज़िन्दगी के लिए जूझ रही और इसी दौरान अपने प्यार में भी असफल हो चुकी कैथरीन अनायास ही सम्पर्क में आती है न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की हिंदी प्रोफेसर, मूलत: अल्जीरिया की गैब्रियाला इलियेवा के. गैब्रियाला जब कैथरीन को हिंदी भाषा की विशेषताओं से परिचित कराती है तो वह इसकी काव्यात्मकता पर मुग्ध हो उठती है. कैथरीन कहती हैं, “इन हिंदी, यू ड्रिंक अ सिगरेट, नाइट स्प्रेड्स, यू ईट ए बीटिंग. यू ईट द सन.” और वह भारत जाकर एक साल हिंदी सीखने का फैसला कर लेती है, बावज़ूद इस बात के कि ऐसा करने के लिए कोई खास योग्यता उसके पास नहीं थी. लेकिन वह जैसे अपने कष्टपूर्ण रोग से दूर भागना चाहती थी.

जब कैथरीन अपनी कैंसर चिकित्सक को यह बताती है कि वह एक बरस के लिए भारत जा रही है तो एक बारगी तो वह भी चौंक पड़ती है. कैथरीन की दशा कोई खास अच्छी नहीं है और डॉक्टर लोग भी उसका निश्चित इलाज़ करने की बजाय प्रयोग ही कर रहे हैं, क्योंकि वे और कुछ कर पाने में समर्थ नहीं हैं. कैथरीन की स्थिति वाला शायद ही कोई मरीज़ अपने देश से दूर गया हो, लेकिन डॉक्टर और रोगी के बीच एक गहरी आत्मीय समझ विकसित हो चुकी है. कैथरीन कहती हैं, “उन्होंने मुझे इतने बरसों ज़िन्दा रखा है. अब भला वे मुझे अपनी ज़िन्दगी को जीने से कैसे रोक सकती हैं?”

और कैथरीन भारत आने को तैयार हो जाती हैं. सप्ताह में बीस घण्टे का उच्चारण, व्याकरण और फिल्म चर्चा का कार्यक्रम, और हिंदी भाषी परिवारों के साथ सहजीवन का अनुभव. कैथरीन उदयपुर आती हैं और हिंदी भाषी लोगों व परिवारों के साथ रहकर हिंदी और भारतीय जीवन पद्धति सीखती हैं.

कैथरीन एक जगह लिखती हैं, “मेरे पास अपनी ज़िन्दगी को बयान करने वाली भाषा नहीं थी. इसलिए मैंने कोई दूसरी भाषा उधार लेने का फैसला किया.” और यह करते हुए वे खुद भी बदलती गईं. कहा जाता है कि जब आप किसी पराई भाषा को अपनाते हैं तो आप खुद भी थोड़े बदल जाते हैं. कैथरीन को भी ऐसा ही लगा. उन्होंने नोट किया कि हिंदी में यह कह पाना कठिन है कि यह चीज़ मेरी है, और इस तरह उनसे अपने पराये का भाव छूटा, हिंदी में मैं की बजाय हम कहना अधिक प्रचलित है, तो कैथरीन को लगा कि जैसे वे सबसे जुड़ती जा रही हैं. इस बीच कुछेक दुर्घटनाएं भी हुईं. जैसे, कैथरीन जिस जैन परिवार के साथ रह रही थीं, उनको कैथरीन की वैवाहिक स्थिति को लेकर कुछ गलतफहमी हुई, और कैथरीन को उन लोगों का घर छोड़ना पड़ा. लेकिन इस तरह उन्होंने एक इतर भाषा को सीखते हुए उसकी संस्कृति को भी आत्मसात किया. धीरे-धीरे वे इस भाषा में इतनी निष्णात हो गईं कि न केवल हिंदी में मज़ाक करने लगीं, उन्हें सपने भी हिंदी में ही आने लगे.

कैथरीन की यह संस्मरणात्मक किताब हमें एक अलग तरह की भारत की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक यात्रा पर ले जाती है. एक अनुभवी पत्रकार, संपादक और लेखक होने के नाते वे अपनी इस किताब को केवल अपने वर्णनों तक ही सीमित नहीं रखतीं, बल्कि यथास्थान भाषाविदों और न्यूरोलॉजिस्ट्स के साक्षात्कारों से इसे प्रामाणिक भी बनाती हैं. हमारी भाषा और संस्कृति दूसरों को कैसी दिखाई देती है, अगर यह जानने की इच्छा हो तो इस किताब को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए.


Discussed book:
Dreaming in Hindi
By Katherine Russell Rich
Published by Houghton Mifflin Co
Hardcover, 384 pages
US $ 26.00

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 09 अगस्त, 2009 को प्रकाशित.








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3 comments:

Manish Kumar said...

बहुत अच्छा लगा इस किताब के बारे में आपकी बेहतरीन लेखनी के ज़रिये जानना।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

बढि़या चर्चा। अनुवाद की गडबड- मार खाओगे, धूप खाना..... किसी को इस भाषा की ओर आकर्षित कर सकती है!!!

अजित वडनेरकर said...

बढ़िया समीक्षा। इस पुस्तक से परिचित कराने का शुक्रिया डाक्टसा...