Sunday, July 12, 2009
ईश्वर का विकास
इधर कुछ वर्षों में ईश्वर विषयक अनेक पुस्तकें आई हैं. नास्तिक लेखकों जैसे सेम हैरिस, रिचार्ड डॉकिंस, क्रिस्टोफर हिचेंस ने लगभग बेबाक शब्दों में कहा है कि अगर आप ईश्वर के प्रति अनास्थावान नहीं हैं तो आप नशेड़ी हैं. हैरिस ने तो अपने एथीस्ट मेनिफेस्टो (प्रथम प्रकाशन 2005) में साफ कहा है कि “धार्मिक मध्यमार्गियों का यह कहना कि कोई विवेकवान इंसान सिर्फ इसलिए ईश्वर में भरोसा कर सकता है कि यह भरोसा उसे सुख प्रदान करता है, बेहूदा है.” इसी क्रम में हाल ही में आई मार्क्सवादी चिंतक टेरी ईगलटन की नई किताब रीज़न, फेथ, एण्ड रिवोल्यूशन: रिफलेक्शंस ऑन द गॉड डिबेट भी बहुत चर्चा में है. लेकिन आज हम एक और किताब की चर्चा कर रहे हैं. रॉबर्ट राइट अपनी ताज़ा किताब द इवोल्यूशन ऑफ गॉड में इस बहस में नहीं उलझते है कि ईश्वर है या नहीं है. हालांकि वे ईश्वर का होना सिद्ध करने के लिए उसकी तुलना वैज्ञानिकों की दुनिया के इलेक्ट्रॉन से करते हैं और कहते हैं कि इलेक्ट्रॉन को भी तो हममें से किसी ने नहीं देखा है, लेकिन दुनिया पर पड़ने वाले उसके प्रभावों के कारण उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं. यही बात ईश्वर के बारे में भी है. ईश्वर के प्रभावों के रूप में वे सत्य और प्रेम का नाम लेते हैं. राइट मूलत: एक पत्रकार हैं और विकासवादी मनोविज्ञान के विशेषज्ञ हैं. उनकी पिछली किताब नॉनज़ीरो: द लॉजिक ऑफ ह्युमन डेस्टिनी बहु चर्चित रही है.
राइट इस किताब में हमें एक ऐतिहासिक यात्रा पर ले जाते हैं और यह बताते हैं कि ईश्वर की अवधारणा का विकास किस तरह हुआ है और उसमें समय के साथ क्या बदलाव आये हैं. राइट अपनी यह खोज यात्रा मानवीय विकास की यात्रा के समानांतर चलाते हैं. प्रारंभ के आखेट जीवी लोगों के लिए प्रकृति से भी बड़ी चीज़ थी आत्मा, कबीलाई ज़िन्दगी में बहुलदेव वाद आ गया और और उनके बहुत सारे देवता ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं पर नियंत्रण करने लगे. लेकिन, राइट बताते हैं कि इनमें से अधिकतर देवता सही जीवन के आदर्श नहीं हैं. ये सनकी और क्रूर भी हैं. कालांतर में इन देवताओं की जगह देवताओं की एक आधिपत्य पूर्ण व्यवस्था ने ले ली जिसमें एक सर्वशक्तिमान ईश्वर सबका प्रभारी होने लगा, और इसके बाद एक ऐसी व्यवस्था बनी जिसमें नगर-राज्यों में सिर्फ एक ईश्वर की उपासना होने लगी, बग़ैर यह स्वीकार किए कि वही एकमात्र ईश्वर है, हालांकि उसे अन्य ईश्वरों से बेहतर ज़रूर माना जाता था.
राइट बलपूर्वक कहते हैं कि तीन प्रमुख अब्राहमी धर्मों के धर्मग्रंथ वास्तविक व्यक्तियों के द्वारा लिखे गए हैं और उनका मक़सद था आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक सुधार करना. कालांतर में जैसे-जैसे समाजों का विकास होता गया, और वे अधिक जटिल और वैश्विक होते गये, ईश्वर की अवधारणा भी बदलती गई और समाजों की उससे अपेक्षा भी अधिक नैतिक होती गई. राइट इसी बात को आगे बढाते हुए ईश्वर और धर्म की अवधारणा को इसलिए पसंद करते हैं कि इनसे हमारी ज़िन्दगी का अनुकूलन होता है, हम अच्छे और बुरे में अंतर करते हैं और जीवन के सुख दुख को सम दृष्टि से देखना सीखते हैं.
किताब का बहुलांश एकेश्वरवादी सम्प्रदायों जैसे हिब्रू, इसाई बाइबिल और क़ुरान शरीफ के इर्द- गिर्द ही है. स्वाभाविक ही है कि राइट बाइबिल का विश्लेषण अधिक विस्तार से करते हैं. भारतीय सन्दर्भ में किताब की एक बड़ी सीमा यह नज़र आती है कि यह हिन्दु और बौद्ध धर्मों को स्पर्श ही नहीं करती. और यह भी कि हमारे यहां यह स्वीकार करना मुश्क़िल लगता है कि हम सब एक सहकारी किस्म के एकेश्वरवाद की तरफ अग्रसर हो रहे हैं. बौद्ध लोग जहां अपने धर्म में किसी देवी-देवता की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते, वहीं हिन्दु 36 करोड़ देवी देवताओं को भी कम मानते हैं. लेकिन इस सबके बावज़ूद जब राइट यह उम्मीद करते हैं कि सब कुछ के बावज़ूद दुनिया के लोग शांति से रह सकते हैं, और इसके लिए वे अब तक के बदलावों को प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं, तो उनसे असहमत होने का मन नहीं करता.
Discussed book:
Let’s Talk About God
By Robert Wright
Published by Little, Brown and Company
Hardcover, 576 pages
US $ 25.99
राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 12 जुलाई 2009 को प्रकाशित.
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1 comment:
बधाई! सम्यक और सुन्दर विश्लेषण....
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