संस्कृति और अमरीकी जीवन के गहन अध्येता और एमॉरी विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर मार्क बॉयेर्लाइन की नई किताब ‘द डम्बेस्ट जनरेशन: हाउ द डिजिटल एज स्टुपिफाइज़ यंग अमरीकन्स एण्ड जिओपार्डाइजेज़ अवर फ्यूचर’ अमरीका की तीस साल तक की उम्र वाली वर्तमान पीढी के बौद्धिक खालीपन को जिस शिद्दत के साथ उजागर करती है वह हमें भी बहुत कुछ सोचने को विवश करता है. मार्क बेबाकी से कहते हैं कि सायबर कल्चर अमरीका को कुछ भी नहीं जानने वालों के देश में तब्दील करती जा रही है. वे चिंतित होकर पूछते हैं कि अगर किसी देश की नई पीढी का समझदार होना अवरुद्ध हो जाए तो क्या वह देश अपनी राजनीतिक और आर्थिक श्रेष्ठता कायम रख सकता है?
वैसे तो पॉप कल्चर और युवा पीढी पर उसके प्रभावों को लेकर काफी समय से बहस हो रही है. वर्तमान डिजिटल युग जब शुरू हुआ तो बहुतों ने यह आस बांधी थी कि इण्टरनेट, ई मेल, ब्लॉग्ज़, इण्टरएक्टिव वीडियो गेम्स वगैरह के कारण एक नई, अधिक जागरूक, ज़्यादा तीक्ष्ण बुद्धि वाली और बौद्धिक रूप से परिष्कृत पीढी तैयार होगी. इंफर्मेशन सुपर हाइवे और नॉलेज इकोनॉमी जैसे नए शब्द हमारी ज़िन्दगी में आए और उम्मीद की जाने लगी कि नई तकनीक के इस्तेमाल में दक्ष युवा अपने से पिछली पीढी से बेहतर होंगे. लेकिन, दुर्भाग्य, कि यह आस आस ही रही. जिस तकनीक से यह उम्मीद थी कि उसके कारण युवा अधिक समझदार, विविध रुचि वाले और बेहतर सम्प्रेषण कौशल सम्पन्न होंगे, उसका असर उलटा हुआ. ताज़ा रिपोर्ट्स बताती हैं कि अमरीका की नई पीढी के ज़्यादातर लोग न तो साहित्य पढते हैं, न म्यूज़ियम्स जाते हैं और न वोट देते हैं. वे साधारण वैज्ञानिक अवधारणाएं भी नहीं समझ-समझा सकते हैं. उन्हें न तो अमरीकी इतिहास की जानकारी है और न वे अपने स्थानीय नेताओं को जानते हैं. उन्हें यह भी नहीं पता कि दुनिया के नक्शे में ईराक या इज़राइल कहां है.
इन्हीं सारे कारणों से मार्क बॉयेर्लाइन ने उन युवाओं को, जो अभी हाई स्कूल में हैं, द डम्बेस्ट जनरेशन का नाम दिया है. बॉयेर्लाइन ने जो तथ्य दिए हैं वे बहुत अच्छी तरह यह स्थापित करते हैं कि आज का युवा डिजिटल मीडिया के माध्यम से और ज़्यादा आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है. वह नई तकनीक का इस्तेमाल किताब पढने या पूरा वाक्य लिखने जैसी गतिविधियों से अलग जाकर सतही, अहंकारवादी और भटकाने वाली ऑन लाइन दुनिया में रत रहने में कर रहा है. बॉयेर्लाइन यू ट्यूब और माय स्पेस का नाम लेते हैं और कहते हैं कि इन और इन जैसे दूसरे वेब अड्डों पर युवाओं ने अपनी मनचाही जीवन शैली विषयक सामग्री की भरमार कर रखी है और वे इस संकुचित परिधि से बाहर नहीं निकलते हैं. मार्क इस मिथ को भी तोडते हैं कि इण्टरनेट में बढती दिलचस्पी ने युवाओं के बुद्धू बक्सा-मोह को कम किया है. वे आंकडों के माध्यम से स्थापित करते हैं कि युवाओं ने इण्टरनेट को दिया जाने वाला समय मुद्रित शब्द से छीना है और उनका टी वी प्रेम तो ज्यों का त्यों है. मार्क बताते हैं कि 1981 से 2003 तक आते-आते पन्द्रह से सत्रह साल वाले किशोरों का फुर्सती पढने का वक़्त अठारह मिनिट से घटकर सात मिनिट रह गया है.
इससे आगे बढकर मार्क यह भी कहते हैं कि 12 वीं कक्षा के छियालीस प्रतिशत विद्यार्थी विज्ञान में बेसिक स्तर को भी नहीं छू पाते हैं, एडवांस्ड स्तर तक तो महज़ दो प्रतिशत ही पहुंचते हैं. यही हाल उनकी राजनीतिक समझ का भी है. हाई स्कूल के महज़ छब्बीस प्रतिशत बच्चे नागरिक शास्त्र में सामान्य स्तर के हैं. नेशनल असेसमेण्ट ऑफ एज्यूकेशनल प्रोग्रेस की इसी रिपोर्ट के अनुसार बारहवीं कक्षा के बच्चों में 1992 से 2005 के बीच पढने की आदत में भी भारी कमी आई है. इस कक्षा के केवल चौबीस प्रतिशत बच्चे ही ठीक-ठाक वर्तनी और व्याकरण वाला काम-चलाऊ गद्य लिख सकने में समर्थ हैं. यही हाल उनकी मौखिक अभिव्यक्ति का भी है.
मार्क का निष्कर्ष है कि आज की सांस्कृतिक और तकनीकी ताकतें ज्ञान और चिंतन के नए आयाम विकसित करने की बजाय सार्वजनिक अज्ञान का एक ऐसा माहौल रच रही है जो अमरीकी प्रजातंत्र के लिए घातक है. मार्क जो बात अमरीका के लिए कह रहे हैं, विचारणीय है कि कहीं वही बात भारत के युवा पर भी लागू तो नहीं हो रही? खतरे की घण्टी के स्वरों को हमें भी अनसुना नहीं करना चाहिए.
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Discussed book:
The Dumbest Generation: How the Digital Age Stupefies Young Americans and Jeopardizes Our Future
By Mark Bauerlein
Published By: Tarcher
273 pages, Hardcover
US $ 24.95
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 29 मई 2008 को प्रकाशित.
2 comments:
मैं इस आलेख मे वर्णित सभी चिंताओं उनके कारणों और प्रभाव से पुरी तरह सहमत हूँ.
पर साथ साथ कोई हल की भी बात होती तो क्या ही अच्छा होता?
डॉ. साहेब किताबों की दुनिया के बारे में आपके आलेख बहुत पठनीय हैं. हमारी 'पत्रिका' का यह कोलम बहुत प्रासंगिक है. आपकी कलम से समृद्ध होकर तो यह विषय और भी निखर गया है. मेरे लिए गौरव की बात हैं की आप भी राजस्थान से हैं. आपको पहले भी कई बार पढ़ने का सौभाग्य मुझे मिला है. आपके माध्यम से पत्रिका से आग्रह कर रहा हूँ की यह कोलम 'जस्ट जयपुर' से आगे बढाकर 'रेस्ट ऑफ़ राजस्थान' हो यानी, पत्रिका के सभी संस्करणों में प्रकाशित करने की व्यवस्था करें. गागर में सागर रूपी आपके गुणवत्तापूर्ण आलेख हमारी दिमागी भूख को नि:संदेह तृप्त करते हैं. हार्दिक साधुवाद.
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