वर्ल्ड ऑफ़ बुक्स
हम यह नहीं जानते कि हम कुछ नहीं जानते
डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
पिछले कुछ सालों से नसीम निकोलस तालेब यह अध्ययन कर रहे हैं कि कैसे हम खुद को यह समझाकर भरमाते हैं कि हम बहुत कुछ जानते हैं, जबकि वास्तव में हम बहुत ही कम जानते हैं। यह भी कि हम अपने सोच को अप्रासंगिक और अतार्किक तक सीमित रखते हैं जबकि बडी घटनाएं हमें चकित करती और हमारी दुनिया को अपने सांचे में ढालती रहती हैं। अपने इसी अध्ययन को तालेब ने प्रस्तुत किया है अपनी 400 पेज की नई किताब ‘द ब्लैक स्वान : द इम्पैक्ट ऑफ़ हाइली इम्प्रोबेबल’ (प्रकाशन: 17 अप्रेल, 2007) में। यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसाचुएट्स के प्रोफ़ेसर, आंशिक साहित्यिक निबंधकार, आंशिक गणितीय व्यापारी आदि-आदि तालेब ने इस किताब में अपनी पहली और चर्चित किताब जो 19 भाषाओं में छप चुकी है, ‘फ़ूल्ड बाय रेण्डमनेस’ के तर्कों को ही आगे बढाया है। इस किताब में तालेब ने दो टूक शब्दों में कहा है कि हम कुछ नहीं के बारे में सब कुछ जानने की गलतफ़हमी के शिकार हैं। लेकिन पहले यह तो बता दूं कि यह ब्लैक स्वान –काली बत्तख- क्या है?
तालेब कहते हैं कि ऑस्ट्रेलिया की खोज के पहले सारी दुनिया में यह माना जाता था कि बत्तख केवल सफ़ेद ही होती है। यह एक तरह का वैज्ञानिक सत्य था,और इस सत्य के मूल में था लोगों का आत्मानुभव। 1697 में जब कुछ पक्षी विशेषज्ञों ने ऑस्ट्रेलिया में काली बत्तख देखी तो अब तक के वैज्ञानिक सच को चुनौती मिली। अपने देखे और अपने अनुभव से अर्जित निष्कर्ष की सीमा और हमारे ज्ञान का कच्चापन सामने आया। एक काली बत्तख ने प्रकट होकर लाखों सफ़ेद बत्तखों के दर्शन से अर्जित ज्ञान को धराशायी कर दिया। इसीलिए तालेब कहते हैं , “आपके ज्ञान को चुनौती देने के लिए एक बदसूरत काली बत्तख काफ़ी है।“ इसी बात को वे और आगे बढाते हैं। उनके अनुसार, काली बत्तख (कृपया इसे शब्दश: न लें। यह तो एक प्रतीक है!) का प्रकट होना एक बाह्य परिघटना है क्यों कि यह हमारी नियमित अपेक्षाओं के बाहर घटित होती है, दूसरे इसका गहरा प्रभाव होता है, और तीसरे इस परिघटना के बाह्य होने के बावज़ूद मानवीय प्रकृति इसके प्रकटीकरण के लिए तर्क और व्याख्याएं गढकर यह विश्वास दिलाना चाहती हैं कि इस तरह की घटनाएं व्याख्येय हैं और इनकी भविष्यवाणी सम्भव है।
तालेब कहते हैं कि इन चन्द काली बत्तखों के प्रकट होने को आप अपने पूरे जीवन के साथ जोडकर देख सकते हैं। तब आप समझेंगे कि अपने चतुर्दिक के बारे में हम कितने अज्ञानी हैं और आने वाले कल के बारे में कुछ भी कह पाना कितना नामुमकिन है! हिटलर के उत्थान और विश्व युद्ध के बारे में सोचा था किसी ने? सोवियत संघ के पतन की कल्पना किसी ने की थी? इस्लामी फ़ण्डामेण्टलिज़्म की पदचाप किसको सुनाई दी थी? इण्टरनेट का तेज़ी से प्रसार, 1987 में शेयर बाज़ार का औंधे मुंह गिरना और फ़िर अचानक उठना, अनेक महामारियां, नए फ़ैशन, नए विचार, नए कलारूप, नई शैलियां, किसी किताब का बेस्टसेलर बन जाना, किसी व्यापारी का करोडपति-अरबपति बन जाना- बकौल तालेब ये सब काली बत्तखें ही तो हैं!
यद्यपि भविष्यवाणी की न्यूनतम सम्भाव्यता और उनके गहनतम प्रभावों का मेल काली बत्तखों को महत्वपूर्ण बनाता है, किताब के केन्द्र में यह बात नहीं है। तालेब अफ़सोस के साथ कहते हैं कि लगभग सारे ही समाज विज्ञानी इस मिथ्या विश्वास में जीते हैं कि उनके औज़ार अनिश्चितता की पैमाइश कर सकते हैं, और यही विश्वास घातक सिद्ध होता है। तालेब कहते हैं कि खुद उन्होंने वित्त और अर्थशास्त्र की दुनिया में ऐसा होते देखा है। सामाजिक मामलों तो होता ही है। दुनियाभर के व्यवसायी और सरकारें भविष्यवाणी पर अन्धाधुंध खर्च करते हैं। तालेब इसे फ़िज़ूलखर्ची करार देते हैं।
किताब का केन्द्रीय ताना-बाना जीवन में आकस्मिकता के प्रति सम्मान के अभाव के इर्द गिर्द बुना गया है। तालेब को अफ़सोस है कि हम पेनी को देखते हैं, डॉलर को अनदेखा करते हैं, जीवन की छोटी घटनाओं पर हम नज़र केन्द्रित करते हैं, बडी और महत्वपूर्ण घटनाओं को अनदेखा कर जाते हैं। यही कारण है कि हम अखबार पढ-पढकर और ज़्यादा अज्ञानी होते जाते हैं। तालेब साफ़ करते हैं कि हमारा जीवन कुछ महत्वपूर्ण आकस्मिक घटनाओं की मिली-जुली परिणति है। वे सलाह देते हैं कि हम अपने अस्तित्व पर नज़र डालें। यह सोचें-देखें कि हमारे पैदा होने के बाद हमारे अपने जीवन में और उसके इर्द-गिर्द क्या-क्या महत्वपूर्ण घटित हुआ। इसके बाद यह सोचें कि इनमें से कितनी बातों की हमने कल्पना की थी, कितनी बातें हमारी योजना के अनुरूप हुई हैं! हमारी नौकरी, अपने जीवन साथी से मुलाक़ात, अपनों का विश्वासघात, अचानक आई अमीरी या गरीबी – ये सब कितने प्रत्याशित थे? 11 सितम्बर 2001 का आतंकवादी काण्ड या दिसम्बर 2004 का सुनामी प्रलय – अगर इनका पूर्वानुमान होता तो क्या इन्हें रोक न लिया गया होता!
तालेब विश्लेषकों की काबिलियत को यह कह कर खारिज़ करते हैं कि वे आम लोगों से अधिक नहीं जानते। फ़र्क़ केवल इतना है कि उनका अन्दाज़े-बयां प्रभावशाली होता है और भारी भरकम शब्दावली तथा आंकडों के मायाजाल से वे हमें भरमा पाने में कामयाब होते हैं। तालेब की यह किताब दुनिया को देखने का हमारा नज़रिया बदलने की कोशिश करती है। यह हमें समझाती है कि जिसे हम जानते हैं उससे अधिक महत्वपूर्ण वह है जिसे हम नहीं जानते, और इसीलिए हमें अनजाने के प्रति अधिक ग्रहणशील और सहिष्णु होना चाहिये।
तालेब कहते हैं कि ऑस्ट्रेलिया की खोज के पहले सारी दुनिया में यह माना जाता था कि बत्तख केवल सफ़ेद ही होती है। यह एक तरह का वैज्ञानिक सत्य था,और इस सत्य के मूल में था लोगों का आत्मानुभव। 1697 में जब कुछ पक्षी विशेषज्ञों ने ऑस्ट्रेलिया में काली बत्तख देखी तो अब तक के वैज्ञानिक सच को चुनौती मिली। अपने देखे और अपने अनुभव से अर्जित निष्कर्ष की सीमा और हमारे ज्ञान का कच्चापन सामने आया। एक काली बत्तख ने प्रकट होकर लाखों सफ़ेद बत्तखों के दर्शन से अर्जित ज्ञान को धराशायी कर दिया। इसीलिए तालेब कहते हैं , “आपके ज्ञान को चुनौती देने के लिए एक बदसूरत काली बत्तख काफ़ी है।“ इसी बात को वे और आगे बढाते हैं। उनके अनुसार, काली बत्तख (कृपया इसे शब्दश: न लें। यह तो एक प्रतीक है!) का प्रकट होना एक बाह्य परिघटना है क्यों कि यह हमारी नियमित अपेक्षाओं के बाहर घटित होती है, दूसरे इसका गहरा प्रभाव होता है, और तीसरे इस परिघटना के बाह्य होने के बावज़ूद मानवीय प्रकृति इसके प्रकटीकरण के लिए तर्क और व्याख्याएं गढकर यह विश्वास दिलाना चाहती हैं कि इस तरह की घटनाएं व्याख्येय हैं और इनकी भविष्यवाणी सम्भव है।
तालेब कहते हैं कि इन चन्द काली बत्तखों के प्रकट होने को आप अपने पूरे जीवन के साथ जोडकर देख सकते हैं। तब आप समझेंगे कि अपने चतुर्दिक के बारे में हम कितने अज्ञानी हैं और आने वाले कल के बारे में कुछ भी कह पाना कितना नामुमकिन है! हिटलर के उत्थान और विश्व युद्ध के बारे में सोचा था किसी ने? सोवियत संघ के पतन की कल्पना किसी ने की थी? इस्लामी फ़ण्डामेण्टलिज़्म की पदचाप किसको सुनाई दी थी? इण्टरनेट का तेज़ी से प्रसार, 1987 में शेयर बाज़ार का औंधे मुंह गिरना और फ़िर अचानक उठना, अनेक महामारियां, नए फ़ैशन, नए विचार, नए कलारूप, नई शैलियां, किसी किताब का बेस्टसेलर बन जाना, किसी व्यापारी का करोडपति-अरबपति बन जाना- बकौल तालेब ये सब काली बत्तखें ही तो हैं!
यद्यपि भविष्यवाणी की न्यूनतम सम्भाव्यता और उनके गहनतम प्रभावों का मेल काली बत्तखों को महत्वपूर्ण बनाता है, किताब के केन्द्र में यह बात नहीं है। तालेब अफ़सोस के साथ कहते हैं कि लगभग सारे ही समाज विज्ञानी इस मिथ्या विश्वास में जीते हैं कि उनके औज़ार अनिश्चितता की पैमाइश कर सकते हैं, और यही विश्वास घातक सिद्ध होता है। तालेब कहते हैं कि खुद उन्होंने वित्त और अर्थशास्त्र की दुनिया में ऐसा होते देखा है। सामाजिक मामलों तो होता ही है। दुनियाभर के व्यवसायी और सरकारें भविष्यवाणी पर अन्धाधुंध खर्च करते हैं। तालेब इसे फ़िज़ूलखर्ची करार देते हैं।
किताब का केन्द्रीय ताना-बाना जीवन में आकस्मिकता के प्रति सम्मान के अभाव के इर्द गिर्द बुना गया है। तालेब को अफ़सोस है कि हम पेनी को देखते हैं, डॉलर को अनदेखा करते हैं, जीवन की छोटी घटनाओं पर हम नज़र केन्द्रित करते हैं, बडी और महत्वपूर्ण घटनाओं को अनदेखा कर जाते हैं। यही कारण है कि हम अखबार पढ-पढकर और ज़्यादा अज्ञानी होते जाते हैं। तालेब साफ़ करते हैं कि हमारा जीवन कुछ महत्वपूर्ण आकस्मिक घटनाओं की मिली-जुली परिणति है। वे सलाह देते हैं कि हम अपने अस्तित्व पर नज़र डालें। यह सोचें-देखें कि हमारे पैदा होने के बाद हमारे अपने जीवन में और उसके इर्द-गिर्द क्या-क्या महत्वपूर्ण घटित हुआ। इसके बाद यह सोचें कि इनमें से कितनी बातों की हमने कल्पना की थी, कितनी बातें हमारी योजना के अनुरूप हुई हैं! हमारी नौकरी, अपने जीवन साथी से मुलाक़ात, अपनों का विश्वासघात, अचानक आई अमीरी या गरीबी – ये सब कितने प्रत्याशित थे? 11 सितम्बर 2001 का आतंकवादी काण्ड या दिसम्बर 2004 का सुनामी प्रलय – अगर इनका पूर्वानुमान होता तो क्या इन्हें रोक न लिया गया होता!
तालेब विश्लेषकों की काबिलियत को यह कह कर खारिज़ करते हैं कि वे आम लोगों से अधिक नहीं जानते। फ़र्क़ केवल इतना है कि उनका अन्दाज़े-बयां प्रभावशाली होता है और भारी भरकम शब्दावली तथा आंकडों के मायाजाल से वे हमें भरमा पाने में कामयाब होते हैं। तालेब की यह किताब दुनिया को देखने का हमारा नज़रिया बदलने की कोशिश करती है। यह हमें समझाती है कि जिसे हम जानते हैं उससे अधिक महत्वपूर्ण वह है जिसे हम नहीं जानते, और इसीलिए हमें अनजाने के प्रति अधिक ग्रहणशील और सहिष्णु होना चाहिये।
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