Sunday, August 2, 2020

दो दशक पहले का 'कोरोना' काल!

आज शाम अपने भतीजे अरविंद  से बात कर रहा था. अरविंद उदयपुर में रहता है और उसका अच्छा ख़ासा और खूब फैला हुआ व्यवसाय है. बहुत व्यस्त रहता है. हमें गर्व होता है, बच्चों को इस तरह प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए देख कर. बहुत स्वाभाविक है कि बात इधर-उधर से होती हुए कोरोना पर आ टिकी. इसी क्रम में उसने एक मार्के की बात कही. बोला कि “चाचाजी, कोरोना के शुरुआती समय में करीब दो महीने कहीं जाना-आना नहीं हुआ, और यह समय मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत समयों में से है”. इस बात को समझ सकना मेरे लिए कठिन नहीं था. भाग दौड़ भरी ज़िंदगी में से अगर कुछ समय परिवार के साथ बिताने का मौका मिला तो उसे खूबसूरत और यादगार होना ही था. लेकिन जब अरविंद यह बात कर रहा था, तो उसकी बात सुनने के साथ ही मेरे मन में अपनी स्मृतियां भी तैर रही थीं. यह भी एक संयोग ही है कि अभी जिस स्मृति की बात कर रहा हूं उसका सीधा सम्बंध उससे भी है. आगे वाले वृत्तांत में मैंने अपने जिन भाई साहब के निधन पर उदयपुर जाने की चर्चा की है वे इस अरविंद के पिताजी ही थे.

असल में मैं इन दिनों अपने जो संस्मरण लिख रहा हूं उसमें अपनी नौकरी के बहुत सारे प्रसंग भी अंकित किये हैं. मैं प्राचार्य पद पर पदोन्नत होकर जुलाई 1998 में सिरोही ज़िले में स्थित आबू रोड पहुंचा था और करीब बीस माह वहां इस पद पर रहा. इसके बाद मेरी पदोन्नति स्नातकोत्तर प्राचार्य पद पर हो गई और मैं राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरोही में आ गया था. आबू रोड में अपने कार्यकाल के बारे में लिखने के लिए मेरे पास अधिक प्रीतिकर स्मृतियां नहीं हैं, हालांकि जो हैं उन्हें लिखा है. वहां के एक साथी भगवान दास  जी ने यह लिखा भी कि उन्हें मेरे इस कार्यकाल के संस्मरणों की प्रतीक्षा है, मैं उन्हें सार्वजनिक करने से बचता रहा हूं. लेकिन आज जब अरविंद से बात हुई तो लगा कि उस काल का एक संस्मरण तो साझा कर ही दूं. यह आबू रोड का मेरा दूसरा संस्मरण है. पता नहीं पहला संस्मरण कभी यहां सोशल मीडिया पर साझा करूंगा भी या नहीं! फिलहाल तो यह पढ़ें:

दूसरा प्रसंग बहुत मज़ेदार है. इसी कॉलेज के एक वरिष्ठ प्राध्यापक पूनमा राम खोड किसी अन्य कॉलेज में प्राचार्य पद पर कार्यरत थे और वे आबू रोड में आने के लिए प्रयत्नरत थे. यह स्वाभाविक भी है. मैं अपने भाई साहब के निधन के कारण उदयपुर गया हुआ था कि पीछे से इन खोड़ साहब का तबादला आबू रोड हो गया और मुझे भीनमाल स्थानांतरित कर दिया गया. अब क्योंकि खोड़ साहब आबू रोड आने को बहुत व्याकुल थे, वे शीघ्रातिशीघ्र आबू रोड आए और मेरी अनुपस्थिति में वहां के प्राचार्य का पद भार ग्रहण कर लिया. जब तीन चार दिन बाद मैं उदयपुर से लौटा तब तक किसी प्रशासनिक कारण से यह आदेश जारी हो गया कि अगले आदेश तक यथास्थिति बनाई रखी जाए. इसका अर्थ यह हुआ कि खोड़ साहब प्राचार्य हो गए, मैं अधर में लटक गया. यथास्थिति के चलते मैं भीनमाल जाकर भी जॉइन नहीं कर सकता था. अब, खोड़ साहब के मन में यह धुकधुकी कि जब मैं उदयपुर से लौटकर आऊंगा तब जाने क्या दंगा करूंगा? ख़ैर. मैं आया और दस बजे कॉलेज गया. खोड़ साहब कुर्सी पर बैठे हुए. मैंने उन्हें बधाई दी. वे तो धूम धड़ाके के लिए तैयार थे, जो हुआ नहीं. चाय आई. हमने चाय पी. न वे कुछ बोलें, न मैं. आखिर उन्होंने ही मौन तोड़ा. मुझसे पूछा “प्राचार्य कौन रहेगा?” मैंने जवाब दिया, “आप”. उन्होंने फिर पूछा, “इस चेम्बर में कौन बैठेगा?” मैंने कहा – “आप”. उनका अगला सवाल था, “आप कहां बैठेंगे?” मैंने उस कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए, जिस पर उस वक़्त मैं बैठा था, जवाब दिया- “यहां, या फिर स्टाफ रूम में जाकर बैठ जाऊंगा.” अब तो उनके पास पूछने को कुछ बचा ही नहीं था. तो मैंने ही कहा, “देखिये, मैं दस बजे कॉलेज आऊंगा, दस्तख़त करूंगा. जब तक मन होगा, यहां रुकूंगा. फिर घर चला जाऊंगा. मेरा फ़ोन नम्बर आपके पास है ही. कोई ख़ास बात हो तो मुझे सूचित कर सकते हैं.”

और इस तरह जो छह माह बीते वे मेरी नौकरी के सबसे ज़्यादा तनाव रहित छह माह थे. और उन्हीं छह महीनों को याद कर रहा था मैं अरविंद की बात सुनते हुए. इस दौरान मैंने खूब किताबें पढ़ीं, खूब फिल्में देखीं और खूब भ्रमण किया. कॉलेज से निकल कर घर जाता तो रास्ते में एक वीडियो लाइब्रेरी थी वहां से दो तीन सीडी किराये पर लेता और घर जाकर उनका आनंद लेता. हर रविवार सुबह नाश्ता करके हम दोनों घर से निकल जाते. पूरे छह माह हमारा यह क्रम रहा कि एक सप्ताह अम्बाजी जाना है तो दूसरे सप्ताह माउण्ट आबू. हमारे पास स्कूटर था. उसी पर ये यात्राएं कीं. उसी दौरान कॉलेज में एक बड़ी हड़ताल हुई. प्राचार्य मुर्दाबाद के नारों के बीच मैं विद्यार्थियों के भीड़ में से निकल कर कॉलेज जाता और बेहद तनावग्रस्त प्राचार्य के सामने एकदम निष्फिक्र भाव से कुछ देर बैठकर फिर उसी मस्त चाल से घर लौट आता. यह सुखद गत्यवरोध कोई छह माह चला.

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